विनोद कुमार झा
- एक आध्यात्मिक कथा जो सृष्टि के रहस्य को उजागर करती है आइए जानते हैं विस्तार से :बहुत समय पहले, जब न समय था, न दिशा, न ध्वनि, न प्रकाश। वहाँ केवल एक था जो अज्ञेय था, अकथनीय था, अव्यक्त और अनंत था। वह न पुरुष था, न स्त्री, न कोई स्वरूप, न आकार। वह परम तत्व था ब्रह्म , जो न उत्पन्न होता है, न समाप्त होता है, केवल स्वयं में स्थित रहता है। यह वही रहस्य है जिससे यह संसार उत्पन्न हुआ, जिसमें यह स्थित है और जिसमें अंततः सब कुछ विलीन हो जाएगा।
बहुत-बहुत प्राचीन काल की बात है। एक युवक था रैवत। वह जिज्ञासु था, शांत स्वभाव का, और तपस्वियों की संगति में पला-बढ़ा था। लेकिन उसके मन में एक प्रश्न वर्षों से गूंजता रहता था "यह संसार किससे उत्पन्न हुआ? यह किसमें स्थित है? और अंततः यह किसमें समा जाएगा?"
उसे उत्तर चाहिए था, लेकिन कोई मुनि, कोई विद्वान, कोई ग्रंथ उसे पूर्ण संतोष नहीं दे सके। एक दिन वह हिमालय की एक गूढ़ गुफा में गया, जहाँ एक प्राचीन ऋषि महायोगी अचलनंद समाधिस्थ अवस्था में थे। उनके मुख पर शांति थी, उनकी श्वासें ब्रह्म की धड़कनों से एक हो चुकी थीं।
रैवत ने तीन दिन और तीन रातें मौन में तप किया, और चौथे दिन, जब योगी ने नेत्र खोले, तो उसने प्रणाम कर कहा, “गुरुदेव, कृपा कर बताइये – यह सारा संसार किससे उत्पन्न हुआ है, किसमें स्थित है और किसमें समा जाता है?”
योगी मुस्कराए, और बोले,“वत्स, उत्तर शब्दों से नहीं मिलेगा। इसे अनुभव से जानना होगा। मैं तुझे एक कथा सुनाता हूँ – एक ऐसी कथा जो ब्रह्म से आरंभ होती है और ब्रह्म में ही समाप्त होती है। सुन…”
जब कुछ भी नहीं था न धरती, न आकाश, न जल, न अग्नि तब केवल ब्रह्म था। वह था, फिर भी नहीं था। न इच्छाएं थीं, न भेद, न गति। वह परिपूर्ण था। किन्तु एक क्षण आया जिसे हम महाकल्प का प्रथम संकल्प कहते हैं। ब्रह्म में एक लीला-संवेदना जागृत हुई “मैं एक से अनेक हो जाऊं।” उसके इस संकल्प से कंपन उठा, और उसी से जन्मा नाद ओम्।
“ओम्” यह ध्वनि ही प्रथम सृष्टि थी। इस ओम् की कंपन से पाँच तत्त्व प्रकट हुए आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी। हर तत्त्व में ब्रह्म की एक झलक थी।
आकाश में उसकी व्याप्ति थी, वायु में उसकी गति, अग्नि में उसका तेज, जल में उसकी शीतलता, पृथ्वी में उसकी स्थिरता।इन तत्त्वों से बना कला का मंच , जिस पर ब्रह्म ने रचाई सृष्टि की लीला। ब्रह्म ने स्वयं को दो रूपों में विभक्त किया पुरुष और प्रकृति।
पुरुष – चेतना का बीज।
प्रकृति – सृजन की भूमि।
इन दोनों के संयोग से हिरण्यगर्भ की उत्पत्ति हुई वह ब्रह्माण्ड का अंडा, जिसमें सम्पूर्ण संसार छिपा था। उस अंडे से जन्में ब्रह्मा – सृष्टिकर्ता, जिनके विचारों से ऋचाएँ बनीं, जिनके स्वप्न से लोक बने।
सृष्टि आगे बढ़ी। जीव उत्पन्न हुए। हर जीव में ब्रह्म का अंश था जीवात्मा। ये आत्माएँ, अपने कर्मों के अनुसार जन्म लेती रहीं, मृत्यु को पाती रहीं, पुनर्जन्म में लौटती रहीं। संसार बन गया एक रंगमंच, और आत्माएँ बन गईं अभिनेत्री।
माया , ब्रह्म की छाया , हर आत्मा को भ्रमित करती रही कि वह पृथक है, अकेली है। लेकिन गहरे भीतर, हर जीव जानता था – वह उसी ब्रह्म से उत्पन्न है।
हर सृजन का एक अंत होता है। जब समय की लहरें थक जाती हैं, और ब्रह्मांड की धड़कन मद्धम हो जाती है, तब आता है प्रलय।
तब पाँचों तत्त्व ब्रह्म में लौटते हैं।
रूप रहित में सब रूप समा जाते हैं।
ध्वनि फिर मौन हो जाती है।
वह सब जो “था” फिर से “नहीं” हो जाता है। लेकिन ब्रह्म वह तो न कभी उत्पन्न हुआ, न मिटा।
योगी मौन हो गए। रैवत की आँखें नम थीं। वह कुछ कह नहीं पाया।
योगी बोले: “वत्स, तूने अब जान लिया यह संसार ब्रह्म से उत्पन्न होता है, ब्रह्म में ही स्थित है, और अंततः ब्रह्म में ही विलीन हो जाता है। जैसे तरंगें समुद्र से उठती हैं और उसी में लीन हो जाती हैं।” “तू भी वही है ब्रह्म का अंश। जान ले अपनी वास्तविकता को, और मुक्त हो जा।”
रैवत ने वही गुफा अपना निवास बना लिया। वह अब मौन में ब्रह्म से एकत्व का अभ्यास करता है। उसकी आँखों में अब संसार नहीं, केवल एक सत्य दिखाई देता है।
“ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या।”
“मैं वही हूँ सच्चिदानन्द ब्रह्म।”