विनोद कुमार झा
बहुत समय पहले की बात है। एक छोटे से शांत गाँव में एक बालक जन्मा आर्यन। उसका जन्म साधारण था, पर उसका हृदय असाधारण। जब दूसरे बच्चे खेलों और खिलौनों में मग्न रहते, वह आकाश को निहारता, चाँद से बातें करता और तारे गिनते हुए एक ही सवाल खुद से पूछता:
मैं कौन हूँ?
माँ हँसती और कहती “तू मेरा बेटा है।”
पिता कहते “तू एक अच्छा इंसान बनेगा।”
गुरुजी कहते “तू एक छात्र है।”पर आर्यन का दिल इन उत्तरों से संतुष्ट नहीं होता।
समय बीता, आर्यन बड़ा हुआ। शिक्षा प्राप्त की, नगर गया, काम मिला, धन आया, प्रतिष्ठा भी मिली। सब कुछ था उसके पास लेकिन कहीं भीतर एक शून्यता बनी रही।
रातों को नींद न आती। उत्सवों में आनंद न होता। रिश्तों में गहराई न दिखती। उसका मन बार-बार पूछता:
“क्या यही जीवन है? क्या यही मेरा स्वरूप है? क्या मैं इसी शरीर और नाम का पुतला हूँ?”*
एक दिन नगर से लौटते समय वह एक तपस्वी को देखता है — पीले वस्त्र, शांत आँखें, मुख पर अद्भुत तेज।
आर्यन उनके पास जाकर पूछ बैठता है:
“स्वामी, कृपया मुझे बताइए मैं कौन हूँ? मेरी आत्मा क्या खोज रही है?”
साधु मुस्कराते हैं, और कहते हैं:“वत्स, तू स्वयं ही उस उत्तर की खोज है। आत्मा केवल जानना नहीं चाहती, अनुभव* करना चाहती है अपने स्त्रोत का, अपनी सत्यता का, अपने अस्तित्व का। क्या तू उस खोज के लिए तैयार है?”
आर्यन ने तुरंत उत्तर दिया “हाँ।”
साधु ने उसे तीन बातें सिखाईं जो इस प्रकार है :-
मौन: बाहर का शोर कम हो, तो भीतर की आवाज़ सुनाई देती है।
ध्यान: स्वयं को देखने के लिए तीसरी आँख खोलनी होती है।
त्याग: जो तू नहीं है, उसे छोड़ देना ही तुझे तेरे पास लाता है।
आर्यन ने नगर त्यागा, घर छोड़ा, और एक शांत वन में तप करने लगा। पहले कुछ दिन कठिन थे भूख, नींद, डर, और अकेलापन।कभी वह रोता, कभी गाता, कभी पेड़ों से बात करता। फिर एक दिन माया ने उसका मार्ग रोका। उसके सामने भव्य महल, सुंदर स्त्री, स्वर्ण आभूषण और स्वादिष्ट भोज्य प्रकट हुए।
माया ने कहा: “तेरी आत्मा की खोज यही तो है सुख, प्रेम, सम्मान! ले ले सब कुछ।”
आर्यन की आँखों में एक क्षण के लिए आकर्षण आया, लेकिन फिर उसे साधु की बात याद आई “जो दिखता है, वह आत्मा की प्यास नहीं बुझा सकता। जो छुपा है, वही तृप्ति है। उसने आँखें मूँदीं, और माया अदृश्य हो गई।
एक रात, ध्यान में बैठे-बैठे, उसे अपने भीतर एक प्रकाश-सा अनुभव हुआ। वह शरीर को भूल गया, नाम-गोत्र को भूल गया, समय-स्थान को भूल गया। वह केवल “था” एक चेतना, एक शुद्ध अस्तित्व।
उसने अनुभव किया “मैं शरीर नहीं हूँ। मैं विचार नहीं हूँ। मैं जन्मा नहीं। मैं कभी मरूँगा नहीं। मैं वही हूँ जो सबमें है। वही अंश ब्रह्म का।”
वह घंटों नहीं, शायद युगों तक उसी अवस्था में रहा। जब उसने आँखें खोलीं, तो उसके चेहरे पर वो मुस्कान थी जो केवल ज्ञानी की होती है।
अब वह लौट आया अपने गाँव पर वह आर्यन नहीं था। वह अब “स्वयं” बन चुका था। उसने लोगों को न कोई धर्म सिखाया, न कोई चमत्कार दिखाया। बस एक बात कहता: “जो तुम खोज रहे हो वह तुम ही हो। बाहर मत ढूँढो। भीतर उतर कर देखो।”
उत्तर – जो कथा के अंत में मिलता है।
जब एक युवक ने उससे वही पुराना प्रश्न पूछा, “मैं कौन हूँ?”
उसने कहा: “तूं वह है, जिसे न देखा जा सकता है, न छुआ जा सकता है, पर अनुभव किया जा सकता है। तूं नश्वर देह नहीं, अमर चेतना है। तूं जो खोज रहा है वह तू स्वयं है।”
आत्मा की मूल खोज न किसी मंदिर में होती है, न किसी शास्त्र में वह होती है स्वयं के भीतर। जो इस यात्रा पर निकलता है, वह पाता है । न कोई अलग “ईश्वर” है, न कोई अलग “मैं”। मैं ही आत्मा हूँ। आत्मा ही ब्रह्म है। और ब्रह्म ही मेरा स्त्रोत है।