कहानी : कल्पना से परे

लेखक: विनोद कुमार झा

किसी समय की बात है, उत्तराखंड की सुरम्य वादियों में बसा एक छोटा-सा गाँव  मलाण। हर सुबह यहां की पहाड़ियों से सूरज झांकता, बादलों की चादर उतरती और एक नई कल्पना का जन्म होता। इस गाँव में एक लड़की रहती थी  सायरा।

सायरा कोई साधारण लड़की नहीं थी। उसके भीतर कल्पनाओं की एक जादुई दुनिया पलती थी। वह जब चुपचाप झील के किनारे बैठती, तो उसके विचार किसी और ही संसार में पहुँच जाते  एक ऐसा संसार जिसे उसने देखा नहीं था, लेकिन महसूस किया था।

सायरा का जीवन बाहरी दुनिया से शांत और सरल था, लेकिन भीतर ही भीतर वह असंख्य प्रश्नों से घिरी रहती “क्या जीवन यहीं तक है?”, “क्या कुछ ऐसा भी है जो हमारी समझ से परे है?”

उसकी माँ, गौरी, अक्सर उसे टोकती “बेटी! इतनी किताबें पढ़ने से रोटी नहीं मिलती, ज़िंदगी की समझ रोटी से शुरू होती है और पेट के बाद ही कल्पना आती है।”

सायरा मुस्कुराती, “माँ, रोटी से पेट भरता है, लेकिन कल्पना से आत्मा।”

एक दिन गाँव के पोस्टमैन ने एक चिट्ठी लाकर सायरा के हाथ में दी। वह चौंकी  भेजने वाला कोई नहीं था, और चिट्ठी में सिर्फ इतना लिखा था:“अगर तुम्हें लगता है कि तुम जो सोचती हो, वह सच हो सकता है, तो तुमसे मिलने वाला हूँ  पूर्णिमा की रात, झील के पास।”

सायरा ने यह पढ़ा और भीतर कुछ काँप गया। डर, उत्सुकता और विश्वास –तीनों भावनाएँ एक साथ उभर आईं। उस रात, सायरा झील के किनारे पहुँची। पूर्णिमा की रोशनी झील पर नृत्य कर रही थी, और दूर एक छाया धीरे-धीरे नज़दीक आई।

वह एक अजनबी था  लंबा, गहरी आँखें, और मुस्कान में कोई रहस्य। “मैं नियंद्र हूँ,” उसने कहा, “और मैं उस कल्पना से आया हूँ जिसे तुम अब तक सिर्फ महसूस कर सकी हो।”

सायरा की धड़कनें थम-सी गईं। “तुम कौन हो? कोई सपना? कोई भ्रम?”

“मैं वह हूँ जो कल्पना से परे है  और अब तुम उस पार चलने को तैयार हो।”

नियंद्र ने सायरा को हाथ पकड़ने को कहा। जैसे ही उसने हाथ थामा, चारों ओर की दुनिया बदलने लगी। झील की सतह आईना बन गई, और वे दोनों उसमें उतर गए जैसे किसी दूसरी दुनिया की देहलीज़ पर।

सायरा अब एक ऐसे लोक में थी जहाँ न तो गुरुत्व था, न समय। रंग हवा में तैरते थे, ध्वनियाँ आँखों से दिखती थीं और भावनाएँ स्पर्श के रूप में महसूस होती थीं।

यह क्या है?” सायरा ने पूछा।

“कल्पनालोक,” नियंद्र ने उत्तर दिया, “यह उन विचारों से बना है जो मनुष्य सोचता है, पर कह नहीं पाता। यह एक संग्रहालय है उन अधूरे ख्वाबों का।”

सायरा मंत्रमुग्ध थी। हर विचार, जो उसने कभी सोचा था  वह दृश्य बन गया था। उसके बचपन का टेडी बियर, स्कूल की पहली कविता, पिता की गोद, अधूरी प्रेम कहानियाँ  सब कुछ।

क्या यह सब मेरा है?”

