विनोद कुमार झा
कुरुक्षेत्र का रणभूमि जहाँ अस्त्रों की गर्जना होती थी, घोड़ों की टापें पृथ्वी को कंपा देती थीं, और महारथियों की हुंकार से दिशाएँ थर्रा उठती थीं। वहाँ दस ऐसे नाम गूंजे जो महायोद्धा कहे गए भीष्म, द्रोण, कर्ण, अर्जुन, भीम, अश्वत्थामा, शल्य, युधिष्ठिर, अभिमन्यु और घटोत्कच। परंतु एक नाम वहाँ अनुपस्थित रहा, जो इन सबका नायक था, प्रेरक था, नियंता था श्रीकृष्ण।
क्यों? क्या श्रीकृष्ण किसी महारथी से कम थे? नहीं। तो फिर, क्यों नहीं गिना गया उन्हें उन दस महान योद्धाओं में? आइए, इस रहस्य को एक रचनात्मक कथा के माध्यम से समझें।
# युद्ध से पहले का मौन : कुरुक्षेत्र की रात्रि थी। तंबुओं में रणनीतियाँ बन रही थीं। अस्त्रों की चमक, रथों की छाया और तलवारों की धार नींद से अधिक भारी हो चली थी। उसी समय, एक किशोर योद्धा सात्यकि का पुत्र युयुधान, श्रीकृष्ण के समीप आया और बोला: “ माधव , आपने रथ चलाने का व्रत क्यों लिया? क्या आपको कोई डर है युद्ध से? यदि आप युद्ध करते, तो कोई भी योद्धा आपके सामने टिक न पाता। फिर क्यों नहीं हैं आप उन दस महान योद्धाओं में?”
कृष्ण मुस्कराए। उन्होंने अपने रथ के चक्र को धीरे से घुमाया, फिर बोले, “वत्स, जो सृष्टि रचता है , वह स्वयं युद्ध नहीं करता। वह केवल धर्म की धुरी बनता है।”
# कर्ण के रथ के सामने खड़ा एक 'रथी' : अर्जुन और कर्ण के युद्ध के दिन, रथों की गड़गड़ाहट से आकाश फटा जा रहा था। कर्ण का दिव्य शस्त्र, ‘नागास्त्र’, अर्जुन की ओर बढ़ा। अर्जुन विचलित हुआ। तब श्रीकृष्ण ने रथ को भूमि में गाड़ दिया और अस्त्र धरती में समा गया।
सबने देखा श्रीकृष्ण ने युद्ध नहीं किया, परंतु एक क्षण में पूरे युद्ध का परिणाम बदल दिया। वहीं आकाश में बैठे नारद मुनि मुस्कराए और बोले ,“जो चालक है, वही संचालक भी है। रण का सबसे बड़ा योद्धा वह नहीं जो तलवार चलाए, बल्कि वह है जो मन, नीति और समय को चलाए।”
# श्रीकृष्ण का आत्मविजय : ध्यान दीजिए - भीष्म ने व्रत लिया था ब्रह्मचर्य का, द्रोणाचार्य ने व्रत लिया था शिक्षा देने का परंतु श्रीकृष्ण ने व्रत लिया था अहंकार न करने का।
जब संपूर्ण संसार उन्हें अवतार मानता था, उन्होंने स्वयं को "रथ का सारथी" कहलवाया। युद्धभूमि में उन्होंने एक भी अस्त्र नहीं उठाया, फिर भी हर मोड़ पर युद्ध की दिशा उन्हीं के इशारों पर चलती रही।
यह युद्ध धनुष और बाण का नहीं था उनके लिए, यह युद्ध था धर्म और अधर्म के बीच में संतुलन बनाए रखने का।
# द्रौपदी की चुप्पी और श्रीकृष्ण की वाणी : एक रात्रि, द्रौपदी रो रही थीं। पाँचों पांडवों ने, उनके पुत्रों ने, और स्वयं वह भी युद्ध की आग में झुलस रही थीं। तब श्रीकृष्ण उनके पास आए।
“क्या मैं युद्ध करती?” द्रौपदी ने पूछा।
श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया, “यदि तुम युद्ध करती, तो यह धर्मयुद्ध नहीं, प्रतिशोध बन जाता। और यदि मैं युद्ध करता, तो यह इश्वर का अन्याय कहलाता।”
द्रौपदी मौन हुई।
कृष्ण मुस्कराए। उन्होंने कहा ,“ जो स्वयं को जीत ले, वही सच्चा योद्धा होता है। और जो सबको जीत कर भी स्वयं को न हारे, वही भगवान कहलाता है।”
युद्ध समाप्त हो चुका था। कुरुक्षेत्र रक्त से लाल था, परंतु अब वहाँ शांति थी एक भयानक शून्य की शांति।
अर्जुन, थके हुए मन से श्रीकृष्ण से बोले ,“माधव, आपने सबसे बड़ी भूमिका निभाई। फिर भी कोई आपको दस महारथियों में नहीं गिनता। क्यों?”
श्रीकृष्ण ने मुस्कराते हुए कहा: “ जो दीपक जलाता है, वह स्वयं प्रकाश नहीं मांगता। जो धर्म का रथ खींचे, वह यश का रथ नहीं चाहता। जो समय से परे हो, वह गणना में नहीं आता।
मैं उस ‘रण’ का रचयिता हूँ योद्धा नहीं। ”
महाभारत के दस महान योद्धाओं में श्रीकृष्ण का नाम इसलिए नहीं आता, क्योंकि वे रण में नहीं, रचना में थे। वे शस्त्र में नहीं, शांति में थे। वे योद्धा नहीं, धर्म के रथ के सारथी थे।
जो स्वयं को हटा ले युद्ध से, पर दूसरों को धर्म के पथ पर चला दे वह महायोद्धा नहीं, ‘युगपुरुष’ होता है। इसलिए कुरुक्षेत्र के रण में दस नाम भले ही चमकें, परंतु उन सभी के पीछे जो अदृश्य दीपक जल रहा था, वह केवल एक था श्रीकृष्ण।