नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम ।
देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत।।
विष्णु पुराण के अनुसार यह कथा एक ऐसे महर्षि की है, जिन्होंने जीवन के चारों आश्रमों ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास का गहन रूप से अनुशीलन किया और अपने अनुभवों को एक राजा को सुनाते हुए मानवीय जीवन की महान संहिता का वर्णन किया।
राजा और ऋषि की भेंट
प्राचीनकाल की बात है। एक परम धर्मात्मा और सत्यनिष्ठ राजा, जो अपनी प्रजा को पुत्रवत स्नेह करता था, अपने जीवन में एक ऐसी स्थिरता और संतुलन की खोज में था जिससे वह संसार की सभी बाधाओं को पार कर सके। वह स्वयं में आत्मज्ञान चाहता था। तभी उसने सुना कि एक महर्षि, जिनका नाम और्व था, तपस्या करके उस वन में वास कर रहे हैं। राजा ने उनका दर्शन करने का निश्चय किया।
वन के भीतर जब वह पहुँचा, तो उसने देखा एक तेजस्वी मुनि ध्यानस्थ बैठे हैं। उनके चारों ओर प्रकृति मौन थी, लेकिन वह मौन जैसे परम सत्य की भाषा बोल रहा हो। राजा ने श्रद्धा से उनके चरण स्पर्श किए और प्रार्थना की, “हे भगवन्! मुझे बताइए, मनुष्य को जीवन में किस मार्ग पर चलना चाहिए? आश्रमों की व्याख्या करके मुझे उपकृत करें।”
मुनि ने आँखें खोलीं और मुस्कराकर बोले “हे नृपश्रेष्ठ! सुनो, मैं तुम्हें मानव जीवन के चार आश्रमों की दिव्य कथा सुनाता हूँ। इसे केवल सुनना नहीं, आत्मसात करना।”
प्रथम आश्रम ब्रह्मचर्य : जीवन की जड़ों की स्थापना
“हे राजन!” मुनि ने कहा, “जीवन का आरंभ ब्रह्मचर्य से होता है। जब बालक उपनयन संस्कार के पश्चात गुरु के आश्रम में प्रवेश करता है, तभी उसके चरित्र और जीवन की नींव रखी जाती है। वहाँ उसे चाहिए कि वह वेदाध्ययन में तल्लीन हो, गुरु की सेवा करे, स्वच्छता, संयम और आचार का पालन करे।
गुरु जब खड़े हों तो वह भी खड़ा हो जाए, जब गुरु चले तो उनके पीछे चले और जब गुरु बैठें तो स्वयं उनके नीचे बैठे। वह गुरु के आज्ञानुसार ही भोजन करे, स्नान करे और बोल भी तभी जब गुरु अनुमति दें।
हर दिन सूर्योदय और सूर्यास्त के समय एकाग्रचित्त होकर सूर्य और अग्नि की उपासना करे। समिधा, जल, पुष्प आदि लेकर गुरु को समर्पित करे। यही है ब्रह्मचर्य संयम, सेवा और अध्ययन का जीवन।”
द्वितीय आश्रम गृहस्थ : कर्तव्यों की पवित्र साधना
“जब शिष्य वेदाध्ययन पूर्ण कर ले और गुरु की आज्ञा लेकर उन्हें गुरुदक्षिणा दे, तब वह गृहस्थाश्रम में प्रवेश करता है। विवाह करके अपने धर्म के अनुसार जीविकोपार्जन करे। पितरों को पिण्डदान दे, देवताओं को यज्ञ से संतुष्ट करे, अतिथियों का अन्न से सत्कार करे, ऋषियों को स्वाध्याय से पूजित करे, प्रजापति को संतानोत्पत्ति से, भूतगण को बली से और संपूर्ण जगत को प्रेम से पूजे।
