कहानी: ## सपनों का छलावा प्रेम

विनोद कुमार झा

(नींद की नदी में बहता एक अजनबी नाम)

कभी-कभी जीवन के किसी सन्नाटे में एक ऐसी दस्तक होती है, जो न तो धरती की होती है, न ही आकाश की  वह होती है आत्मा की। ऐसी ही एक दस्तक थी वह सपना, जो हर रात आता था और चला जाता था, बिना कोई चेहरा दिए, बिना कोई नाम बताए। लेकिन फिर भी, वह सपना रूह को छू जाता था।

सिया को यह सपना पिछले छह महीनों से आ रहा था  एक झील, एक झोंपड़ी, एक अनदेखा चेहरा जिसकी आँखें इतनी अपनी लगतीं, मानो जन्मों का रिश्ता हो। हर बार वह वही बात कहता: "मैं इंतज़ार कर रहा हूँ..." और फिर नींद टूट जाती।

सिया, एक पढ़ी-लिखी आधुनिक युवती, दिल्ली की भीड़ और व्यस्तता में एक कॉर्पोरेट ऑफिस में कार्यरत थी। मगर उसके भीतर कहीं एक और दुनिया थी  कोमल, भावनात्मक और सपनों से सजी। और अब वह सपना उसकी रातों के साथ-साथ दिनों को भी खा रहा था। क्या यह कोई पूर्वजन्म की याद थी? क्या यह किसी आने वाले प्रेम की दस्तक थी? या फिर केवल मन का कोई भ्रम?

इस प्रश्न का उत्तर उसे तब मिला जब उसे एक अजनबी शहर की यात्रा पर भेजा गया नैनीताल वह वहां पहुंच कर वह नैनीताल की घुमावदार सड़कों से होकर उस रिसॉर्ट तक पहुंची, जहां उसे तीन दिन की ट्रेनिंग करनी थी। पहाड़ों की ठंडी हवा में कुछ अजीब-सी शांति थी  जैसे वर्षों से किसी की प्रतीक्षा कर रही हो।

पहली रात, जब वह होटल के कमरे में थी, उसने सपना फिर देखा। लेकिन इस बार कुछ बदला हुआ था।

उस झील के किनारे वही झोंपड़ी थी, मगर इस बार उस व्यक्ति ने उसकी ओर हाथ बढ़ाया और कहा,"अब आ ही गई हो, तो रुक जाओ..." तब तक उसकी आंखें खुल गईं। दिल जोर-जोर से धड़क रहा था। खिड़की से झील की झलक दिख रही थी  वही सपने वाली!

वह पूरी रात भर करवटें बदलती रही, और अगली सुबह वह खुद को उस सपने की झील तक खींच लाई। झील के किनारे टहलते हुए वह अचानक एक बूढ़े व्यक्ति से टकराई। वह तिब्बती मूल का लग रहा था, लंबे बाल, लहराती दाढ़ी और आंखों में अजीब सी चमक।

"आपको ढूँढने में समय लगा," वह मुस्कराया।

"मुझे?"

"हाँ... तुम्हारा सपना यहीं से निकला है।"

सिया चौंक गई। "आप... आप मेरे सपने के बारे में कैसे जानते हैं?" "जिसे तुम सपना समझ रही हो, वह तो इस धरती पर गूंज रही एक अधूरी कहानी है।"

उस व्यक्ति ने सिया को उस झोंपड़ी तक पहुंचाया  बिल्कुल वही, जो उसके सपनों में आती थी। टूटी-फूटी, किन्तु उसी आत्मीयता से भरी। 

झोपड़ी के भीतर एक पुरानी तस्वीर थी  जिसमें एक युवक और एक युवती साथ बैठे थे। युवक की आँखें वही थीं, जो उसके सपने में आती थीं।

"ये कौन है?" सिया ने काँपती आवाज़ में पूछा।

"यह वही है जो तुम्हें हर रात बुलाता है।"

उस वृद्ध ने सिया को एक कहानी सुनाई  लगभग 70 वर्ष पुरानी।

"उसका नाम अधिराज था, और वह एक लेखक था। झील के किनारे बैठकर कहानियां लिखा करता। एक दिन उसकी मुलाकात एक लड़की से हुई  आयरा। आयरा शहर से आई थी, तेज़-तर्रार और आज़ाद। मगर अधिराज में उसे एक स्थिरता मिली, एक अपनापन। दोनों ने एक साल साथ बिताया... और फिर आयरा चली गई, कभी वापस न आने के लिए।"

"लेकिन क्यों?"

