##दश दिव्य रत्न क्या है?

विनोद कुमार झा

जब पृथ्वी पर धर्म संकट में था, और अधर्म अपनी चरम सीमा पर पहुँच चुका था, तब सप्तर्षियों ने देवताओं से निवेदन किया"हे देवराज! यदि कोई उपाय न किया गया, तो पृथ्वी का संतुलन नष्ट हो जाएगा।" तब ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने अपने-अपने एक-एक दिव्य रत्न को धरती पर छिपा दिया ऐसी जगहों पर जहाँ केवल सत्य, तप और समर्पण से ही पहुँचा जा सकता था।

ब्रह्मा ने कल्पवृक्ष को मेरु पर्वत की छाया में छुपाया, विष्णु ने कौस्तुभ मणि को समुद्र की गहराई में, शिव ने संजीवनी बूटी को मृत्युलोक और जीवनलोक की सीमा पर, और अन्य दैवीय वस्तुएं धरती के विविध भागों में बिखर गईं। परंतु... ये वस्तुएं पुनः खोजी जानी थीं क्योंकि एक महासंकट आने वाला था। एक ऐसा संकट, जो स्वयं सृष्टिकर्ताओं की परीक्षा लेने वाला था।

हिमालय की तलहटी में स्थित एक प्राचीन गुरुकुल में युवा ऋषिकुमार आर्यव्रत को रहस्यमयी स्वप्न आने लगे। उन स्वप्नों में उसे एक दिव्य स्त्री शायद सरस्वती या कोई योगिनी आकर कहती, “आर्यव्रत! जब सप्त ग्रह एक रेखा में आयेंगे, तब पृथ्वी का संतुलन डगमगायेगा। तब ही इन दस दिव्य वस्तुओं की आवश्यकता होगी। तू ही वह है जिसे यह खोज पूरी करनी है।” दस दैवीय वस्तुएं इस प्रकार है:-कल्पवृक्ष, अक्षयपात्र, कर्ण के कवच कुंडल, दिव्य धनुष और तरकश, पारस मणि, अश्वत्थामा की मणि, स्यंमतक मणि, पांचजन्य शंख, कौस्तुभ मणि एवं संजीवनी बूटी

आर्यव्रत ने यह स्वप्न अपने गुरु वसिष्ठाचार्य को सुनाया। उन्होंने आँखें बंद कर ध्यान किया और बोले, “यह कोई साधारण स्वप्न नहीं। ये संकेत हैं उस अग्निपथ की ओर, जिसे पार करने के लिए आत्मा को शुद्ध, बुद्धि को स्थिर और संकल्प को अटल बनाना होगा।"

ऋषि वसिष्ठाचार्य के चरणों में बैठा आर्यव्रत, ध्यान में लीन था। उसकी चेतना में कोई दिव्य तरंग समा रही थी एक स्त्रीस्वर कह रहा था, "कल्पवृक्ष की छाया तुझे बुला रही है। वहाँ पहुँच, जहाँ इच्छा से पहले शांति है, और चाह से पहले तप।"

गुरु ने जब यह सुना, वे मौन हो गए। उन्होंने अपने कमंडल से जल छिड़का और बोले, "कल्पवृक्ष कोई साधारण वृक्ष नहीं, पुत्र! यह ब्रह्मा की चेतना का प्रतिरूप है। केवल वही इसे पा सकता है जिसकी इच्छाएं शून्य हो गई हों।"

संध्या होते ही आर्यव्रत अपनी यात्रा पर निकल पड़ा। वह पश्चिमोत्तर दिशा में चल पड़ा, जहां मेरु पर्वत की श्रेणियाँ थीं। पाँच दिनों तक पर्वत, बर्फ़, जंगल और पशु-पक्षियों से भरे रास्तों में चलते हुए, वह अंततः एक विशाल शिला के पास पहुँचा उस पर एक मंत्र उकेरा था: जो स्वयं को मिटा दे, वही कल्प को पा सकता है।

आर्यव्रत वहीं ध्यानस्थ हो गया। उसे भूख लगी, ठंड ने बदन जकड़ लिया, पर उसने चित्त को स्थिर रखा। तीसरे दिन, जब उसकी आँखें भीतर लौट चुकी थीं, एक दिव्य प्रकाश में यक्ष प्रकट हुआ।

"आर्यव्रत!" वह बोला, "कल्पवृक्ष पाने के लिए तीन प्रश्नों का उत्तर दो..."

