नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम । देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत।।
हे मैत्रेय! प्रजापति दक्ष की कन्याओं के विवाह और उनसे उत्पन्न वंशों का विस्तार सृष्टि की विविधता और जीवन के विकास का मूल आधार है। अब मैं तुम्हें उन कन्याओं के वंशों का विस्तारपूर्वक वर्णन करता हूँ, जिससे देव, असुर, मानव, और अन्य प्राणी जातियाँ अस्तित्व में आईं।
कथा प्रारम्भ : प्रजापति दक्ष की कन्याएँ जब उनके निश्चय अनुसार विभिन्न ऋषियों और देवताओं से विवाह कर रही थीं,
तब प्रत्येक कन्या की संतान से अनेक वंशों का विकास हुआ।
इस प्रकार सृष्टि के विभिन्न लोकों का निर्माण हुआ,
और विविध जीव-जंतु, देवता, असुर, गंधर्व, किन्नर, यक्ष, राक्षस आदि सभी की उत्पत्ति हुई।
आदिति से देवताओं का जन्म: दक्ष की कन्या आदिति ने ऋषि कश्यप से विवाह किया। उनके गर्भ से उत्पन्न हुए बारह दिव्य पुत्र जिन्हें बारह आदित्य कहा गया।
ये सूर्य के समान तेजस्वी देवता थे, जैसे:- इन्द्र, वरुण, अग्नि, वायु, सोम आदि। आदित्य देवता वे हैं जो प्रकृति के विभिन्न तत्वों के अधिपति हैं, और ये सृष्टि में सदैव धर्म की रक्षा करते हैं।
दिति से असुरों की उत्पत्ति : दक्ष की कन्या दिति ने भी ऋषि कश्यप से विवाह किया। उनके पुत्र असुर कहलाए, जिनमें अनेक प्रबल और महाशक्तिशाली राक्षस हुए। असुरगण ने देवताओं के साथ संघर्ष किया, किंतु अन्ततः धर्म की विजय हुई। यह संघर्ष सृष्टि के नियमों और न्याय की स्थापना हेतु था।
अन्य कन्याओं से विविध जीवों की उत्पत्ति
कद्रु से नागवंश, विनता से गरुड़ और अरुण, अरिष्टा से गंधर्व और अप्सराएँ, दनु से अन्य राक्षस, मनु से मनुष्य जाति प्रत्येक कन्या की संतान से विभिन्न प्राणी और जीवधारी उत्पन्न हुए, जो पृथ्वी पर अपने-अपने क्षेत्र में रहते हैं।
सृष्टि के विविध लोकों का निर्माण
इन वंशों की सहायता से विभिन्न लोकों का विस्तार हुआ
जैसे :-
स्वर्ग लोक : जहां देवता निवास करते हैं
पाताल लोक : जहाँ नाग और राक्षस निवास करते हैं
भूमंडल : जहाँ मनुष्य और पशु रहते हैं
मध्य लोक : जो देवगणों और मनुष्यों के मध्य है। सभी लोक एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं और ये तीनों लोक सृष्टि के अविभाज्य भाग हैं।
धर्म और नीति का प्रवर्तन
इन वंशों के द्वारा धर्म, नीति, और सामाजिक व्यवस्था स्थापित हुई। प्रत्येक वंश के अपने-अपने नियम, कर्तव्य, और कर्मकांड बनाए गए। यह व्यवस्था ब्रह्मा के निर्देशानुसार सृष्टि में संतुलन और स्थिरता बनाए रखने के लिए थी।
हे मैत्रेय! प्रजापति दक्ष की कन्याओं से हुए संतानवर्ग ने इस सृष्टि को अनेक रूपों और विभिन्नताओं से परिपूर्ण किया।
यह संतानवर्ग न केवल जीवन का आधार बना, बल्कि धर्म, नीति, और समाज के नियमों की भी स्थापना की। इस प्रकार सृष्टि का विस्तार और उसके नियम स्थिर हुए।
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽंशे सप्तमोऽध्यायः।
श्रीविष्णुपुराण, प्रथम अंश ,अष्टम अध्याय: मनु, मन्वन्तर और संसार के समय चक्र की व्याख्या
हे मैत्रेय! सृष्टि के विस्तार के पश्चात् ब्रह्मा ने समय के चक्र की स्थापना की। इस चक्र में अनेक मनु आते हैं, जिनके अधीन मन्वन्तर होते हैं। प्रत्येक मनु के कार्य से संसार का शासन और धर्म निर्धारित होता है। अब मैं तुम्हें मन्वन्तर और मनुओं के विषय में विस्तार से बताता हूँ।
कथा प्रारम्भ : ब्रह्मा ने सृष्टि को स्थायित्व देने के लिए
समय के विभाजन और विभिन्न युगों की स्थापना की।
प्रत्येक मनु को एक मन्वन्तर प्राप्त होता है, जो उस युग के अधिपति होते हैं।
मनु क्या हैं?
मनु सृष्टि के प्रथम पुरुष और मानव जाति के आदिकर्ता हैं।
वे धर्म के पालन और प्रजाजन के नियमों के प्रतिपालक होते हैं।
प्रत्येक मनु का कार्य होता है कि वह अपने मन्वन्तर काल में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष का प्रवर्तन करे।
मन्वन्तर और उनका काल
एक मन्वन्तर लगभग 30,000 देव वर्ष (लगभग 8,64,00,000 मानव वर्ष) का होता है।
प्रत्येक मन्वन्तर के अंत में एक प्रलय होता है, जिसमें संसार का पुनः संहार होता है। उसके पश्चात् नया मनु और नया मन्वन्तर प्रारम्भ होता है।
प्रथम मनु – श्रेष्ट मनु
सर्वप्रथम मनु को श्रेष्ट मनु कहा गया, जो आदिकर्ता हैं।
उन्होंने मनुष्यों को नियम, कानून, और धर्म सिखाए।
उनके काल में धर्म का पूर्ण पालन होता था।
मन्वन्तरों के प्रकार
वर्तमान कल्प में कुल चौदह मन्वन्तर होते हैं।
प्रत्येक मन्वन्तर में मनु के अलावा देवता, असुर, ऋषि और प्रजापति भी होते हैं।
उनके नाम हैं:-
1. श्रेष्ट मनु
2. तपस्वी मनु
3. वसिष्ठ मनु
4. श्रुत मनु आदि।
युग और कल्प
प्रत्येक मन्वन्तर में चार युग होते हैं:- सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग, कलियुग। चारों युग मिलकर एक कल्प बनाते हैं।
इस प्रकार सृष्टि का समय चक्र चलता रहता है।
हे मैत्रेय! मनु और मन्वन्तर के चक्र से संसार में नियम, न्याय और धर्म की स्थापना होती है। यह चक्र जीवन को व्यवस्थित करता है और सृष्टि के चिरस्थायी संचालन में सहायक होता है।
सृष्टि का यह नियम और कालक्रम अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽंशे अष्टमोऽध्यायः।
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