विनोद कुमार झा
दुर्वा घास (जिसे "दूब" भी कहते हैं) हिन्दू पूजा-पाठ में अत्यंत पवित्र और शुभ मानी जाती है, विशेषतः भगवान श्रीगणेश की आराधना में इसका अत्यंत महत्व है। यह घास तीन, पाँच या अधिक विषम (odd) संख्या की गांठों (tips or shoots) में चढ़ाई जाती है, और प्रत्येक संख्या का अपना धार्मिक महत्व होता है।
दुर्वा घास की गांठों की संख्या और उसका महत्व:
3 गांठ (त्रिदला दुर्वा) : यह सबसे सामान्य और पवित्र मानी जाती है। यह त्रिदेव (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) और त्रिगुण (सत्व, रज, तम) का प्रतीक मानी जाती है। गणेशजी को विशेष प्रिय है।
5 गांठ: पंचतत्वों (भूमि, जल, अग्नि, वायु, आकाश) का प्रतिनिधित्व करती है। विशेष अनुष्ठान या मंत्रसिद्धि में इसका प्रयोग होता है।
21 गांठ : गणेश पूजा में 21 दूर्वा की गांठें चढ़ाने का विधान है। इसे "एकविंशति दुर्वा" कहा जाता है। यह भगवान गणेश के 21 नामों के प्रतीक माने जाते हैं और 21 मोदकों के साथ अर्पित करने से सिद्धि प्राप्त होती है।
108 गांठ: यह संख्या अत्यंत शक्तिशाली मानी जाती है। जपमाला की संख्या की तरह, यह संकल्प-पूर्ति और विशेष वरदान हेतु प्रयोग की जाती है।
गणेश पुराण में स्पष्ट कहा गया है: दूर्वां गणपतिं प्रीयं, त्रिदलं शुद्धि संयुतम्। 21 संख्या या त्रिदला दूर्वा, हर्षवर्धनं सुखप्रदम्।
अर्थात, त्रिदला (तीन पत्तियों वाली) या 21 संख्या में दूर्वा चढ़ाना भगवान गणेश को अत्यंत प्रिय है और यह सुख-समृद्धि और विजयदायक होती है।
साधारण पूजा : त्रिदला (3 पत्तियों वाली) दूर्वा अर्पित करें।
गणेश चतुर्थी या विशेष पूजन : 21 गांठ की दूर्वा चढ़ाएं।
महासंकल्प या अनुष्ठानिक पूजा : 108 गांठ की दूर्वा प्रयोग करें (अधिक अनुभवी ब्राह्मण या आचार्य के निर्देश पर)। ध्यान रखें कि दूर्वा ताजा, हरी-भरी और बिना कटी-फटी होनी चाहिए। मुरझाई हुई या टूटी हुई दूर्वा गणेशजी को नहीं चढ़ानी चाहिए।
दुर्वा घास की पौराणिक कथा: हिंदू धर्म में भगवान गणेश को "विघ्नहर्ता" और "सर्वप्रिय देव" के रूप में पूजा जाता है। उनकी पूजा में एक अत्यंत महत्वपूर्ण वस्तु है दुर्वा घास (जिसे दूब या दुर्वांकुर भी कहा जाता है)। विशेष रूप से त्रिदला (तीन पत्तियों वाली) दुर्वा को गणेशजी को अर्पित करना अत्यंत पुण्यदायक माना गया है। इसके पीछे एक अत्यंत रोचक और दिव्य पौराणिक कथा जुड़ी हुई है, जो इस प्रकार है:
कथा: अंधकासुर और दुर्वा का रहस्य : प्राचीन काल में एक असुर था जिसका नाम था अंधकासुर। वह अत्यंत बलशाली, अहंकारी और विनाशकारी प्रवृत्ति का था। अंधकासुर को एक वरदान प्राप्त था कि वह किसी भी अस्त्र-शस्त्र से नहीं मरेगा और उसे न अग्नि, न जल, न वायु मार सकेगी। इस अहंकार में उसने तीनों लोकों में आतंक मचा दिया।
देवता, ऋषि-मुनि, यक्ष, किन्नर, सभी त्रस्त होकर भगवान शिव के पास पहुंचे और उनसे रक्षा की याचना की। भगवान शिव ने कहा कि इस दानव का विनाश सिर्फ एक ही कर सकता है गणेश। सभी देवताओं ने मिलकर भगवान गणेश का आह्वान किया।
गणेशजी ने अंधकासुर का सामना किया। जैसे ही युद्ध शुरू हुआ, अंधकासुर ने अपनी मायावी शक्तियों से अपने शरीर से हजारों रुधिर की बूंदें टपकाई, और हर एक बूंद से एक नया अंधकासुर उत्पन्न होने लगा। यह दृश्य देखकर देवगण और ऋषिगण भयभीत हो गए। अब भगवान गणेश ने अपनी बुद्धिमत्ता से काम लिया। उन्होंने पृथ्वी से दुर्वा घास उखाड़ी और उसका एक विशेष मंत्र से पूजन कर उसे अपने शरीर पर लगाया। दुर्वा के प्रभाव से उनका शरीर एक शीतल ऊर्जा से भर गया, और उन्होंने उसी शीतल स्पर्श से अंधकासुर की सभी उत्पत्ति को रोक दिया।
उन्होंने दुर्वा को अपने मस्तक पर धारण किया और प्रत्येक रक्तकण पर दुर्वा से स्पर्श किया, जिससे रक्त की हर बूंद निष्प्रभावी हो गई और अंधकासुर का अंत हुआ।
इस विजय के बाद, भगवान शिव ने कहा, “हे गणेश! आज से जो भी भक्त तुम्हारी पूजा में पवित्र और त्रिदला वाली दुर्वा चढ़ाएगा, उसका हर संकट शांत हो जाएगा और उसकी बुद्धि शुभ कार्यों की ओर प्रेरित होगी।” तभी से गणेश पूजन में दुर्वा का स्थान सर्वोपरि माना गया। यह शीतलता, पवित्रता, और अहंकार विनाश का प्रतीक मानी जाती है।
गणेश पुराण में लिखा श्लोक है:
दूर्वा प्रियतमं वस्तुं, गणनाथस्य पूजितम्।
यः च दूर्वां समर्पेति, सदा लाभं समश्नुते।
नारद पुराण में बताया गया है कि त्रिदला दुर्वा चढ़ाने से बुद्धि की शुद्धि होती है और वाणी में माधुर्य आता है।
दुर्वा घास केवल एक वनस्पति नहीं, अपितु दैवीय शक्ति का वाहक है। भगवान गणेश को त्रिदला या 21 दुर्वा की गांठ चढ़ाकर जो मनोकामना की जाती है, वह शीघ्र ही पूर्ण होती है। यह कथा हमें सिखाती है कि सरलता और श्रद्धा से बड़ा कोई अस्त्र नहीं, और प्रकृति की हर वस्तु में दिव्यता छिपी है।