#आषाढ़ मास प्रकृति और अध्यात्म का संगम

विनोद कुमार झा

आषाढ़ मास हिन्दू पंचांग का चौथा मास होता है जो जून-जुलाई के समय पड़ता है। यह काल न केवल वर्षा ऋतु का प्रारंभ करता है बल्कि धार्मिक दृष्टि से भी अत्यंत प्रभावशाली माना गया है। यह वह समय होता है जब आकाश वर्षा से घिरा रहता है, धरती नवजीवन से भर उठती है और मनुष्य की चेतना भी भीतर की यात्रा के लिए तत्पर होती है। इस माह में वातावरण में नमी, शीतलता और धैर्य का समावेश होता है, जो तपस्या और आत्मनिरीक्षण के लिए अनुकूल होता है।

यह मास न केवल प्राकृतिक परिवर्तन का परिचायक होता है, बल्कि आध्यात्मिक दृष्टिकोण से भी अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया है। जैसे-जैसे सूर्य उत्तरायण से दक्षिणायण की ओर गति करता है, वैसे-वैसे आषाढ़ मास जीवन में संयम, तप, उपासना और शुद्धि का संकेत देने लगता है। वर्षा की फुहारें जहां भूमि को तृप्त करती हैं, वहीं यह मास मनुष्य को आत्म-विश्लेषण, त्याग और संयम के मार्ग पर अग्रसर करता है।

इस माह में सूर्य और चंद्र की गति के अनुसार कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष में कई शुभ पर्व और धार्मिक अनुष्ठान आते हैं जो जीवन में पुण्य, समृद्धि और आत्मिक उन्नति का द्वार खोलते हैं। कृष्ण पक्ष में जहां अमावस्या का गूढ़ रहस्य छिपा होता है, वहीं शुक्ल पक्ष में पूर्णिमा और देवशयनी एकादशी जैसे पर्व आते हैं जो संपूर्ण ब्रह्मांडीय संतुलन और मानव चेतना को दिशा देते हैं। कृष्ण पक्ष में पितृ और तामसिक शक्तियों का प्रभाव अधिक होता है, जबकि शुक्ल पक्ष में दिव्यता, उपासना और आराधना की प्रधानता होती है।

आषाढ़ मास का विशेष महत्त्व इसलिए भी है क्योंकि इसी महीने से चातुर्मास का आरंभ होता है, जिसे देवताओं का विश्राम काल भी कहा जाता है। शास्त्रों में यह चार माह तप, व्रत, अध्ययन और ब्रह्मचर्य के लिए आदर्श माने गए हैं। आषाढ़ शुक्ल एकादशी से शुरू होकर कार्तिक शुक्ल एकादशी तक चलने वाले इस चातुर्मास में ऋषि-मुनि एक स्थान पर रहकर साधना करते थे और गृहस्थजन भी व्यसन और भोग से दूर रहकर आत्मिक अनुशासन का पालन करते थे। कृषक वर्ग के लिए यह मास कृषि की तैयारी का होता है, जब धरती में बीज डाले जाते हैं। आध्यात्मिक दृष्टि से भी यह मास 'संभावना' का समय है जहां आत्मा के भीतर भी अच्छे कर्मों के बीज बोए जाते हैं।

इस मास का प्रभाव केवल धार्मिक नहीं, सामाजिक और मानसिक रूप से भी गहरा होता है। आषाढ़ का महीना व्यक्ति को संयम, संतुलन और संकल्प की ओर प्रवृत्त करता है। यही कारण है कि इस मास में विवाह, नया निर्माण, गृह प्रवेश जैसे कार्य वर्जित माने जाते हैं और अधिकतर ध्यान, व्रत, उपासना, जप और अध्ययन को प्राथमिकता दी जाती है। यह काल जैसे आत्मा को 'वर्षा-रहित मनोभूमि' से 'ऋतमयी चेतना' की ओर ले जाने वाला मार्ग बन जाता है।

हिन्दू पंचांग के अनुसार हर माह दो पक्ष होते हैं 

कृष्ण पक्ष (अंधकार या क्षय का प्रतीक)

शुक्ल पक्ष (प्रकाश और वृद्धि का प्रतीक)

कृष्ण पक्ष :इस पक्ष में चंद्रमा क्षीण होता है, तामसिक और पितृ शक्तियों का प्रभाव बढ़ता है। इस काल में आत्मशुद्धि, ध्यान, पितृ तर्पण, कर्मों की समीक्षा और व्रत विशेष रूप से किए जाते हैं।

