श्री विष्णुपुराण : जीवन की आरंभिक विधियाँ”

''नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम ।

देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत"।।

सगर की जिज्ञासा , जीवन के संस्कारों का रहस्य

प्राचीन समय की बात है। धर्म, नीति और कर्म में निपुण महाराज सगर ने यज्ञोपवित धारण किए मुनि और्य से एक अत्यंत सूक्ष्म और गूढ़ विषय पर प्रश्न किया। उनके मन में जीवन की कर्मपद्धति, विशेषतः मनुष्यों के संस्कारों के विषय में गहन जिज्ञासा जागी थी।

“हे द्विजश्रेष्ठ!” सगर ने विनयपूर्वक कहा, “आपने मुझे वर्ण और आश्रमों के कर्तव्यों का विस्तार से उपदेश दिया है। अब मैं आपसे मानव जीवन के प्रारंभ से लेकर विवाह तक की वह प्रणाली सुनना चाहता हूँ, जिसे शास्त्रों ने संस्कार कहा है। मनुष्य किन नित्य, नैमित्तिक और काम्य कर्मों को करे, यह मुझसे कहिए, क्योंकि आप सर्वज्ञ हैं।”

ऋषि और्य मंद-मंद मुस्काए, और उन्होंने कहा, “हे राजन! तुम्हारी जिज्ञासा धर्मयुक्त है। अब मैं तुम्हें जन्म से लेकर विवाह तक के समस्त विधानों का वर्णन करूंगा। तुम एकाग्र होकर सुनो।”

पुत्र का जन्म शुभारंभ की विधियाँ

जब किसी घर में पुत्र का जन्म होता है, तो पिता को चाहिए कि वह प्रसन्नचित्त होकर जातकर्म-संस्कार संपन्न करे। उस समय आभ्युदयिक श्राद्ध का आयोजन भी आवश्यक होता है, जिससे देवता और पितृगण संतुष्ट हों।

ऋषि ने विस्तार से बताया “पूर्वाभिमुख होकर द्विजों को युग्म में भोजन कराना चाहिए, और तत्पश्चात देवों और पितरों के निमित्त पिण्डदान किया जाए। यह पिण्ड दही, जौ और बदरीफल को मिलाकर बनाया जाए और देवतीर्थ अर्थात अँगुलियों के अग्रभाग से अर्पित हो। इस विधि से नांदीमुख पितरों की तृप्ति होती है। यदि अन्य विधियों से दान देना हो, तो कनिष्ठिका के मूल में स्थित प्राजापत्य तीर्थ द्वारा सम्पूर्ण उपचारों का समर्पण किया जाए।”

ऋषि ने विशेष रूप से कहा “यह विधान न केवल पुत्र जन्म के समय, बल्कि कन्या के जन्म, विवाह, और अन्य वृद्धिकालों में भी समान रूप से लागू होता है।”

नामकरण संस्कार – शब्दों में आत्मा की पहचान

“हे नरेश्वर!”  ऋषि बोले  “पुत्र जन्म के दसवें दिन नामकरण संस्कार करना चाहिए। नाम केवल पहचान नहीं, जीवन की दिशा का प्रतीक होता है।”

ब्राह्मणों के नाम के अंत में 'शर्मा', क्षत्रियों में 'वर्मा', वैश्यों के लिए 'गुप्त', और शूद्रों के लिए 'दास' उपसर्ग होना चाहिए। नाम न अपशब्द हो, न अर्थहीन। न वह बहुत लम्बा हो, न अत्यधिक छोटा। ऐसा नाम हो जो मधुर हो, सुबोध हो, और उच्चारण में सरल हो।

गुरुगृह और विवाह की ओर – जीवन की प्रवृत्तियाँ

उपनयन-संस्कार के पश्चात बालक को गुरु के आश्रम में भेजा जाए, जहाँ वह वेद, शास्त्र और आचरण की शिक्षा ग्रहण करे। जब अध्ययन पूर्ण हो जाए, तो वह गुरु को दक्षिणा देकर गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर सकता है, या नैष्ठिक ब्रह्मचारी बनकर जीवनपर्यंत गुरुसेवा में लगा रह सकता है।

