विनोद कुमार झा
हर वर्ष 1 मई को अंतरराष्ट्रीय श्रमिक दिवस के रूप में मनाया जाता है, लेकिन इस वर्ष की तस्वीर अलग थी यह सिर्फ वेतन, काम के घंटे और बेहतर जीवन की मांगों तक सीमित नहीं रही, बल्कि इसमें वैश्विक आर्थिक और राजनीतिक संकटों की प्रतिध्वनि भी सुनाई दी। टोक्यो से लॉस एंजेलिस और इस्तांबुल तक मजदूरों ने अपने अधिकारों की लड़ाई में एकजुटता दिखाई, और उनकी मांगें स्थानीय से ज़्यादा वैश्विक संदर्भों में गूंजती रहीं।इस वर्ष के अधिकांश प्रदर्शनों का केंद्र अमेरिकी पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की नीतियों के प्रभाव थे। चाहे वह टैरिफ युद्ध हो या अप्रवासी श्रमिकों पर हमले इन फैसलों का असर सिर्फ अमेरिका तक सीमित नहीं रहा, बल्कि एशिया और यूरोप की अर्थव्यवस्थाओं तक फैल गया। जापान के टोक्यो में जहां प्रदर्शनकारियों ने उच्च वेतन, लैंगिक समानता और भूकंप राहत की मांग की, वहीं फिलीपींस और ताइवान जैसे देशों में ट्रंप की आर्थिक नीतियों को स्थानीय उद्योगों के लिए खतरनाक बताया गया।
इंडोनेशिया में राष्ट्रपति प्रबोवो सुबियांटो ने गरीबी मिटाने का संकल्प लिया, जबकि तुर्किये के इस्तांबुल में लोकतांत्रिक अधिकारों पर हमले के खिलाफ आवाज़ उठी। तकसीम स्क्वायर पर प्रदर्शनकारियों की गिरफ्तारी यह दिखाती है कि कई देशों में श्रमिकों की मांगों के पीछे सिर्फ आर्थिक नहीं, बल्कि राजनीतिक स्वतंत्रता की भी भूख छिपी है। अमेरिका के लॉस एंजेलिस में अप्रवासी श्रमिकों के हक में आवाज़ बुलंद हुई, और यह संदेश स्पष्ट था अधिकारों की लड़ाई सीमाओं में नहीं बंधी है।
आज दुनिया भर के श्रमिकों को एक साझा चुनौती का सामना करना पड़ रहा है वैश्वीकरण के दौर में नीतियों के प्रभाव अब किसी एक देश या सीमित उद्योग तक सीमित नहीं रहे। श्रमिक आंदोलन सिर्फ तनख्वाह और नौकरी की सुरक्षा का नहीं, बल्कि समग्र सामाजिक न्याय का आंदोलन बनता जा रहा है। लैंगिक समानता, स्वास्थ्य सेवाएं, आव्रजन नीति, और लोकतांत्रिक अधिकार ये सब श्रमिक आंदोलनों के नए एजेंडे बन गए हैं।
नीतिगत स्तर पर सरकारों को यह समझने की जरूरत है कि मजदूरों की आवाज़ को दबाना या नजरअंदाज करना अल्पकालिक शांति तो ला सकता है, लेकिन दीर्घकाल में यह असंतोष को और गहरा करता है। इस्तांबुल से लेकर जकार्ता तक की सरकारों को श्रमिकों के मुद्दों को सिर्फ कानून-व्यवस्था की चुनौती के रूप में नहीं, बल्कि लोकतंत्र और सामाजिक न्याय के अनिवार्य अंग के रूप में देखना होगा। साथ ही, वैश्विक स्तर पर विकसित देशों की जिम्मेदारी बनती है कि वे अपनी नीतियों की वैश्विक कीमत का आंकलन करें। अमेरिका जैसे देशों के टैरिफ निर्णय केवल घरेलू अर्थव्यवस्था को प्रभावित नहीं करते, बल्कि एशिया और अफ्रीका के उद्योगों और श्रमिकों पर भी सीधा असर डालते हैं।
श्रमिक दिवस हमें याद दिलाता है कि किसी भी राष्ट्र की आर्थिक प्रगति की नींव उसकी मेहनतकश जनता पर टिकी होती है। जब मजदूर सड़कों पर उतरते हैं, तो वे सिर्फ अपनी थाली का सवाल नहीं उठाते, बल्कि पूरी दुनिया के लिए सामाजिक न्याय और सम्मान की लड़ाई लड़ते हैं। इस वर्ष के प्रदर्शनों ने इस लड़ाई को और व्यापक, और अधिक वैश्विक बना दिया है। क्या भारत के श्रमिक संगठनों को भी अब इन वैश्विक मुद्दों पर अपनी आवाज़ बुलंद करनी चाहिए? यह सवाल हमारे लिए विचारणीय है।