मुख्य तिथि  आषाढ़ अमावस्या: इस दिन पितरों के लिए तर्पण करने से विशेष फल मिलता है।

शुक्ल पक्ष : यह पक्ष ब्रह्म तेज, आस्था, उन्नति और देवतुल्य कार्यों का प्रतिनिधित्व करता है। इस दौरान उपवास, व्रत, दान, और धार्मिक अनुष्ठान करने से अत्यंत पुण्य प्राप्त होता है।

मुख्य तिथियाँ : देवशयनी एकादशी, गुरु पूर्णिमा: ये तिथियाँ जीवन में आध्यात्मिक उन्नति और ज्ञान की प्राप्ति का द्वार खोलती हैं।

इस मास में क्या करना चाहिए: देवशयनी एकादशी से चातुर्मास व्रत का संकल्प लें। नियमित रूप से श्रीहरि विष्णु की उपासना करें। तुलसी पूजन, गीता पाठ, भागवत श्रवण करें।जल स्रोतों के निकट स्वच्छता का कार्य करें (धार्मिक दृष्टि से भी पुण्यदायक)। सत्संग, ब्रह्मचर्य, संयम और आत्मशुद्धि को जीवन में अपनाएं।

इस मास में क्या नहीं करना चाहिए: विवाह, नव-गृह प्रवेश, मुंडन जैसे मांगलिक कार्य वर्जित माने जाते हैं। अधिक तामसिक भोजन और व्यवहार से बचें। देवशयन के कारण मूर्तियों की यात्रा, झूला आदि आयोजन नहीं होते (श्रावण में होते हैं)। इस काल में वृथा वाद-विवाद, अपवित्र आचरण और आलस्य से बचना चाहिए।

विभिन्न धर्मग्रंथों में वर्णित आषाढ़ मास का महत्व

स्कंद पुराण में बताया गया है कि आषाढ़ शुक्ल एकादशी से देवता क्षीरसागर में योगनिद्रा में चले जाते हैं और कार्तिक शुक्ल एकादशी को जागते हैं। इस काल में किए गए व्रत, तप, पाठ आदि सहस्त्र गुना फल देते हैं।

पद्म पुराण के अनुसार चातुर्मास की महिमा और हरि शयन की कथा विस्तार से वर्णित है। कहा गया है कि इस अवधि में व्रत रखने से समस्त पापों का क्षय होता है और ब्रह्मलोक तक की प्राप्ति संभव होती है।

ब्रह्मवैवर्त पुराण में बताया गया है कि आषाढ़ में मनुष्य का मन भी 'मेघ' की तरह भटकता है, इसलिए संयम और सत्संग का सहारा अनिवार्य है। गुरु पूर्णिमा को गुरु की पूजा करने से जीवन का अज्ञान अंधकार समाप्त होता है।

विष्णु धर्मसूत्र और नारद पुराण में आषाढ़ शुक्ल एकादशी से चातुर्मास व्रत का विधिविधान समझाया गया है और यह भी बताया गया है कि जो व्यक्ति इस चार मास तक व्रत, ब्रह्मचर्य, और साधना करता है, वह मृत्यु के पश्चात विष्णु लोक को प्राप्त करता है।

पौराणिक कथा : पुराणों के अनुसार एक समय नारद मुनि ने श्रीविष्णु से पूछा  "हे प्रभु! आप आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक क्यों सो जाते हैं?"

भगवान बोले "यह काल पृथ्वी पर तमस का होता है। जब मनुष्य प्राकृतिक रूप से चंचल, भ्रमित और अपवित्र होता है। इसलिए मैं योगनिद्रा में चला जाता हूँ ताकि इस काल में लोग अपने भीतर झांके और तप से मुझे जाग्रत करें। जो व्यक्ति चातुर्मास का पालन करता है, वही मुझे इस निद्रा से जागा सकता है।"

आषाढ़ मास न केवल वर्षा का प्रतीक है बल्कि चेतना की वर्षा का भी समय है। यह मास हमें सिखाता है कि जब संसार में सब कुछ गीला हो रहा हो, तब आत्मा को तप से गरम और जाग्रत रखना चाहिए। यह आत्मा के बीजारोपण का समय है। इस समय किया गया तप, ध्यान, व्रत और साधना न केवल लौकिक सुख देती है बल्कि आध्यात्मिक रूप से भी अमरत्व का मार्ग प्रशस्त करती है।



Post a Comment

Previous Post Next Post