देश की सीमाओं की रक्षा में जब हमारे वीर जवान दुर्गम पर्वतों, बर्फीले इलाकों और अंधेरे सुरंगों में उतरकर आतंक के ठिकानों को नष्ट करते हैं, तो यह सिर्फ एक सैन्य कार्रवाई नहीं होती यह राष्ट्र की अस्मिता का प्रहरी बनकर उठाया गया बलिदान होता है। हाल ही में सम्पन्न 'ऑपरेशन सिंदूर' ने भारतीय सेना के साहस, रणनीति और संकल्प को पुनः प्रमाणित किया है। परंतु अफ़सोस इस बात का है कि इस वीरता और विजय के बीच राजनीति ने अपनी पुरानी आदतों को नहीं बदला।
‘ऑपरेशन सिंदूर’ को लेकर जिस प्रकार की सियासी बयानबाज़ी देखने को मिल रही है, वह लोकतंत्र की गरिमा पर सवाल उठाने वाली है। विपक्ष इस सैन्य अभियान को संदेह की दृष्टि से देख रहा है, समय पर सवाल उठा रहा है, और इस पूरे प्रयास को चुनावी फायदा लेने की रणनीति करार दे रहा है।
क्या हर सैन्य अभियान को, हर सीमा पर जीत को, हर सैनिक के पराक्रम को चुनावी चश्मे से देखना ज़रूरी है? क्या देश के भीतर इतनी राजनीतिक परिपक्वता नहीं बची कि जब सेना दुश्मनों के अड्डों को तबाह कर रही हो, तब हम एक स्वर में सेना के साथ खड़े हो सकें?
विपक्ष ने यह प्रश्न उठाया कि ऑपरेशन ऐसे समय में क्यों हुआ जब चुनाव नज़दीक हैं? क्या यह एक ‘प्रायोजित’ सफलता है? क्या यह केवल जनता को प्रभावित करने के लिए किया गया कदम है? ऐसे प्रश्न केवल सरकार पर नहीं, बल्कि सेना की निष्ठा और वीरता पर भी अप्रत्यक्ष हमला करते हैं। यह वह रेखा है जिसे लांघना एक लोकतांत्रिक विपक्ष के लिए भी अनुचित है।
सत्ता पक्ष का जवाब है कि देश की सुरक्षा किसी चुनावी कैलेंडर से संचालित नहीं होती। जब खतरा हो, तब कार्रवाई होती है। सेना की कार्रवाई को प्रचार के मंच पर रखने का काम अगर सत्ता कर रही है, तो वह भी उतना ही चिंताजनक है जितना उस कार्रवाई को ही झुठलाने की कोशिश।
राष्ट्रीय सुरक्षा कोई राजनीतिक प्रयोगशाला नहीं है। यह वह क्षेत्र है जहाँ सरकारें आती-जाती हैं, पर संस्थाएं अटल रहती हैं। सेना उन्हीं संस्थाओं का मर्म है। अगर हम हर सैन्य कार्रवाई पर सवाल खड़े करेंगे, हर ऑपरेशन को ‘प्रचार’ का औजार मानेंगे, तो इसका परिणाम केवल राजनीतिक अस्थिरता नहीं, बल्कि जनविश्वास की क्षीणता भी होगा।
यह भी विचारणीय है कि जब-जब देश किसी बड़ी सैन्य सफलता को प्राप्त करता है, तब-तब विपक्ष उस पर शंका प्रकट करने लगता है। ऐसा नहीं होना चाहिए। लोकतंत्र में आलोचना आवश्यक है, परंतु आलोचना और अविश्वास के बीच की रेखा को समझना अधिक आवश्यक है।
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि शहादतें भी अब सियासत के तराजू पर तौली जा रही हैं। कुछ नेताओं के वक्तव्य ऐसे हैं, जो सैनिकों की शहादत को केवल ‘चुनावी शोपीस’ बताकर अपमानित करते हैं। यह दृष्टिकोण न केवल असंवेदनशील है, बल्कि खतरनाक भी। शहीदों की याद चुनावी लाभ के लिए नहीं, बल्कि राष्ट्रीय श्रद्धा के लिए होनी चाहिए।
मीडिया की भूमिका भी इस पूरे परिप्रेक्ष्य में निर्णायक है। कुछ चैनलों ने इस ऑपरेशन को एक्शन फिल्म की तरह प्रस्तुत किया, तो कुछ ने इसकी सच्चाई पर ही सवाल खड़े कर दिए। लेकिन मीडिया का दायित्व है कि वह न केवल सूचनाएं दे, बल्कि विवेकपूर्ण ढंग से सच्चाई और राष्ट्रहित के बीच संतुलन साधे। जनता, जो हर समय सबसे बड़ा निर्णायक होती है, वह भी अब सवाल कर रही है :-
- सेना हमारी है या सरकार की?
- शौर्य राजनीति का विषय है या राष्ट्र का गर्व?
इन सवालों का उत्तर न सरकार दे सकती है, न विपक्ष। यह उत्तर केवल राष्ट्रीय चरित्र दे सकता है वह चरित्र जो सेना के पराक्रम को राजनीति से ऊपर रखता है, जो शहीदों की चिताओं से नारा नहीं, नमन करता है।
संपादकीय रूप में यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि ‘ऑपरेशन सिंदूर’ न तो किसी पार्टी का युद्ध था, न किसी सरकार की जीत। यह राष्ट्र का आत्म-संरक्षण था। इसका अपमान हर उस सैनिक के रक्त का अपमान है जिसने बिना किसी विचारधारा के, केवल तिरंगे की खातिर अपनी जान दांव पर लगा दी। राजनीति आवश्यक है, पर राष्ट्र उससे कहीं ऊपर है। सत्ता आती-जाती है, पर सेना का सम्मान स्थायी होना चाहिए।और सबसे बढ़कर शौर्य की कहानियाँ 'वोट' नहीं, 'वंदन' मांगती हैं।
- संपादक