भारतीय पुराणों में महर्षि दधीचि का नाम अद्वितीय Tapobal और Atma-tyag के लिए अमर माना जाता है। उन्होंने देवताओं की रक्षा हेतु अपनी अस्थियों तक का दान किया, जिनसे वज्र अस्त्र का निर्माण हुआ। लेकिन कम लोग जानते हैं कि एक समय ऐसा भी आया जब स्वयं भगवान विष्णु को दधीचि से युद्ध करना पड़ा। यह संघर्ष अहंकार का नहीं धर्म, मर्यादा और विश्व-व्यवस्था की रक्षा का प्रतीक था।
यह कथा दर्शाती है कि जब कोई महान तपस्वी भी अपने संकल्प में अडिग होकर ब्रह्मांडीय संतुलन को चुनौती देता है, तब ईश्वर को हस्तक्षेप करना पड़ता है।
#देवताओं में संकट और दधीचि का कठोर तप : एक काल ऐसा आया जब असुरों ने तीनों लोकों में व्याप्त धर्म की जड़ें हिला दीं। उनका अत्याचार चरम पर था। देवताओं ने युद्ध भी किया, मंत्र भी, यज्ञ भी परंतु असुरों की नई शक्ति ने उन्हें लगातार पराजित किया।
देव गुरु बृहस्पति ने एक सभा में कहा, “देवगण! केवल एक ही उपाय है दधीचि ऋषि के हड्डियों से बने एक दिव्य अस्त्र का निर्माण। परंतु वे स्वयं अपनी देह-त्याग की अनुमति दें, यह अत्यंत कठिन है।”दधीचि वे महर्षि थे जो Tap सिद्धि के चरम पर पहुँच चुके थे। वर्षों का तप, अग्नि में स्नान, वायु-पान और महामंत्रों के जप के कारण उनका तेज इतना प्रबल हो चुका था कि मृत्यु उन्हें स्पर्श भी नहीं कर सकती थी।
देवताओं ने निवेदन किया, किंतु दधीचि ने कहा, “हे देवों! मेरा जीवन तप को समर्पित है। यदि मैं अपना तप अपूर्ण छोड़ दूँ तो यह ब्रह्मांडीय नियमों के विरुद्ध होगा। जब तक मेरा संकल्प पूर्ण नहीं होगा, मैं अपना शरीर नहीं छोड़ सकता।”उनके तप से तीनों लोकों में कंपन फैलने लगा, और एक नई समस्या जन्मी,दधीचि का तप अत्यंत शक्तिशाली हो रहा था, जिससे देवताओं तथा दानवों का संतुलन बिगड़ सकता था।
ब्रह्मांड का डगमगाता संतुलन :देवताओं की चिंता बढ़ने लगी। दधीचि के शरीर से उठता तेज दिन-प्रतिदिन दिव्य-ज्योति की सीमा को पार करने लगा। बताया जाता है कि जब वे प्रणव मंत्र का उचारण करते, तब—
- दिशाएँ थर्रा उठतीं,
- आकाश में विद्युत-रेखाएँ दौड़ जातीं,
- और पृथ्वी पर तप की गर्मी फैल जाती।
देवताओं को समझ आया कि यदि दधीचि अपने तप को इसी प्रकार बढ़ाते रहे तो जो भी भविष्य का युद्ध होगा, उसमें किसी देव, दानव या मानव का अस्तित्व नहीं बचेगा।
तब देवताओं ने भगवान विष्णु का स्मरण किया,“हे श्रीहरि! आपकी लीला के बिना यह संकट दूर नहीं हो सकता।”
विष्णु का आगमन और दधीचि से संवाद : भगवान विष्णु क्षीर-सागर से प्रकट हुए। उनका हृदय करुणा से भरा था, किंतु धर्म उनकी प्रथम प्राथमिकता। विष्णु दधीचि के आश्रम पहुंचे। चारों ओर तप की ज्वाला के समान दिव्य उष्मा फैली थी। ऋषि ध्यान-मुद्रा में थे।