हे राजन! गृहस्थाश्रम ही वह मूल है, जहाँ से ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ और संन्यासी सभी का निर्वाह होता है। अतिथि यदि निराश लौटे, तो वह गृहस्थ के पुण्य ले जाता है और अपने पाप उसे दे देता है। इसलिए गृहस्थ को कभी अभिमान, क्रोध या कटुभाषण का व्यवहार अतिथि के साथ नहीं करना चाहिए।”
तृतीय आश्रम वानप्रस्थ : संसार से क्रमिक निर्लेपता
“हे नृप! जब गृहस्थ अपने दायित्व पूर्ण कर ले, जब आयु ढलने लगे, तो उसे चाहिए कि अपनी धर्मपत्नी को पुत्रों के संरक्षण में सौंपकर अथवा साथ लेकर वन में प्रवास करे। वहाँ फल, मूल, पत्र खाकर, भूमि पर शयन कर, जटा और दाढ़ी बढ़ाकर तपस्या में लीन हो जाए।
उसे चाहिए कि वह त्रिकाल स्नान करे, देवताओं का पूजन, यज्ञ, अतिथियों की सेवा और बलिवैश्वदेव का पालन करे। शरीर में वन्य तैल लगाकर, शीत और उष्णता को सहकर तप में स्थिर रहे। ऐसा मुनि अपने तप से समस्त दोषों को अग्नि की तरह भस्म कर देता है और उत्तम लोकों को प्राप्त करता है।”
चतुर्थ आश्रम संन्यास : आत्मा की पूर्ण स्वतंत्रता
“हे राजेन्द्र! अब सुनो अंतिम और सर्वोच्च आश्रम भिक्षु या संन्यास आश्रम। वानप्रस्थ के बाद जब मनुष्य पुत्र, स्त्री और धन के मोह से मुक्त हो जाए, तब उसे यह आश्रम ग्रहण करना चाहिए।
संन्यासी को चाहिए कि वह अर्थ, धर्म, काम तीनों का त्याग कर दे, सभी प्राणियों में समभाव रखे, शत्रु-मित्र, लाभ-हानि में भेद न करे। वह ग्राम में एक रात्रि और नगर में पाँच रात्रियों तक ही रहे वह भी इतना कि किसी से स्नेह या द्वेष न हो।
भिक्षा के लिए वह दिन में केवल उस समय निकले जब सब भोजन कर चुके हों और अग्नि शांत हो चुकी हो। भिक्षा भी वही है जो उसे केवल शरीरधारण के लिए आवश्यक हो। वह उसे हवन माने जठराग्नि के लिए मुख में डाली गई आहुति। ऐसा ब्राह्मण, जो इस अग्निहोत्र रूपी संन्यास को पूर्ण करता है, वह अग्निहोत्रियों के लोक को प्राप्त करता है।”
ब्रह्म की ओर अंतिम यात्रा
“हे राजन!” मुनि ने कहा, “जो संन्यासी यह जान ले कि ब्रह्म से भिन्न सभी वस्तुएँ मिथ्या हैं, और संपूर्ण सृष्टि केवल ईश्वर की संकल्प-छाया है, वह संन्यास का परम फल पाता है। ऐसा योगी जीवन के सारे बंधनों से मुक्त होकर, अग्नि की निःशेष शांति में विलीन हो जाता है। वह ब्रह्मलोक को प्राप्त करता है जहाँ न मृत्यु है, न जन्म केवल निर्वाण है, अमरत्व है।”
राजा का अंतर्मन
राजा मौन था। उसकी आँखों से अश्रु बह रहे थे। अब वह समझ गया था कि जीवन केवल सत्ता और सुख के लिए नहीं है वह एक यात्रा है आत्मा की, बाल्यकाल से ब्रह्मत्व तक।
राजा ने प्रण किया कि वह पहले अपनी प्रजा के लिए एक आदर्श गृहस्थ बनेगा, फिर एक तपस्वी वानप्रस्थ और अंत में एक निर्विकार संन्यासी।
और मुनि और्व के आश्रम से लौटते समय, वन की पगडंडी पर चल रहा वह राजा अब केवल एक शासक नहीं, एक साधक बन चुका था जीवन के चारों आश्रमों का साक्षात स्वरूप।