लेखक : विनोद कुमार झा
(एक सच्ची तलाश अपने आप की)
कभी-कभी जीवन की आपाधापी में हम स्वयं को इस कदर खो देते हैं कि आईने में भी अपनी ही शक्ल अजनबी लगने लगती है। शहरों की भीड़ में इंसान भले ही नाम, शोहरत और पैसा कमा ले, पर कहीं न कहीं उसकी आत्मा एक कोने में बैठकर चुपचाप उसकी वापसी का इंतज़ार करती रहती है। यह कहानी है एक ऐसे इंसान की, जो उम्र, समाज और परिस्थितियों की सिलवटों में अपनी पहचान भूल गया और फिर जब पहचान बदली, तो उसके साथ ही बदल गया पूरा जीवन।
दिल्ली की सड़कों पर भागती हुई गाड़ियाँ, मोबाइल में झुके चेहरे और जीवन की अनगिनत चाहतों के पीछे भागते लोग। इन्हीं चेहरों में एक चेहरा था अभिराज गुप्ता। उम्र लगभग 42 साल, एक नामी कॉर्पोरेट कंपनी में एचआर हेड, एक सुंदर फ्लैट, कार, परिवार सब कुछ था। लेकिन एक चीज़ नहीं थी शांति।
सुबह 7 बजे की अलार्म घंटी से शुरू होता उसका दिन रात 11 बजे की कॉन्फ्रेंस कॉल तक चलता। पत्नी मीनल से बातचीत अब बस “खाना खा लिया?”, “बेटे का होमवर्क करवा देना” तक सीमित हो गई थी। बेटे ऋतिक की आँखों में वो अपनापन नहीं रहा जो एक पिता के लिए होता है।
वो अब अपने घर में किरायेदार की तरह रहने लगा था। दीवारों पर उसकी तस्वीरें तो थीं, पर उनमें भाव नहीं था।
घर में पत्नी मीनल, एक प्रतिभाशाली ग्राफिक डिज़ाइनर, जिसने करियर त्यागकर परिवार को चुना था, और बेटा ऋतिक, जो एक निजी स्कूल में आठवीं कक्षा में पढ़ता था।
परिवार साथ था, फिर भी अकेलापन हर कमरे में था। पति-पत्नी की बातचीत अब केवल "बिल भरना है", "बेटे को डॉक्टर ले जाना है" तक सीमित थी।
एक दिन ऑफिस से लौटते हुए रेड लाइट पर रुकी कार में रेडियो बज रहा था।
"आज की कविता: खोई हुई पहचान"
"मैं हूँ, पर जैसा था वैसा नहीं
भीड़ में हूँ, पर अकेला कहीं..."
अभिराज ने रेडियो बंद कर दिया। मन असहज हुआ।
रात को देर से घर लौटा। बाथरूम के शीशे में खुद को देखा तो लगा जैसे कोई और खड़ा हो। बाल झड़ने लगे थे, आँखों के नीचे काले घेरे, मुस्कान कहीं गुम।
अंदर से आवाज़ आई “क्या ये वही अभिराज है जो कभी कविता लिखता था?
“क्या तू वही है जो कॉलेज की मंच पर तालियों से सराबोर होता था?”
कॉलेज की डायरी निकाली। धुंधली स्याही में अब भी भावनाओं की नमी बाकी थी।
"एक नाम था, जो गूँजता था... अब बस एक पहचान है, जो खो गई है..."
अचानक ही मन हुआ "चलो गाँव चलते हैं।"
बेटे की छुट्टियाँ थीं, मीनल ने साथ चलने से मना कर दिया “इतना काम है, तुम्हीं जाओ।”
अभिराज अकेले गया। फतेहपुर उत्तर प्रदेश का एक पुराना गाँव, जहाँ बचपन बीता था। स्टेशन पर कदम रखते ही बचपन की खुशबू नथुनों में समा गई। वो मिट्टी, वो चाय की गंध, वो साँझ की आवाज़ें सब वैसी ही थीं।
माँ अब बूढ़ी हो गई थीं, पर चेहरे पर वही स्नेह। पिता अब नहीं थे। उनका कमरा खोलते ही एक पुरानी लकड़ी की अलमारी मिली। उसमें पड़ी थी वो डायरी जिसमें उन्होंने लिखा था ,"मेरे बेटे को मैं बड़ा अफसर बनाना चाहता हूँ, लेकिन डरता हूँ वो इंसान रह पाएगा या नहीं..."
