श्रीविष्णुपुराण: सृष्टि की विविध धाराएँ और रचयिता ब्रह्मा का संघर्ष की गाथा

विनोद कुमार झा

नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम । देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत।।

ब्रह्मा द्वारा की गई प्रथम सृष्टियाँ अभी अधूरी थीं।
जिनमें केवल मूल तत्व और आंशिक जीव समूह उत्पन्न हुए थे।
अब आगे की सृष्टि मनुष्यों, प्रजापतियों और संसार के विविध वर्गों की रचना हेतु ब्रह्मा को और अधिक प्रयास करने पड़े।
यह अध्याय उस जटिल साधना, संकल्प और क्रमबद्ध सृजन को दर्शाता है, जिसमें ब्रह्मा स्वयं भी संशय, तप और पुनः प्रयास की प्रक्रियाओं से गुजरते हैं।

कथा आरम्भ : पराशर मुनि बोले हे मैत्रेय! ब्रह्मा ने रात्रि और दिवस के दो रूपों से पहले दैत्य और देवताओं की सृष्टि की थी।
फिर उन्होंने मनु और शतरूपा को उत्पन्न किया
जो सृष्टि के प्रारम्भिक मानव थे। इनसे आगे मानवों की वंश-परंपरा चली, परंतु यह सृष्टि भी संपूर्ण नहीं हो पा रही थी।
ब्रह्मा को ज्ञात हुआ कि केवल एक दंपत्ति से विस्तृत सृष्टि का कार्य पूरा न होगा।
ब्रह्मा का विचार और संशय : ब्रह्मा विचार करने लगे: अभी तक नारी और पुरुष के द्वारा संतति की वृत्ति उत्पन्न नहीं हो सकी है। अतः मुझे ऐसी सृष्टि करनी चाहिए जो संसार को संचालित कर सके। यह सोचकर उन्होंने आगे की विविध सृष्टियाँ रचना प्रारम्भ कीं।
1. मानसिक सृष्टि : ब्रह्मा ने अपने मानस से कुछ महान सत्त्व उत्पन्न किए इनमें से प्रमुख थे:- भृगु, पुलह , कृतु ,अत्रि, अंगिरा, वशिष्ठ, मरीचि ,दक्ष ,नारद। ये सभी ऋषि ब्रह्मा की मानसिक संतानों के रूप में जाने जाते हैं। इनका कार्य था धर्म की स्थापना, यज्ञ, ज्ञान और तप की मर्यादाओं को संसार में स्थापित करना।
2. कुमार सृष्टि : फिर ब्रह्मा ने कुमार उत्पन्न किए इनमें प्रमुख थे: सनक ,सनन्दन , सनातन , सनत्कुमार। ये सभी बालक रूप में ही तपस्या में प्रवृत्त हो गए। संसार में प्रवृत्ति मार्ग को अस्वीकार कर, इन्होंने निवृत्ति मार्ग (सन्यास और ब्रह्मज्ञान) को चुना। ब्रह्मा को दुःख हुआ कि ये कुमार सृष्टि में सहयोग नहीं दे रहे। परंतु उन्होंने इनकी स्वतंत्रता को स्वीकार किया।
3. रौद्र सृष्टि और रुद्र का जन्म : ब्रह्मा ने फिर रौद्र सृष्टि की रचना का विचार किया। तब उन्होंने अपने क्रोध से एक पुरुष को उत्पन्न किया जो अर्धनारीश्वर था अर्ध भाग स्त्री और अर्ध भाग पुरुष।
ब्रह्मा ने उस रूप से कहा"तुम दो भागों में विभक्त हो जाओ।"
वह रूप दो भागों में विभक्त हुआ और तब रुद्र का जन्म हुआ।
रुद्र से उपजे गण : रुद्र ने फिर क्रोध, ताप, भय, यम, रौद्रता, आदि भावों से युक्त गणों की उत्पत्ति की, जो अत्यंत उग्र और तामसिक प्रवृत्ति के थे।
ब्रह्मा ने उन्हें अधिक न उत्पन्न करने की आज्ञा दी और कहा
"हे रुद्र! तुम्हारा कार्य अगले प्रलय में होगा। अभी तुम्हें तप में प्रवृत्त होना चाहिए। रुद्र तपस्या में लीन हो गए।
4. अनुग्रह सृष्टि (पश्चाताप से उत्पन्न सृष्टि) : ब्रह्मा ने देखा कि उनकी सृष्टियाँ संतुलन से रहित हैं। या तो अधिक निवृत्ति है (जैसे कुमार), या अत्यधिक तामसिकता (जैसे रुद्र के गण)। संसार के स्थायित्व हेतु गृहस्थाश्रम और प्रजा-उत्पत्ति आवश्यक थी।
तब ब्रह्मा ने गहन तपस्या की और फिर दक्ष, मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, वशिष्ठ आदि प्रजापतियों को आदेश दिया
कि वे संतान उत्पत्ति करें और सृष्टि को आगे बढ़ाएँ।
5. स्त्री सृष्टि और प्रजापति विवाह : ब्रह्मा ने पंचजन्य स्त्रियों की उत्पत्ति की जो इस प्रकार है:- श्रद्धा ,भक्ति, कीर्ति , धृति और तुष्टि थीं। इनका विवाह प्रजापतियों से हुआ और उनसे विविध वंश उत्पन्न हुए।
इस प्रकार भृगु से शुक्र, अत्रि से चन्द्र ,वशिष्ठ से कुत्स और अन्य राजर्षि ,अंगिरा से अग्नि और बृहस्पति , पुलस्त्य से अगस्त्य और विश्व्रवा ,दक्ष से अनेकों कन्याएँ  और उनसे देव, असुर, नाग, गंधर्व, किन्नर, मानव आदि उत्पन्न हुए।
6. सृष्टि का संतुलन और विविधता : अब सृष्टि में विविध जातियाँ उत्पन्न हुईं। 
चार वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र।
चार आश्रम ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास।
तीन गुण सत्त्व, रजस, तमस।
और चार युग सत्य, त्रेता, द्वापर, कलि। इन सबका संतुलन ही सृष्टि का आधार बना।
हे मैत्रेय! यह जानो कि ब्रह्मा सृष्टिकर्ता हैं, पर वे भी भगवान विष्णु की प्रेरणा से ही कार्य करते हैं। और जब कोई कार्य अहंकार या वश में होकर किया जाता है,
तो उसमें असंतुलन होता है। परंतु जब उसे समर्पण और धर्म से किया जाए, तब वह संपूर्ण होता है।

इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽंशे पञ्चमोऽध्यायः।

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