विनोद कुमार झा
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम । देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत।।
इस अध्याय में पराशर मुनि, सृष्टि की बुनियादी रचना के उन रहस्यों को प्रकट करते हैं जो आज भी वैज्ञानिक और आध्यात्मिक विमर्श का केन्द्र हैं।
तीन गुण सत्व, रज और तम। यही हैं सृष्टि की अदृश्य डोरियाँ, जिनसे बंधकर मनुष्य सुख-दुःख, ज्ञान-अज्ञान, भोग और मोक्ष के मार्ग पर चलता है। ये गुण न केवल पदार्थों में हैं, बल्कि हमारी सोच, कर्म, और भाग्य की दिशा भी इन्हीं से निर्धारित होती है।
कथा आरम्भ : महर्षि पराशर बोले, हे मैत्रेय! जब परम पुरुष विष्णु की इच्छा से सृष्टि का संकल्प हुआ, तब सर्वप्रथम प्रकृति की तीन शक्तियाँ प्रकट हुईं—
सत्त्व (शुद्धता और ज्ञान),रज (गतिशीलता और इच्छा)और तम (अवरोध और अज्ञान)। इन तीनों गुणों में सत्त्व गुण सबसे श्रेष्ठ है, क्योंकि वह परमात्मा की ओर ले जाता है।
रज हमें कर्म और बन्धन की ओर,और तम विकल्पों से दूर, अंधकार में ले जाता है।
तीनों गुणों की पारस्परिक गति : जब ये तीनों गुण सम अवस्था में रहते हैं, तब सृष्टि निष्क्रिय रहती है। किन्तु जब उनमें असंतुलन होता है, तब सृजन, संहार और पालन की प्रक्रिया आरम्भ होती है।
सत्त्व गुण से देवता उत्पन्न होते हैं, रज से मनुष्य और तम से राक्षस तथा असुर।
प्रकृति और पुरुष का संयोग : पराशर मुनि बताते हैं, प्रकृति में तो यह सब संभावनाएँ निहित होती हैं, परंतु जब तक पुरुष (परमात्मा) उसमें प्रवेश नहीं करता, तब तक यह निष्क्रिय रहती है। जब पुरुष प्रकृति को देखता है, तब वह चैतन्य होकर सृजन के पथ पर अग्रसर होती है। यह संयोग वैसा ही है जैसे कोई दीपक (पुरुष) हो और तेल-बाती (प्रकृति) उसके बिना जल न सके।
महत्तत्त्व की उत्पत्ति : तीनों गुणों के उद्वेग से *महत्तत्त्व* (महान तत्त्व) उत्पन्न होता है। यह ज्ञान का आदि रूप है, जिससे ब्रह्माण्ड की चेतना प्रवाहित होती है।
महत्तत्त्व से अहंकार (अहं) उत्पन्न होता है, जो स्वयं को अलग अनुभूत करता है।
अहंकार के त्रैविध्य से तीन धाराएँ जन्म लेती हैं जो इस प्रकार है :
1. सात्त्विक अहंकार से इन्द्रियाँ, मन और देवता उत्पन्न होते हैं।
2. राजसिक अहंकार से कर्मेन्द्रियाँ (कर्म करने की शक्तियाँ) और मनुष्य का संकल्प उत्पन्न होता है।
3. तामसिक अहंकार से पंचभूतों का जन्म होता है आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी।
इन्द्रियों और देवताओं की उत्पत्ति : हे मैत्रेय! सात्त्विक अहंकार से मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार की सूक्ष्म शक्तियाँ जन्म लेती हैं।
इन्हीं से दस इन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं जो इस प्रकार है :-
पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ: आँख, कान, नाक, जिह्वा, त्वचा।
पाँच कर्मेन्द्रियाँ: वाणी, हाथ, पाँव, गुदा, लिंग।
इन इन्द्रियों के अधिष्ठाता देवता भी उसी सात्त्विक अहंकार से उत्पन्न होते हैं, जैसे:- वाक की अधिष्ठात्री अग्नि, दृष्टि की अधिष्ठात्री सूर्य, श्रोत्र की अधिष्ठात्री दिशाएँ, आदि।
तत्त्वों की परस्पर रचना और संगठन : इसके पश्चात इन सभी तत्त्वों का संयोजन हुआ। भगवान विष्णु की माया और इच्छा से उन्होंने अपने-अपने स्थान ग्रहण किया और एक-दूसरे से जुड़कर विराट रूप लिया। तब ‘हिरण्यगर्भ’ प्रकट हुए वही ब्रह्मा रूप में, जिन्हें विष्णु ने सृष्टि-रचना का आदेश दिया था।
सृष्टि का आरम्भिक संगठन : अब समस्त तत्त्व एक दूसरे के सहारे कार्यशील होने लगे जैसे : जल ने पृथ्वी को धारण किया, वायु ने गति दी,अग्नि ने ऊर्जा दी, आकाश ने विस्तार दिया। तब, जीवों के विविध प्रकार, शरीर, इन्द्रियाँ और उनका भोग भी उत्पन्न हुए।
हे मैत्रेय! वह परम विष्णु ही समस्त गुणों के अधिष्ठाता हैं।यद्यपि वे तीनों गुणों से अतीत हैं, फिर भी उन्हीं की लीला से यह गुणप्रपंच चलता है। जो जीव सत्त्वगुण में स्थिर होकर अपने आत्मस्वरूप का दर्शन करता है, वही मुक्त होता है।बाकी सब जन्म-मरण की जटिल चक्रव्यूह में फँसे रहते हैं।
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽंशे तृतीयोऽध्यायः।