प्रश्न 1: "तू कौन है?"

उत्तर: "मैं वह हूँ जो जानने चला है कि मैं कौन नहीं हूँ।"

प्रश्न 2: क्यों चाहता है वृक्ष?

उत्तर: अपनी नहीं, सबकी इच्छाएं मिटाने के लिए।

प्रश्न 3: तेरे अंदर क्या बचा है?

उत्तर: शून्य। और उसी में ब्रह्म है।

यक्ष मुस्कुराया। आकाश से बिजली की एक रेखा उतरी और सामने कल्पवृक्ष प्रकट हुआ सभी ऋतुओं के पुष्पों और फलों से भरा, फिर भी पूर्ण मौन में।

वृक्ष की एक पत्ती झरकर आर्यव्रत की गोद में आ गिरी। वह स्वर्णिम नहीं थी, वह पारदर्शी थी जैसे इच्छा की परछाई भी नहीं।"तू उत्तीर्ण हुआ," यक्ष बोला, "पर यह तो बस आरंभ है।"

आर्यव्रत, गुरु वसिष्ठ के आशीर्वाद से, मेरु पर्वत की ओर निकल पड़ा। मार्ग में उसे देवदूत मातलि मिला जो इंद्रलोक से भेजा गया था। मातलि उसे स्वर्ण विमान में ले गया उस पर्वतीय क्षेत्र में जहाँ कल्पवृक्ष पुष्पित था, लेकिन अब वह अदृश्य हो चुका था। 

कल्पवृक्ष के द्वार पर यक्ष खड़ा था  “तुम्हें इसके दर्शन चाहिए, तो तीन प्रश्नों का उत्तर दो: जीवन का उद्देश्य क्या है? धर्म किसे कहते हैं? और क्या सत्य को झुठलाया जा सकता है?”

आर्यव्रत ने उत्तर दिया:

1. “जीवन का उद्देश्य आत्मा की मुक्ति है।”

2. “धर्म वह है जो सबके कल्याण का मार्ग हो।”

3. “सत्य को क्षणभर के लिए ढका जा सकता है, पर नष्ट नहीं किया जा सकता।”

यक्ष हँस पड़ा  और कल्पवृक्ष प्रकट हुआ। उस वृक्ष से एक स्वर्ण पत्ती गिर पड़ी आर्यव्रत को आशीर्वाद और प्रमाण।

 अक्षय पात्र और भूख का रहस्य : कल्पवृक्ष की पत्ती को एक सुवर्ण लोटे में सुरक्षित कर, आर्यव्रत दक्षिण की ओर बढ़ चला। उसे बताया गया था कि अक्षय पात्र, जो द्रौपदी को भगवान सूर्य से मिला था, अब विरुपाक्ष वन में एक तपस्वी के पास छुपा हुआ है।

विरुपाक्ष वन वह स्थान जहाँ सूर्य की किरणें भी कठिनाई से पहुँचती थीं, जहाँ वृक्षों की जड़ें भूमि को नहीं, आत्मा को जकड़ती थीं। वह वन इतना प्राचीन था कि वहाँ की हवा भी किसी युग की सांसें सुनाती थी।

छह दिन की कठिन यात्रा के बाद, जब उसका शरीर थक गया और मन भी क्षीण होने लगा, तभी उसे एक छोटी सी झोपड़ी दिखी उस झोपड़ी के बाहर एक वृद्ध तपस्वी बैठा था, जो खुले नेत्रों से आकाश की ओर देख रहा था।

उस तपस्वी के पास न अग्नि थी, न पात्र, न जल, न कोई अन्न का भंडार फिर भी उसकी काया तेजस्वी और संतुलित थी।