“नहीं,” नियंद्र बोला, “यह सब तुमसे जुड़ा है, लेकिन यह अब उस कल्पना का हिस्सा है जिसे तुमने छोड़ा नहीं। और अब इस लोक को तुम्हारी ज़रूरत है।”

कुछ ही समय में सायरा को पता चला कि कल्पनालोक एक स्वर्ग नहीं था। वहाँ निराशाओं के धब्बे थे  वे विचार जो डर, ईर्ष्या और हानि से जन्मे थे। इन विचारों से उत्पन्न होते थे ‘विस्मृति राक्षस’ जो यादों को चुरा लेते थे।

एक दिन सायरा ने देखा  एक बच्चा रो रहा था। उसकी आँखें खाली थीं। नियंद्र ने कहा, “उसकी सबसे प्यारी याद को विस्मृति राक्षस ले गए।”

सायरा को यह स्वीकार नहीं था। “अगर यह मेरी कल्पना है, तो मैं इसे बदल सकती हूँ।”

“पर तुम अकेली नहीं कर सकती। तुम्हें अपने भीतर उतरना होगा, अपने भय से सामना करना होगा।”

सायरा ने साहस किया। वह उस गुफा में गई जहाँ ‘प्रथम विस्मृति’ बसता था एक काला साया, जिसकी आँखों में हर किसी की टूटी उम्मीदें जलती थीं।

उसने सायरा से कहा, “तुम भी डरती हो  असफलता से, अस्वीकार से, खोने से। मुझे वह दो, और मैं सब लौटा दूँगा।”

सायरा कांप उठी। लेकिन उसने इनकार किया  “मैं डर को स्वीकार करती हूँ, पर सौदा नहीं करूंगी।”और तब विस्मृति चिल्लाया  और उसकी शक्ति क्षीण होने लगी। क्योंकि सायरा की स्वीकारोक्ति ने उसे निर्बल कर दिया।

कल्पनालोक में बदलाव होने लगा। वह अधिक स्पष्ट, अधिक सजीव हो गया। बच्चों की हँसी गूंजने लगी, अधूरी प्रेम कहानियाँ मुकम्मल होने लगीं।

सायरा अब जान चुकी थी कि कल्पना की दुनिया सिर्फ भागने की जगह नहीं, बल्कि परिवर्तन की शक्ति भी है। लेकिन नियंद्र ने कहा  “अब तुम्हें लौटना होगा। यह लोक अब तुम्हारे भीतर जीवित रहेगा, पर तुम्हारा काम बाहर है  वहाँ, जहाँ लोग अपनी कल्पनाओं को मरने देते हैं।”

सायरा लौटी  उसी झील के किनारे, पूर्णिमा की रात। उसकी माँ ने उसे देखकर कहा  “तू दो दिन से लापता थी, सायरा!” सायरा मुस्कराई। “मैं खोई नहीं थी माँ, मैं तो खुद को ढूँढ़ने गई थी।”

गाँव में अब सायरा बदल चुकी थी। उसने बच्चों के लिए एक ‘कल्पना-घर’ बनाया  जहाँ बच्चे आकर अपनी कल्पनाएँ कागज़ पर उतारते, कहानियाँ सुनते और अपने डर को शब्दों में ढालते।

लोग कहते  “यह लड़की पागल है, बच्चों को सपना दिखा रही है।”लेकिन वही बच्चे जब अपने भीतर से हिम्मत निकाल कर कुछ नया करने लगे, तब गाँव ने मान लिया “सायरा कुछ अलग है… वह हमारी कल्पना से परे है।”

सायरा ने लिखा ,“कल्पना वह बीज है जो मनुष्य के भीतर ईश्वर बोता है। वह अगर बचे, तो मनुष्य कुछ भी कर सकता है। मैं अब उस लोक में नहीं जाती, क्योंकि वह अब मेरे भीतर है।”

एक दिन नियंद्र फिर आया  एक किताब की शक्ल में। सायरा के ‘कल्पना-घर’ में एक बच्चा पढ़ रहा था  “कल्पना से परे”।

बच्चे ने पूछा ,“यह नियंद्र कौन था?”

सायरा ने उत्तर दिया  “वह हर उस व्यक्ति की आत्मा थी जिसने कभी सपने देखे, जिन्हें दुनिया ने कहा कि यह व्यर्थ है। लेकिन उन्होंने विश्वास नहीं छोड़ा।"और उस क्षण, एक नया बीज जन्म ले रहा था  एक और बच्चा, एक और कल्पना, एक और यात्रा… कल्पना से परे।


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