श्रीविष्णुपुराण : सृष्टि का आदिकालीन रहस्य

विनोद कुमार झा

नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम ।

 देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत।।

जहाँ मानव की दृष्टि नहीं जाती, वहाँ से ब्रह्मा की दृष्टि शुरू होती है। जहाँ तर्क रुक जाते हैं, वहाँ पुराणों की गाथाएँ आरम्भ होती हैं।

सृष्टि के आरम्भ में क्या था?

क्या केवल शून्य था या कोई अनन्त चेतना?

इस अध्याय में पराशर मुनि, मैत्रेय ऋषि को बताते हैं उस काल की कथा, जब समय स्वयं मौन था, और विराट विष्णु की नाभि से एक दिव्य कमल खिला था।

कथा आरम्भ : महर्षि पराशर बोले :हे मैत्रेय! सृष्टि के पूर्व कुछ भी दृश्यमान नहीं था। न दिन था, न रात्रि; न आकाश, न पृथ्वी। सब ओर केवल अन्धकार था गहन, मौन और अव्यक्त।

यह सम्पूर्ण जगत उस समय अव्यक्त प्रकृति में लीन था। कोई नाम, रूप, गति, धर्म या कर्म नहीं था। सिर्फ वह था—अनन्त, अद्वितीय, परमात्मा, श्रीविष्णु।

वह भगवान विष्णु ही सम्पूर्ण कारणों के कारण, आदि-अवस्था में अव्यक्त रूप से स्थित थे। उनकी ही इच्छा से सृष्टि की लीला आरम्भ होती है।

महाशून्य में ब्रह्मा का प्राकट्य : जब समय की रेखा पर पहला कंपन हुआ, तब भगवान विष्णु की नाभि से एक दिव्य कमल प्रकट हुआ। उस कमल के भीतर उत्पन्न हुए स्वयं ब्रह्मा सृष्टि के रचयिता। किन्तु उत्पन्न होते ही ब्रह्मा ने चारों ओर दृष्टि दौड़ाई। चारों ओर केवल जल ही जल दिखाई देता था। कोई आधार, कोई दिशा, कोई स्वर नहीं था।

वह घबराए। "मैं कौन हूँ? किसने मुझे उत्पन्न किया? यह विश्व कैसा है?" वे उस कमलनाल के मूल की खोज में नीचे गए, नीचे और नीचे… लेकिन उन्हें आदि नहीं मिला। अन्ततः उन्होंने आँखें मूँद लीं और तपस्या में लीन हो गए। सहस्त्र वर्षों तक वे ध्यानमग्न रहे।

भगवान विष्णु का दर्शन और आदेश : तब प्रभु श्रीविष्णु प्रकट हुए—सुदर्शन चक्र, गदा, शंख और पद्म धारण किए, तेजस्वी, सौम्य और करुणामय।

उन्होंने ब्रह्मा से कहा,“हे ब्रह्मन्! मैं ही सम्पूर्ण सृष्टि का कारण और आधार हूँ। यह कमल जिससे तुम उत्पन्न हुए हो, वह मेरी नाभि से निकला है। अब तुम्हारा कार्य है इस सृष्टि की रचना करना। मेरी शक्ति से तुम्हें यह सामर्थ्य प्राप्त होगी। ज्ञान तुम्हारे भीतर प्रकट होगा।” ब्रह्मा ने करबद्ध होकर प्रणाम किया और प्रभु की आज्ञा का पालन करने को तत्पर हो गए।

तीन गुणों की उत्पत्ति और महत्तत्त्व : महर्षि पराशर आगे कहते हैं‌- हे मैत्रेय! उस समय सत्व, रज और तम ये तीन गुण प्रकट हुए। इनसे महत्तत्त्व, फिर अहंकार और पंचभूतों का प्रादुर्भाव हुआ।

आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी ये पाँच महाभूत ब्रह्मा के सृजन की नींव बने। साथ ही, इनसे मन, बुद्धि और इन्द्रियाँ भी उत्पन्न हुईं। प्रकृति और पुरुष के संयोग से यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड धीरे-धीरे आकार लेने लगा।

आत्मा का स्वरूप और विष्णु की व्यापकता : हे मैत्रेय! यह जान लो कि ये सब गुण, तत्त्व, रूप और कार्य—सब कुछ विष्णु से ही उत्पन्न होते हैं और अन्ततः उन्हीं में विलीन हो जाते हैं।

वह परमात्मा साकार भी हैं और निराकार भी। वे अविनाशी हैं, परन्तु अपनी माया से समय, सृष्टि और काल की लीला रचते हैं।

यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड उनकी लीला है। जैसे आकाश में बादल आते और चले जाते हैं, वैसे ही युग-कल्प प्रकट और लीन होते रहते हैं। जब ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना का कार्य आरम्भ किया, तब विष्णु उनके अंतःकरण में विराजमान हो गए। हर एक सृजन में, हर एक गति में, हर एक स्पंदन में वही विष्णु प्रवाहित हैं।

हे मैत्रेय! यही वह सच्चा ज्ञान है जो आत्मा को जन्म और मृत्यु के भय से मुक्त करता है।

इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽंशे द्वितीयोऽध्यायः।




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