आर्यव्रत ने नमन किया “हे तपस्वी, मैं अक्षय पात्र की खोज में हूँ, जो अनंत अन्न का स्रोत है। क्या आप उसकी जानकारी रखते हैं?”तपस्वी ने उत्तर नहीं दिया। वे बस बोले “भूख से पहले तृप्ति को जान। जब भूख का स्वरूप समझ सको, तब पात्र मिलेगा।”और इतना कहकर उन्होंने अपनी आँखें मूँद लीं।

आर्यव्रत वहाँ रुक गया। उसने सोचा—क्या मैं भूखा हूँ? उसके पास कुछ फल थे, कुछ जल भी। पर उसने उन्हें त्याग दिया।उसने संकल्प लिया "जब तक भूख की जड़ नहीं जानूँगा, तब तक अन्न ग्रहण नहीं करूँगा।"

पहला दिन – शरीर में हल्की कंपकंपी, पर चित्त शांत।

दूसरा दिन – दृष्टि धुंधली, पर मन स्थिर।

तीसरा दिन – विचारों की झड़ी, मन भटकने लगा “क्यों कर रहा हूँ यह सब?”

चौथा दिन उसने देखा एक चींटी एक पत्ते के टुकड़े पर रुककर लौट गई क्या वह तृप्त थी? या भोजन तक पहुँचना ही उसका धर्म था?

पाँचवें दिन  आर्यव्रत ध्यान में गया, भीतर एक मौन स्वर गूंजा "भूख केवल अन्न की नहीं होती, पुत्र। मन की भूख, स्वीकृति की भूख, अधिकार की भूख, भविष्य की भूख... इनसे बड़ी कोई अकाल नहीं।"

उस क्षण, वह भीतर से मुक्त हो गया। आँखे खोलीं तो सामने वह तपस्वी खड़ा था हाथ में एक छोटा ताम्र पात्र। “यह वही अक्षय पात्र है। यह हर उस व्यक्ति को अन्न देगा जो अपनी भूख से परे दूसरों की भूख को देखता है। पर इसका भार तभी उठेगा जब तुम स्वयं तृप्त हो।”

आर्यव्रत ने पात्र को हाथ में लिया वह हल्का था, पर उसकी आभा से समस्त वन प्रकाशमान हो गया। झोपड़ी विलीन हो गई। तपस्वी अंतर्धान हो गया। केवल वायु में एक शब्द गूंजा “अब तुम भूख से नहीं, सेवा से बंधे हो।”

 कवच-कुंडल : अब आर्यव्रत के पास कल्पवृक्ष की पत्ती और अक्षय पात्र थे, लेकिन उसकी आंखों में अब तीसरी ज्योति जाग चुकी थी त्याग की। और उसकी तीसरी यात्रा का संकेत भी यही था कर्ण के कवच और कुंडल की खोज , जो न केवल दिव्यता का प्रतीक थे, बल्कि निस्वार्थ बलिदान का आदर्श भी।

वह पूर्व की ओर चला, जहां अग्निकुंड पर्वत स्थित था। पुराणों के अनुसार, वहीं पर भगवान सूर्य ने कर्ण को कवच-कुंडल दिए थे, और वहीं इन्द्र ने उनके लिए याचना की थी। मान्यता थी कि वही स्थान त्याग की अग्नि से अब भी जलता है।

अग्निकुंड पर्वत पर पहुँचते ही वातावरण बदल गया गर्म हवाएँ, लावे की सी गंध, और मीलों तक फैला एक वीरान, तपता हुआ मैदान। वहाँ कोई जीव नहीं था, कोई छाया नहीं थी सिर्फ एक गुफा, जिसके बाहर लिखा था: "जहाँ अहं जलता है, वहीं दिव्यता जन्मती है।"

गुफा में प्रवेश करते ही आर्यव्रत को एक विस्मयकारी प्रकाश ने घेर लिया। सामने एक दिव्य पुरुष प्रकट हुए आधे शरीर में अग्नि और आधे में शांत जल की छाया। वे बोले ,

"मैं त्यागपुरुष हूँ, कर्ण के भाव का प्रतीक। तुम उसके कवच-कुंडल चाहते हो? बताओ क्या तुम दे सकोगे वह सब कुछ जो तुम्हारा है?"

