विनोद कुमार झा
भारतीय संस्कृति में विवाह केवल एक सामाजिक बंधन नहीं, बल्कि एक धार्मिक संस्कार माना गया है। इसमें पति और पत्नी दोनों को पूज्य भाव से देखा जाता है। परंतु यह प्रश्न कई बार उभरता है कि पत्नी को "अर्धांगिनी" और पति को "परमेश्वर" क्यों कहा गया है? क्या यह संबोधन केवल पुरुष-प्रधान मानसिकता का परिणाम है या इसके पीछे कोई गूढ़ धार्मिक और सामाजिक कारण छिपा है? इन शब्दों का प्रयोग कोई श्रेष्ठता का संकेत नहीं, बल्कि कर्तव्यों और जिम्मेदारियों की ऊँचाई दर्शाने वाला होता है।
भारतीय धर्मग्रंथों में पति को परमेश्वर कहे जाने की अवधारणा केवल बाह्य दिखावा नहीं है, बल्कि यह उस संकल्प की व्याख्या है, जिसमें पति का उत्तरदायित्व अत्यंत गंभीर बताया गया है। जिस प्रकार परमेश्वर अपने भक्तों की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार पति को भी पत्नी के मान, मर्यादा, सुख-सुरक्षा और आत्मिक विकास का रक्षक माना गया है। यहां परमेश्वरत्व का तात्पर्य अत्याचारी प्रभुता नहीं, बल्कि जिम्मेदार समर्पण है।
समाजशास्त्र की दृष्टि से देखें तो यह पदवी (परमेश्वर) पुरुष को स्त्री से ऊँचा नहीं करती, बल्कि उसे एक आदर्श स्थापित करने की चुनौती देती है। जैसे एक राजा राज्य की प्रजा की भलाई के लिए उत्तरदायी होता है, वैसे ही पति को अपनी पत्नी के लिए धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के मार्ग में सहायक बनना चाहिए। यह पद पत्नी को दासी नहीं बनाता, बल्कि पति को एक धर्मपालक बनाता है।
आज के आधुनिक युग में यह आवश्यक हो गया है कि हम इन धार्मिक उपमाओं को सही दृष्टिकोण से समझें। ‘पति परमेश्वर’ की अवधारणा यदि बल, नियंत्रण या वर्चस्व की भावना से भरी हो, तो यह धर्म की आत्मा के विपरीत है। लेकिन यदि इसे कर्तव्यनिष्ठा, सेवा, प्रेम और आत्मिक संरक्षण के भाव से देखा जाए, तो यह रिश्तों की सबसे सुंदर परिभाषा बन जाती है।
हिंदू धर्मशास्त्रों में, विशेषकर मनुस्मृति, महाभारत , रामायण, विवाहोपनिषद तथा धर्मसूत्रों में पति को पत्नी के लिए परम पूज्य कहा गया है। मनुस्मृति (5.148) में उल्लेख है:
“या देवी सर्वभूतेषु पत्नी रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।”
वहीं दूसरी ओर यह भी कहा गया है कि “पतिरेव पत्नी का इहलोकिक और पारलौकिक हित का एकमात्र आधार है।”
यह भाव इस दृष्टि से है कि पत्नी का जीवन ईश्वर प्राप्ति की यात्रा में पति के साथ संतुलित होकर आगे बढ़े। पति को गृहपति कहा गया है गृह का संचालन, धर्म का पालन, अग्निहोत्र, यज्ञ-कर्म तथा संतति रक्षण का उत्तरदायित्व पति के ऊपर है। अतः धार्मिक रूप से वह "परमेश्वर" नहीं, बल्कि "कर्तव्यपालक" के रूप में उच्चतम भूमिका में प्रतिष्ठित होता है।
पति को परमेश्वर कहे जाने की सबसे सुंदर व्याख्या पार्वती और शिव के संबंध में मिलती है। माता पार्वती ने कठोर तप करके शिव को पति रूप में प्राप्त किया। उनका समर्पण केवल शारीरिक नहीं, आत्मिक था। विवाह के बाद भी वह शिव की सेवा नहीं, शिवत्व की अनुभूति करती रहीं। वह शिव के समक्ष नतमस्तक नहीं, समवेत थीं। ऐसे संबंध में पति को परमेश्वर कहा जाना दैवी भाव का प्रतीक था जहां दोनों का लक्ष्य आत्मोद्धार था।
स्त्री धर्म के अनुसार, जब एक पत्नी अपने पति में ईश्वर के अंश को देखती है, तो वह स्वयं के भीतर भी देवीत्व का अनुभव करती है। वह पति को पूजती नहीं, उसके धर्म को पूजती है, जो उसे भी पुण्य के मार्ग पर ले जाता है। इसलिए "पति परमेश्वर" एक पूजात्मक संबोधन नहीं, बल्कि विवाह को धर्मयात्रा के रूप में देखने की आध्यात्मिक दृष्टि है।
भारतीय समाज में पत्नी को गृहलक्ष्मी और पति को गृहस्वामी माना गया। परंतु ‘स्वामी’ शब्द अधिकार नहीं, उत्तरदायित्व का सूचक है। "परमेश्वर" कहे जाने का अर्थ यह था कि पति अपने जीवन से ऐसा आदर्श स्थापित करे जो पत्नी और परिवार के लिए ईश्वरवत हो जो न केवल पालन-पोषण करे, बल्कि न्याय, प्रेम, सुरक्षा और सम्मान दे।
लेकिन दुर्भाग्यवश समाज में कई बार इस धार्मिक अवधारणा को पुरुष-प्रधानता के रूप में बदल दिया गया। जबकि वास्तव में, यदि पति को परमेश्वर कहा गया है, तो वह केवल तभी तक है जब तक वह धर्म के अनुसार आचरण करे। यदि वह पत्नी का अपमान करता है, अत्याचार करता है या अन्य स्त्रियों की ओर आकर्षित होता है, तो वह अपने "परमेश्वरत्व" से नीचे गिर जाता है।
आधुनिक समाज में "पति परमेश्वर" की उपाधि को पुनर्परिभाषित करने की आवश्यकता है। यदि पति का आचरण ईश्वर जैसा नहीं, तो उसे यह पदवी देना केवल अंधश्रद्धा होगी। नारी अब केवल समर्पिता नहीं, सहचरी भी है। पत्नी के आत्मसम्मान, शिक्षा, निर्णय और अभिव्यक्ति का सम्मान पति को करना चाहिए। तभी यह संबंध पूज्य बन सकता है।
धर्म कभी भी अत्याचार का समर्थन नहीं करता। श्रीराम, शिव, और युधिष्ठिर जैसे पतियों ने अपनी पत्नी का सम्मान और धर्म निभाने में जीवन अर्पित कर दिया। वही पति ‘परमेश्वर’ कहलाने के योग्य हैं, जो अपनी पत्नी के साथ समभाव, समर्पण और सत्यनिष्ठा से जीवन जीते हैं।
परमेश्वरत्व का अर्थ अधिपत्य नहीं, आदर्शत्व है। पति को परमेश्वर कहे जाने का अर्थ यह नहीं कि वह स्त्री से श्रेष्ठ है, बल्कि वह उतना ही उच्च होना चाहिए जितना एक ईश्वर अपने भक्तों के लिए होता है करुणामय, न्यायकारी, सहायक और प्रेरणास्रोत। और जब पति ऐसा बनता है, तब पत्नी स्वयं उसे ‘परमेश्वर’ कहने से संकोच नहीं करती। यही भारतीय धर्म और सामाजिक मर्यादा का सच्चा दर्शन है।