-कुशा केवल तिनका नहीं, यह अध्यात्म का स्रोत है
विनोद कुमार झा
क्या आपने कभी सोचा है कि हिंदू पूजा-पाठ में एक साधारण-सी दिखने वाली कुश की अंगूठी (कुशा रिंग) क्यों धारण की जाती है? क्या यह केवल एक परंपरा है या इसके पीछे कोई अद्भुत आध्यात्मिक रहस्य छिपा हुआ है? यह अंगूठी कोई आम अंगूठी नहीं, बल्कि उसे पहनना मानो दिव्य ऊर्जा की ढाल पहनने जैसा है। इसे पहनकर जब कोई व्यक्ति वेदपाठ करता है, हवन करता है या किसी मृत आत्मा के लिए तर्पण करता है, तो वह केवल कर्म नहीं कर रहा होता वह स्वयं को एक ऊर्जावान माध्यम में रूपांतरित कर चुका होता है।
कहते हैं, जब ब्रह्मांड की सूक्ष्म तरंगें असंतुलित हो जाती हैं, तब कुशा की स्पर्श शक्ति उन्हें संतुलित करती है। इसके तंतु सूर्य की किरणों जैसे ऊर्जावान होते हैं। वैज्ञानिक भी मानते हैं कि कुशा (Desmostachya bipinnata) में विद्युत अवरोधक गुण होते हैं, जिससे यह नकारात्मक ऊर्जा को आकर्षित नहीं होने देती। ऋषियों ने इसे केवल घास नहीं माना, बल्कि इसे ‘पवित्र देवता’ के समान माना। यही कारण है कि इसके तिनके से बनी अंगूठी साधक की चेतना को ब्रह्मांडीय तरंगों से जोड़ती है।
जब कोई व्यक्ति श्राद्ध, संध्या, हवन या अन्य वेदविहित कर्म करता है , तो शरीर के माध्यम से अनेक प्रकार की सूक्ष्म ऊर्जाएँ प्रवाहित होती हैं। लेकिन यह ऊर्जा तभी फलदायी होती है जब शरीर एक विशेष स्थिति में हो शुद्ध, समाहित और केंद्रित। कुश की अंगूठी इस स्थिति को साधने में सहायक होती है। यह मन को चंचलता से रोकती है और स्थिरता प्रदान करती है। अंगूठी को दाहिने हाथ की अनामिका (रिंग फिंगर) में पहनने का रहस्य भी यही है यह उंगली ‘सूर्य नाड़ी’ से जुड़ी होती है।
जैसे ही कोई व्यक्ति कुश की अंगूठी धारण करता है, वह पृथ्वी तत्व से जुड़ जाता है। वह प्रकृति के साथ एक सामंजस्यपूर्ण संपर्क में आ जाता है। ऋषियों ने स्पष्ट कहा है कि बिना कुश की अंगूठी के कोई वैदिक कर्म पूर्ण नहीं होता, क्योंकि तब साधक स्वयं ही अपवित्र होता है। अब प्रश्न उठता है कि यह रहस्य किस धर्मग्रंथ में वर्णित है, और इसके पीछे कौन-सी कथा है?
पद्म पुराण और गरुड़ पुराण के अनुसार, त्रेतायुग में एक समय भगवान विष्णु ने ब्रह्मा जी से कहा "हे ब्रह्मन्! जब मैं पृथ्वी पर यज्ञ रूप में उपस्थित होता हूँ, तो मेरे शरीर का प्रत्येक अंग पवित्र सामग्री बन जाता है। मेरे रोम से जो कुशा उत्पन्न होती है, वह यज्ञ की रक्षा के लिए अत्यंत आवश्यक है।" उसी समय, भगवान विष्णु ने अपने शरीर से कुशा को उत्पन्न किया और उसे यज्ञ कर्म के लिए दे दिया।
एक अन्य कथा के अनुसार, जब भगवान वामन ने तीन पग में त्रैलोक्य नाप लिया, तब उनके एक चरण से पृथ्वी का स्पर्श हुआ और उस स्पर्श स्थल पर कुशा की उत्पत्ति हुई । देवताओं ने उस स्थान को 'कुशस्थली' कहा और तभी से कुशा को पवित्रतम मान लिया गया। उसी कुशा से ऋषियों ने अंगूठियाँ बनाई ताकि वे अपने शरीर को यज्ञ योग्य बना सकें।
महाभारत के अनुशासन पर्व में भी यह उल्लेख आता है कि जब भी कोई तर्पण या श्राद्ध करता है, उसे कुश की अंगूठी पहनकर ही पितरों को अर्पण करना चाहिए। बिना कुशा के किया गया कोई भी तर्पण पितृलोक में स्वीकार नहीं किया जाता। यह केवल रस्म नहीं, बल्कि एक प्रकार का आत्मिक माध्यम है जो जीव और परलोक के बीच सेतु बनाता है।
कुश की अंगूठी पहनने की परंपरा केवल कर्मकांड नहीं, यह एक दिव्य विज्ञान है शरीर, मन और आत्मा को एकत्र कर परब्रह्म से संवाद करने की विधि। यह अंगूठी एक एंटीना की भांति काम करती है जो ब्रह्मांडीय ऊर्जा को साधक के भीतर प्रवाहित करती है। अगली बार जब आप किसी पूजा में भाग लें और पुजारी कुश की अंगूठी पहनाएं, तो समझिए आप एक साधारण मनुष्य नहीं रहे, आप दिव्यता के संपर्क में प्रवेश कर चुके हैं।