आर्यव्रत बोला, "यदि वह किसी की रक्षा करे, तो हाँ।"त्यागपुरुष बोले, "तीन अग्नियाँ हैं जिन्हें पार करना होगा। हर अग्नि तुम्हारे अस्तित्व का एक हिस्सा जलाएगी।"

प्रथम अग्नि: स्मृतियों की : वह आग उठी, और आर्यव्रत की बाल्य स्मृतियाँ, माता-पिता के चित्र, गुरुकुल की आत्मीयता सब धीरे-धीरे बुझने लगे। उसकी आँखों में आँसू आ गए, पर वह रुका नहीं।

द्वितीय अग्नि: स्वाभिमान की : अब अग्नि ने उसके ज्ञान, उसकी तपस्या, अर्जित यश, नाम और गौरव को जलाना शुरू किया। वह कांप उठा, पर मन में विचार आया—"कर्ण ने भी दिया था, मैंने केवल पाया है।"

तृतीय अग्नि आशाओं की : अब अग्नि ने उसकी भविष्य की योजनाएँ, इच्छाएँ, संकल्प सब जला दिए। अंत में शेष रहा केवल एक मौन । और उसी मौन में वह दिव्य पुरुष विलीन हो गए।

वहाँ एक शिला थी जिस पर कवच और कुंडल रखे थे। वे सोने जैसे दीखते थे, पर उनमें कोई चमक नहीं थी बल्कि एक ठहराव था, एक करुणा। आर्यव्रत ने उन्हें उठाया, और उसी क्षण उसकी त्वचा पर वे धारण हो गए जैसे वे उसकी त्वचा ही बन गए हों।

अब वह अजेय था पर भीतर से अत्यंत विनम्र। उसे समझ आ गया था कि ये वस्त्र उसकी रक्षा नहीं, दूसरों के लिए उसकी उपस्थिति को सक्षम करने आए थे। आकाश में एक वाक्य गूंजा"जो स्वयं को त्यागता है, वही सच्चा कवच धारण करता है।"

 दिव्य धनुष और तरकश :अब आर्यव्रत एक ऐसे पड़ाव पर था जहाँ उसकी आत्मा तप चुकी थी, इच्छा निःशेष हो चुकी थी, और शरीर त्याग की आभा से चमक रहा था। पर अगली परीक्षा साधारण नहीं थी अब वह चल पड़ा था उस दिशा में, जहाँ शक्ति और विवेक की जुगलबंदी होती है।

उसकी अगली मंज़िल थी धरणी गुफा, जो पृथ्वी के गर्भ में स्थित थी और जहाँ त्रेतायुग के दिव्य धनुष और तरकश आज भी ब्रह्म की अग्नि में सुप्त थे।

किंवदंती थी कि यह वही धनुष था जिसे राम ने खींचा, और वही तरकश जिसमें निर्णयों के तीर भरे रहते थे। हर तीर तब चल सकता था जब वह सत्य की दिशा में जाए अन्यथा वह धनुष टूट जाता।

धरणी गुफा एक भूखण्ड के नीचे स्थित थी वहाँ जाने के लिए आर्यव्रत को एक अंधे सन्यासी के पास जाना था जो प्रवेशद्वार की रक्षा करता था। वह सन्यासी बोला,"धनुष सबको चाहिए, पर निर्णय का भार कौन उठाएगा? क्या तू अपने हर निर्णय के परिणाम को सहने के लिए प्रस्तुत है?"आर्यव्रत ने मौन में सिर झुकाया। गुफा के भीतर घुसते ही वातावरण बदल गया वहाँ प्रकाश नहीं था, पर अंधकार भी नहीं। एक रहस्यमयी शून्यता, जो आत्मा को छूती थी।

फिर एक स्वर गूंजा "धनुष को उठाने से पहले, अपने भीतर के निर्णयों से लड़। तुझमें तीन निर्णयों का भार है सत्य, ममता और न्याय। इन पर तीन तीर चलाने होंगे, पर केवल एक सही दिशा में जाएगा। यदि एक भी दिशा झूठी हुई—धनुष टूट जाएगा।"*

पहला तीर – सत्य: उसे दिखाया गया एक वृद्ध अपराधी जो बचपन में एक अनाथालय जलाने का दोषी था। अब वह बीमार था, क्षमायाचना कर रहा था।

क्या उसे दंड दिया जाए या माफ़ किया जाए?

