##दस दैवीय कर्तव्य क्या है?

 विनोद कुमार झा

(संध्यावंदन, व्रत, तीर्थ, उत्सव, दान, सेवा, संस्कार, यज्ञ, वेदपाठ एवं धर्म प्रचार)

मानव जीवन केवल भौतिक सुखों की प्राप्ति का माध्यम नहीं, अपितु आत्मोन्नति, लोकमंगल और दिव्यता की दिशा में अग्रसर होने का साधन है। सनातन धर्म में जीवन को चार पुरुषार्थों धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में विभक्त किया गया है, जिनमें धर्म प्रमुख है। इसी धर्म की सार्थकता को स्थापित करने के लिए मनुष्य के लिए कुछ दैवीय कर्तव्यों का पालन अनिवार्य बताया गया है। ये कर्तव्य आत्मा को शुद्ध करते हैं, समाज को सभ्य बनाते हैं और सृष्टि को संतुलित रखने में योगदान देते हैं।

आइए इन दस दैवीय कर्तव्यों का संक्षिप्त परिचय प्राप्त करें:-

1. संध्यावंदन : प्रातः, मध्यान्ह और सायंकाल तीनों संधियों में ईश्वर का ध्यान, गायत्री मंत्र का जाप और आत्मनिरीक्षण ही संध्यावंदन का स्वरूप है। यह मन, वाणी और कर्म की शुद्धि का आधार है।

2. व्रत : इच्छाओं पर संयम रखते हुए उपवास या नियमपूर्वक आचरण करना व्रत कहलाता है। व्रत आत्मनियंत्रण, साधना और आस्था का प्रतीक है।

3. तीर्थ : पवित्र स्थलों की यात्रा केवल शरीर की नहीं, आत्मा की भी होती है। तीर्थ-यात्रा से मनुष्य पवित्रता, विनम्रता और सेवा का भाव सीखता है।

4. उत्सव : धार्मिक उत्सवों के माध्यम से परंपरा, संस्कृति और सामूहिक आनंद का संचार होता है। ये उत्सव जीवन में सकारात्मक ऊर्जा भरते हैं।

5. दान : स्वार्थ त्यागकर आवश्यकता अनुसार अन्न, वस्त्र, धन या ज्ञान का दान करना पुण्य का कार्य है। दान से दूसरों का जीवन सुधरता है और अपना हृदय निर्मल होता है।

6. सेवा: बिना किसी प्रतिफल की कामना से किया गया परोपकार ही सच्ची सेवा है। यह कर्म मनुष्य को ईश्वर के समीप ले जाता है।

7. संस्कार : जन्म से मृत्यु तक के विभिन्न *संस्कार* जीवन को मर्यादित, सात्विक और अनुशासित बनाते हैं। ये नैतिकता और धर्म की नींव हैं।

8. यज्ञ: संसार को समर्पित कर्म, अग्निहोत्र, हवन और आहुति ही यज्ञ है। यह पर्यावरण, ऊर्जा और सामूहिक चेतना की शुद्धि का प्रतीक है।

9. वेदपाठ : वेदों का अध्ययन, श्रवण और प्रचार व्यक्ति को सत्य, धर्म और ज्ञान के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है। यह सनातन परंपरा की आत्मा है।

10. धर्म प्रचार: धर्म का प्रचार केवल शब्दों से नहीं, अपने आचरण से भी होता है। सत्कर्म और सदाचार के माध्यम से धर्म का विस्तार ही इसका मूल उद्देश्य है।

इन दस दैवीय कर्तव्यों का पालन केवल आध्यात्मिक उन्नति के लिए नहीं, बल्कि सामाजिक समरसता और जीवन की पूर्णता के लिए भी आवश्यक है। यदि हर मनुष्य इन्हें अपने जीवन में उतारे, तो धरती स्वर्ग बन सकती है और मानव स्वयं में दिव्य बन सकता है।


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