कहानी : अपनों की बेरूखी

लेखक : विनोद कुमार झा

ठंडी हवाओं से काँपती हुई रात थी। शहर के कोने पर बनी एक छोटी-सी झुग्गी में वृद्धा रुक्मिणी चुपचाप आँचल में अपनी सिकुड़ी हुई हथेली छुपाए बैठी थी। उसकी आँखें दरवाज़े की ओर टिकी थीं  जैसे कोई आने वाला हो। लेकिन वो जानती थी कि कोई नहीं आएगा। बरसों से ऐसा ही हो रहा था, फिर भी उम्मीद की लौ बुझी नहीं थी।

रुक्मिणी कभी इस शहर की हवेली में रहती थी। पति शंभुनाथ शहर के सम्मानित अध्यापक थे, और उनका एक ही सपना था  बेटा सुदीप बड़ा होकर अफसर बने। सुदीप ने भी पिता की उम्मीदों पर खरा उतरते हुए आईएएस की परीक्षा पास की और दिल्ली में पोस्टिंग पा ली। विवाह के बाद उसने माँ-बाप से दूरी बनानी शुरू कर दी। शुरू में तो यह सब नई ज़िंदगी का हिस्सा लगा, लेकिन फिर धीरे-धीरे सुदीप के फोन आने बंद हो गए, चिट्ठियाँ आना बंद हो गईं, और अंत में उसने माता-पिता को "पुरानी ज़िंदगी" का हिस्सा मान लिया।

शंभुनाथ बाबू की पेंशन से ही रुक्मिणी के घर का खर्च चलता था। जब तक वे जीवित रहे, किसी को ज़रूरत नहीं पड़ी कि उनकी देखभाल करे। लेकिन उनके निधन के बाद रुक्मिणी अकेली पड़ गई। उसने कई बार सुदीप को पत्र लिखे  "बेटा, बहुत दिन हो गए तुझे देखे, अब तेरे बिना मन नहीं लगता…" लेकिन कोई उत्तर नहीं आया।

एक दिन रुक्मिणी ने निर्णय लिया  वह बेटे के पास जाएगी।दिल्ली पहुँचकर रुक्मिणी सुदीप के सरकारी क्वार्टर तक गई। दरवाज़ा बहू ने खोला, जो रुक्मिणी को देखकर चौंक गई। "अम्मा? आप यहां कैसे?" उसने रूखे स्वर में पूछा।

सुदीप बाहर मीटिंग में था। बहू ने रुक्मिणी को अंदर तो आने दिया, लेकिन उसका व्यवहार ऐसा था जैसे कोई बोझ आ गया हो। चाय तक नहीं पूछी गई।

शाम को जब सुदीप लौटा, उसने माँ को देखकर औपचारिक सा व्यवहार किया "अरे माँ, आपने तो अचानक ही आकर चौंका दिया…"

रात के खाने के बाद, बहू ने पति से कहा, "देखो, मैं तुम्हारी माँ की सेवा कर सकती हूँ, लेकिन मेरा भी करियर है। और छोटे बच्चे के साथ बहुत मुश्किल होता है।"

अगले ही दिन सुदीप ने माँ के लिए वृद्धाश्रम का इंतज़ाम कर दिया। रुक्मिणी वृद्धाश्रम में पहुँच गई। वहाँ कई और वृद्ध थे  किसी को बेटा छोड़ गया था, किसी को बहू ने निकाल दिया, किसी के बच्चे विदेश में थे। सबके चेहरे पर एक ही दर्द था  "अपनों की बेरूखी।"

रुक्मिणी को वहाँ एक सहेली मिली — सावित्री। उसने बताया कि वो भी एक समय डॉक्टर थी, लेकिन बेटे के विदेश जाते ही घर से निकाल दी गई। इन दोनों ने एक-दूसरे की तकलीफों को सुनते-सुनाते जीवन के कटु यथार्थ को स्वीकारना सीख लिया।

एक दिन वृद्धाश्रम में एक बच्चा खेलने आया  आश्रम के पास की कॉलोनी का एक बच्चा, जिसका नाम आकाश था। आकाश अक्सर रुक्मिणी के पास बैठ जाता, और कहानियाँ सुनता। वह रुक्मिणी को ‘नानी’ कहने लगा। धीरे-धीरे रुक्मिणी की ज़िंदगी में फिर से उजाला आने लगा।

आकाश की माँ मीरा, एक अकेली माता थी, जिसने अपने पति को एक सड़क दुर्घटना में खो दिया था। जब उसने देखा कि उसका बेटा एक वृद्धा से इतना जुड़ गया है, तो वह खुद भी रुक्मिणी के करीब आ गई। मीरा ने रुक्मिणी से कहा, "अम्मा, आपके बिना मेरा बेटा अधूरा हो जाता है। क्या आप हमारे साथ चलेंगी?"

रुक्मिणी की आँखों में आँसू आ गए। जिन अपने कहे जाने वालों ने घर से निकाल दिया, अब वो गैर कहे जाने वाले लोग उसे अपनाने को तैयार थे।

कई सालों बाद जब सुदीप की बहू विदेश चली गई और बेटे ने भी उसे "बोझ" मान लिया, तब उसे अपनी माँ की स्थिति समझ आई। उसने माँ को खोजने की बहुत कोशिश की, और आखिरकार एक दिन वृद्धाश्रम पहुँचा।

वहाँ उसे बताया गया कि रुक्मिणी अब यहाँ नहीं रहती। वह पास की कॉलोनी में एक विधवा और उसके बेटे के साथ रहती है  और बहुत खुश है।

सुदीप उस घर पहुँचा। दरवाज़ा खुला  सामने रुक्मिणी खड़ी थी।

माँ-बेटे की आँखें मिलीं। सुदीप झुककर माँ के पैर छूने लगा, लेकिन रुक्मिणी ने पैर खींच लिए।

"अब ये दिखावे क्यों?" रुक्मिणी की आँखों में ठंडी ज्वाला थी। "जब ज़रूरत थी, तब नहीं आए। अब जब तुम्हें खुद अकेलापन महसूस हो रहा है, तब माँ याद आ रही है?"

सुदीप रोने लगा। "माँ, एक मौका दे दो।"

रुक्मिणी ने कहा, "मैंने तुझे माफ़ किया है बेटा… लेकिन जो टूटता है, वह जुड़ तो जाता है, पर दरारें नहीं मिटतीं।"

रुक्मिणी ने मीरा और आकाश को ही अपना परिवार मान लिया। वही उसकी सुबह थे, वही उसकी शाम। जिनसे खून का रिश्ता था, उन्होंने बेरूखी दिखाई लेकिन जिनसे आत्मा का रिश्ता बना, उन्होंने अपनापन दिखाया।

"अपनों की बेरूखी" सिर्फ एक वृद्धा की कहानी नहीं है। यह उन लाखों माँ-बाप की कहानी है, जो अपने बच्चों की खुशियों के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देते हैं  लेकिन अंत में जब उन्हें सहारे की जरूरत होती है, तो वही अपने मुंह मोड़ लेते हैं।

माँ-बाप की सेवा कोई बोझ नहीं, बल्कि सौभाग्य है। जो इसे समझते हैं, वही सच्चे इंसान होते हैं।


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