ऋषि ने विकल्प भी बताया  “यदि इच्छा हो, तो वह वानप्रस्थ या संन्यास आश्रम में भी जा सकता है। परंतु जो संकल्प पहले किया हो, उसी के अनुसार जीवन को आगे बढ़ाना चाहिए।”

विवाह – जीवन का मिलन पर्व

“हे राजन!”  और्य बोले “यदि वह गृहस्थाश्रम अपनाना चाहे, तो कन्या का वरण करते समय सावधानी रखे। उससे तृतीयांश अवस्था की कन्या से विवाह करे अर्थात जो आयु में उससे एक तिहाई कम हो।”

फिर ऋषि ने उन कन्याओं के गुण-दोषों का वर्णन किया, जिनसे विवाह नहीं करना चाहिए – अति साँवली, पांडु वर्ण की, रोगिणी, अपवित्र या अकुलीना कन्या वर्जित हो।

जिसके शरीर में जन्मजात दोष हो, जो दुष्ट स्वभाव की हो, कटु भाषा बोलती हो, या पुरुष जैसे लक्षण हों  उससे विवाह न करें।

जिसके कपोल हँसी में गड्ढेदार हों, नाखून फीके रंग के हों, या शरीर में बाल असमर्थित रूप से हों वह कन्या योग्य नहीं।

ब्राह्मणों के लिए विवाह का आदर्श यह भी था कि मातृपक्ष से पाँचवी पीढ़ी और पितृपक्ष से सातवीं पीढ़ी में कोई रक्त-संबंध न हो।

विवाह के आठ प्रकार – धर्म, प्रेम और अधर्म की रेखाएँ

फिर ऋषि और्य ने विवाह के आठ प्रकारों की गाथा सुनाई:

1. ब्राह्म विवाह – जब कन्या को वर के विद्वत्ता और धर्म के कारण पिता स्वयं दान करता है।

2. दैव विवाह – जब कन्या को यज्ञ में पुरोहित को दान दिया जाता है।

3. आर्ष विवाह – जब वर कुछ गौ या अन्य द्रव्य देकर कन्या प्राप्त करता है।

4. प्राजापत्य विवाह – जब कन्या को यह कहकर दिया जाता है कि वह धर्मपूर्वक संग रहे।

5. गांधर्व विवाह – प्रेम और सहमति पर आधारित विवाह।

6. राक्षस विवाह – जब कन्या का बलात हरण किया जाए।

7. आसुर विवाह – जब कन्या को धन देकर खरीदा जाए।

8. पैशाच विवाह – जब कन्या को मद, निद्रा या भय की स्थिति में भोगा जाए।

ऋषि ने स्पष्ट किया ,“इनमें से जिन विधियों को महर्षियों ने वर्णानुसार धर्मसम्मत बताया है, उसी विधि से विवाह करना चाहिए। अन्य विधियाँ त्याज्य हैं।”

सहधर्मिणी के साथ जीवन – धर्म का गहनतम स्वरूप

अंत में और्य मुनि बोले , “जो सहधर्मिणी को विधिपूर्वक प्राप्त कर गृहस्थाश्रम के नियमों का पालन करता है, वह इस लोक और परलोक दोनों में फल प्राप्त करता है। यह आश्रम न केवल आनंददायक है, अपितु तपस्वियों के लिए भी उत्तम साधन है।”

 धर्म और जीवन का मिलन

महाराज सगर ने कृतज्ञता से मुनि की वाणी को सुना। उस दिव्य संवाद में जीवन की संपूर्ण रचना – जन्म, शिक्षा, नाम, विवाह – एक सुंदर क्रम में प्रकट हुई। संस्कारों की यह यात्रा केवल रीति नहीं थी, बल्कि वह मानव को ईश्वरत्व की ओर ले जाने वाली ज्ञानगंगा थी।

और यहीं पर यह अध्याय समाप्त होता है  एक जीवन की शुरुआत से धर्म के आलोक तक पहुँचने का दिव्य प्रवाह।

(श्री विष्णुपुराण की पवित्र गाथा से संकलित)



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