विष्णु बोले, “हे महर्षि! आपका तप प्रशंसनीय है। परंतु इससे सृष्टि का संतुलन बिगड़ रहा है। इस समय देवताओं को आपके शरीर का सार आपकी अस्थियाँ भी आवश्यक हैं। कृपया संसार की रक्षा हेतु अपना तप रोक दें।”
दधीचि ने नेत्र खोले। वे शांत किंतु दृढ़ थे।“हे विष्णु! आप देवों के पालनहार हैं। परंतु तप एक बार आरंभ किया जाए तो उसे अपूर्ण छोड़ना अधर्म है। मेरा संकल्प ब्रह्म-नियम से बंधा है। मैं इसे नहीं तोड़ सकता।”विष्णु ने समझाया, समझाया पर दधीचि अपने निर्णय पर अटल रहे।
धर्म-संकट: जब ईश्वर को करना पड़ा युद्ध : जब दधीचि का तप ब्रह्मांड को डगमगाने लगा, तब विष्णु ने कहा ,“हे महान ऋषि! आपकी तप-सिद्धि अब सृष्टि के विनाश का कारण बन रही है। मैं जानता हूँ कि आप अधर्म नहीं चाहेंगे। इसलिए यदि आप स्वयं देह-त्याग नहीं करेंगे, तो मुझे आपकी तप-सिद्धि को रोकने हेतु बल-प्रयोग करना पड़ेगा।”
दधीचि मुस्कुराए, “यदि यही आपका धर्म है, तो आइए श्रीहरि मेरे तप और आपके चक्र का निर्णय यहीं हो जाए।”और फिर प्रारंभ हुआ एक अद्भुत देव-ऋषि युद्ध।
युद्ध का दिव्य वर्णन
- दधीचि ने हाथ उठाए और उनके तप से अग्नि-समान ऊर्जा प्रकट हुई।
- भगवान विष्णु ने अपना सुदर्शन चक्र उठाया।
- पृथ्वी कंपित हो उठी, दिशाएँ डोलने लगीं।
दधीचि ने मंत्रों से आकाश में तेज-शक्ति उत्पन्न की, जो सुदर्शन चक्र को रोकने लगी। चक्र पहली बार धीमा पड़ गया यह दधीचि की असाधारण शक्ति का प्रमाण था। विष्णु ने अपने योगमाया बल से चक्र में अतिरिक्त दिव्यता भरी। अब चक्र दधीचि के तेज को चीरने लगा।
दधीचि ने देखा कि सृष्टि को बचाने के लिए विष्णु वास्तव में बाध्य हैं।
वे बोले, “हे विष्णु! अब मैं समझ गया कि यह युद्ध मेरे अहंकार का नहीं, ब्रह्म के निर्णय का है। मेरा तप यदि सृष्टि को संकट में डालता है, तो मेरा अस्तित्व व्यर्थ है। आप चक्र को रोकें मैं स्वेच्छा से अपना शरीर अर्पित करता हूँ।”और दधीचि ने तप की अग्नि को शांत कर, योगबल से अपनी प्राणशक्ति समर्पित कर दी।
दधीचि का महान बलिदान :विष्णु ने करुणा से कहा, “ऋषिवर! आज आपने सृष्टि के हित में सर्वोच्च त्याग किया है। आपका नाम युगों-युगों तक अमर रहेगा। आपके अस्थियों से बना अस्त्र धर्म-रक्षा का कारण बनेगा।”
दधीचि का शरीर दिव्य अग्नि में परिवर्तित हुआ।
उनकी अस्थियाँ देवताओं द्वारा संग्रहित की गईं।
इन्हीं से इंद्र के वज्र का निर्माण हुआ और आगे असुरों का विनाश हुआ।
कहानी का आध्यात्मिक संदेश
- धर्म हमेशा सर्वोपरि है, चाहे पक्ष देव हो या ऋषि।
- तप भी मर्यादा में होना चाहिए, अन्यथा वह विनाशकारी हो सकता है।
- ईश्वर तब तक हस्तक्षेप नहीं करते, जब तक सृष्टि की रक्षा हेतु आवश्यक न हो।
- दधीचि का बलिदान सिखाता है कि
"सच्चे महान वही हैं जो व्यक्तिगत उपलब्धि से ऊपर उठकर लोक-कल्याण को महत्व दें।"