आर्यव्रत ने तीर चलाया "दंड दो, पर घृणा नहीं।"

दूसरा तीर – ममता: उसकी माँ, एक स्त्री जिसे वह वर्षों से खोज रहा था, पर अब वह एक चोर समुदाय की नेत्री थी। 

क्या वह उसे गले लगाए या न्याय के लिए त्याग दे?

आर्यव्रत ने तीर चलाया"ममता में आँखें नहीं, विवेक रखो।"

तीसरा तीर – न्याय: एक सैनिक, जो वर्षों तक अत्याचार करता रहा, पर अब सरहद पर देश की रक्षा कर रहा था।

क्या पुराना पाप आज की भक्ति को ढंक सकता है?

आर्यव्रत बोला "न्याय अतीत नहीं, आज की चेतना से चलता है।"तीनों तीरों की दिशा जब वह धनुष पर चढ़ा, तो धनुष चमकने लगा, और तरकश गूंजने लगा।वह दिव्य धनुष अब उसका था। उसमें बल नहीं था, वह केवल सत्य के स्पंदनपर चलता था। गुफा के अंत में दीवार पर शब्द उभरे जिसके तीर विचार से तेज हों, वही युद्ध से पहले जीतता है।

जब दसों दिव्य वस्तुएं एकत्र हुईं, तब धरती पर एक दैत्यों की महासभा ने आक्रमण कर दिया। वे चाहते थे कि ये सभी वस्तुएं उन्हें मिलें ताकि वे ब्रह्मांड के नियमों को तोड़ सकें।

पर आर्यव्रत अब साधारण मानव न था  वह ऋषि, योद्धा और प्रेमयोगी बन चुका था। उसके साथ सप्तर्षियों की आत्माएं, देवताओं की कृपा और धरती की चेतना जुड़ चुकी थी।

एक भीषण युद्ध हुआ – जिसे कालयुद्ध कहा गया। इस युद्ध में समय रुक गया, और केवल धर्म व अधर्म की लहरें बहती रहीं।अंततः आर्यव्रत ने समस्त वस्तुओं को एक यंत्र में समाहित कर दिया – जिसे त्रिधातु स्तंभ कहा गया। यह स्तंभ धर्म, प्रेम और तपस्या से संचालित होता था।

कथा समाप्त नहीं होती – वह आगे बढ़ती है हर उस मनुष्य में, जो सत्य के पथ पर चलता है, जो भीतर की भूख को पहचानता है, जो बाहरी युद्ध के पीछे आत्मा की शांति को खोजता है।

क्योंकि ये दैवीय वस्तुएं प्रतीक हैं  वह शक्ति जो हर आत्मा में सुप्त है।

आगे के अध्यायों में प्रत्येक दैवीय वस्तु की खोज, रहस्य और परीक्षा को विस्तार से प्रस्तुत किया जाएगा, जैसे...)

* पारस मणि – भस्म भूमि में शुद्ध इच्छाओं की तपस्या

* अश्वत्थामा की मणि – अश्रु सरोवर के अश्वत्थ ध्वनि में छिपा ज्ञान

* स्यमंतक मणि – पाताल लोक में छिपा स्वर्ण अभिशाप

* पांचजन्य शंख – समुद्र की गर्जना से उत्पन्न कालशक्ति का सामंजस्य

* कौस्तुभ मणि – विष्णु के हृदय में छिपा सत्य-स्वरूप

* संजीवनी बूटी – मृत्यु के द्वार पर जीवन की अंतिम लौ।

( आगे की कहानी अगले अंक में )





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