ये पंक्तियाँ अंदर तक चीर गईं।
गाँव में चार दिन रुकना था। अभिराज हर दिन सुबह मंदिर जाता, नंदी बाबा को जल चढ़ाता। वहीं एक दिन बबिता चाची मिलीं “अब तू अफसर बन गया, गाँव कैसे याद आया?”
वो मुस्कुरा पड़ा “याद तो बहुत कुछ आता है, चाची। पर अब समझ भी आने लगा है।”
चौपाल पर बैठकर कुछ लड़कों से बातचीत की। उनमें से एक लड़का विनोद बोला “सर, गाँव में कंप्यूटर नहीं है। हम दिल्ली जाते हैं, पर पहचान खो जाती है।”वो पहचान शब्द बार-बार उसे झकझोरता।
रात को कुएँ के पास बैठा तो उसने महसूस किया ,"पहचान वो नहीं जो लोग बताते हैं, पहचान वो है जो हमारे भीतर पनपती है।"
दिल्ली लौटने के बाद अभिराज फिर ऑफिस गया। पर इस बार वो बदला हुआ था।
मीटिंग्स में वो केवल फाइल्स नहीं देखता, लोगों की आँखें पढ़ता। उसने कंपनी की CSR टीम से कहा “हमें गाँवों में स्किल डेवलपमेंट सेंटर खोलने चाहिए।”
बोर्ड ने आपत्ति जताई — “Return on Investment?”
अभिराज बोला ,“हर निवेश पैसे में नहीं होता। कुछ निवेश आत्मा में भी होते हैं।”
शुरुआत में विरोध मिला, लेकिन कंपनी के एक पुराने डायरेक्टर समीर मेहरा , जो कभी कॉलेज में उसका मित्र था, ने समर्थन दिया।
अब वह हर शनिवार शाम NGO जाकर बच्चों को कहानी सुनाता, कविताएँ पढ़वाता। एक बच्ची गुड़िया बोली, “अभी अंकल, आपकी कहानियाँ सुनकर नींद अच्छी आती है।”
अभिराज की आँखों में आंसू थे। अपने बेटे ऋतिक को कहानी सुनाए तो बरसों बीत चुके थे।
वह घर लौटा, बेटे के कमरे में गया और बोला ,“बेटा, आज कहानी सुनाऊँ?”
ऋतिक थोड़ा चौंका, फिर सिर हिला दिया।
“एक राजा था, जिसके पास सब कुछ था, पर वो दुखी था, क्योंकि उसने खुद को खो दिया था...”
मीनल कमरे के दरवाज़े से यह दृश्य देख रही थी। आँखें नम थीं।
एक दिन ऑफिस में CEO ने बुलाया ,“अभिराज, कंपनी में तुम्हारी भूमिका बदल रही है। हम तुम्हें हटा सकते हैं।”
वो शांत रहा। बोला ,“पहले डर लगता था, अब नहीं। क्योंकि अब मुझे पता है कि मैं कौन हूँ। मेरी पहचान अब मेरी आत्मा से जुड़ी है, आपकी पोज़ीशन से नहीं।”
उसने इस्तीफा दे दिया।
अभिराज ने “नई पहचान” नामक संस्था की नींव रखी जिसमें गाँवों के बच्चों को डिजिटल शिक्षा, करियर काउंसलिंग और रोजगार स्किल्स सिखाए जाते।
विनोद, वो गाँव का लड़का, अब संस्था का ब्रांड एम्बेसडर बन गया। मीनल ने संस्था के लिए डिजाइनिंग का काम संभाल लिया। ऋतिक अब हर सप्ताह बच्चों को अंग्रेज़ी पढ़ाता।
समाज की नजरों में अभिराज अब “बड़ा अफसर” नहीं था, पर अपने परिवार, गाँव और खुद की नज़रों में वह अब ‘पूरा इंसान’ था।
एक दिन आईने के सामने खड़ा होकर अभिराज ने खुद से कहा ,“अब मैं वो नहीं जो दुनिया ने बनाया, अब मैं वो हूँ जिसे मैंने खुद चुना।”
मुस्कराते हुए आईने में देखा, पहली बार अपनी ही आँखों में खुद को पहचान लिया।
“पहचान कोई नाम, पद या पैसा नहीं होती। पहचान वो होती है जो आत्मा के आईने में मुस्कराए, जो रिश्तों में जीवंत हो, जो समाज में सार्थकता लाए। और जब एक इंसान अपनी पहचान ढूँढ़ लेता है, तो वह केवल स्वयं नहीं बदलता — वह पूरी एक पीढ़ी को दिशा दे सकता है।”
चमकती दुनिया, बुझता अंतर्मन**