श्रीविष्णुपुराण : उत्पत्ति का रहस्य और शांति की ओर पहला कदम

विनोद कुमार झा

नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम । 

देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत"।।

जब संसार की हलचलों से विमुख होकर आत्मा अपने मूल की खोज में निकलती है, तब उसे मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है ऐसे गुरु की आवश्यकता होती है, जो केवल शास्त्रों के ज्ञाता ही नहीं, जीवन की पीड़ा और शांति दोनों को अपने भीतर जी चुके हों।

ऐसी ही एक आध्यात्मिक यात्रा का शुभारम्भ होता है जब एक जिज्ञासु शिष्य मैत्रेय, धर्म, सृष्टि और तत्त्वज्ञान की गहराइयों को जानने के लिए, दिव्यदृष्टा महर्षि पराशर के चरणों में प्रणत होता है।

कथा आरंभ: 

नम्रता से भरे हृदय और ज्ञान की प्यास से आकुल मैत्रेय ऋषि ने नित्यकर्मों से निवृत्त हो रहे मुनिवर पराशर के चरणों में प्रणाम कर कहा:

“हे गुरुदेव! मैंने आपके सान्निध्य में सम्पूर्ण वेद, वेदांग और धर्मशास्त्रों का अध्ययन किया है। आपकी कृपा से कोई भी यह नहीं कह सकता कि मैंने शास्त्रों का अभ्यास अधूरा छोड़ा है।

किन्तु अब मेरी आत्मा एक और जिज्ञासा से भर गई है यह संसार किससे उत्पन्न हुआ है? यह किसमें स्थित है और अंत में किसमें विलीन होगा? देवता, युग, पर्वत, समुद्र, धर्म और प्रलय ये सभी कैसे आते-जाते हैं? कृपा कर मुझे बताइये, ताकि मेरे हृदय की तृष्णा शांत हो सके।”

पराशर मुनि का उत्तर और उनके भीतर की कथा

महर्षि पराशर की आँखों में अतीत की स्मृति चमक उठी। उन्होंने गम्भीर स्वर में कहा: 

“हे मैत्रेय! तुम्हारे प्रश्न ने मुझे मेरे जीवन के उस मोड़ की ओर लौटा दिया है जब मैं स्वयं क्रोध की ज्वाला में जल रहा था।

मेरे पिता को राक्षसों ने, विश्वामित्र की प्रेरणा से, मार डाला। उस समय मेरे भीतर दुःख और प्रतिशोध की अग्नि धधक उठी। मैंने राक्षसों को भस्म करने के लिए एक यज्ञ आरंभ किया, और वे अग्नि में गिरकर जलने लगे।

किन्तु तभी मेरे पितामह, तपस्वी महर्षि वसिष्ठजी ने मुझे रोका। उन्होंने कहा :

‘वत्स! राक्षसों का दोष नहीं है। यह तो तुम्हारे पिता का प्रारब्ध था। क्रोध तो मूकों को होता है, ज्ञानी पुरुष तो अपने विवेक से काम लेते हैं। क्रोध यश, तप और पुण्य all को नष्ट कर देता है।’

उनकी वाणी में क्षमा और करुणा का आलोक था। मैंने यज्ञ रोक दिया। पितामह वसिष्ठजी प्रसन्न हुए। और तभी वहाँ ब्रह्मा के पुत्र, महामुनि पुलस्त्यजी पधारे।

उन्होंने मुझसे कहा, ‘हे वत्स! तूने क्षमा को चुना है, इसलिए तू सम्पूर्ण शास्त्रों का ज्ञाता बनेगा। मैं तुझे वर देता हूँ तू पुराणसंहिता का वक्ता बनेगा। तू देवताओं के स्वरूप को जानेगा और तुझे ज्ञान और मोक्ष का मार्ग स्वतः प्राप्त होगा।’

मेरे पितामह वसिष्ठजी ने उस वरदान को अनुमोदित किया और कहा ‘जो कुछ पुलस्त्यजी ने कहा है, वह सब सत्य होगा।’”

पुराण की धारा का प्रवाह

महर्षि पराशर ने आगे कहा, “हे मैत्रेय! तुम्हारे प्रश्नों ने मुझे उस सबका स्मरण कराया है। अब मैं तुम्हें वही दिव्य पुराणसंहिता सुनाऊँगा जो मुझे पुलस्त्यजी से प्राप्त हुई थी।

ध्यानपूर्वक सुनो यह सम्पूर्ण जगत श्रीविष्णु से उत्पन्न हुआ है, उन्हीं में स्थित है और अंततः उन्हीं में विलीन हो जाता है। वही इसकी सृष्टि, स्थिति और लय के कारण हैं। वस्तुतः यही सम्पूर्ण जगत भी वे ही हैं।”

इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽंशे प्रथमोऽध्यायः।




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