"क्योंकि वह डर गई थी... अपने भविष्य से, समाज से।"

"फिर अधिराज?"

"वह उसे हर रात सपनों में खोजता रहा। और एक दिन इस झील में डूब गया। कहते हैं उसकी आत्मा आज भी किसी आयरा के लौटने की राह देखती है।"

"लेकिन इसका मुझसे क्या लेना-देना?"

"क्या तुमने अपने सपने में कभी अपना नाम सुना है?"

सिया कुछ बोल न सकी। एक नाम उसके मन में उभरा  आयरा!

सिया ने कुछ दिनों तक उस झील के किनारे समय बिताया, पुरानी डायरी पढ़ी, अधिराज की कविताएं देखीं  और हर पंक्ति जैसे उसे अपने भीतर खींच रही थी।

एक दिन, उसने वही पंक्तियाँ एक दीवार पर देखीं, जो उसने कभी खुद कॉलेज में लिखी थीं।

"मैं लौटूंगी, उसी झील के पास  जब पत्तों की सरसराहट मुझे पुकारेगी।"

क्या यह महज इत्तेफाक था? या वास्तव में वह आयरा का पुनर्जन्म थी?

उस रात सपना और गहरा था। अधिराज ने उसका हाथ थामा और कहा "अब मत छोड़ना। अब मैं टूट नहीं पाऊंगा..."और पहली बार सिया ने उसका नाम लिया  अधिराज!

सिया ने वृद्ध से पूछा, "क्या अधिराज की आत्मा आज भी भटक रही है?"

"हाँ... जब तक वह प्रेम पूरा न हो, वह मुक्त नहीं होगा।" तो मैं क्या करूं?" "उसे फिर से प्रेम दो। इस बार अधूरा मत छोड़ो।"

सिया ने निर्णय लिया वह अधिराज की कहानी को दुनिया के सामने लाएगी। उसने अपनी नौकरी छोड़ी, वही झोंपड़ी ली, और अधिराज की अधूरी पांडुलिपियों को एक किताब का रूप देने लगी।

धीरे-धीरे उसका लेखन प्रसिद्ध होने लगा। लोग उस झील की यात्रा करने लगे, और कहते हैं, एक रात उसने झील के पास किसी की परछाई देखी  अधिराज की। अब वह मुस्करा रहा था। आंखों में कोई इंतजार नहीं था, केवल शांति।

वर्षों बीत गए। सिया अब लेखिका बन चुकी थी, लेकिन उसने कभी शादी नहीं की। उसने जीवनभर उस प्रेम की साधना की जो अधिराज को मुक्त कर सका। जब वह वृद्ध हुई, एक दिन उसी झील के किनारे बैठी थी। आंखें बंद थीं, हाथ में अधिराज की अंतिम कविता थी :-

"तुम आई थी, जब समय थम गया था... अब मैं चल पड़ा हूं, जहां प्रेम अमर होता है..."लोग कहते हैं, उस रात झील से दो परछाइयाँ उठीं और आकाश में विलीन हो गईं।

प्रेम, जो एक सपना था, यथार्थ बनकर लौटा। जन्मों की व्यथा अंततः पूर्ण हुई। सिया और अधिराज की कहानी यह बताती है कि आत्मा कभी नहीं भूलती  न प्रेम, न पीड़ा। और यदि प्रेम सच्चा हो, तो वह स्वप्नों से यथार्थ तक का पुल बन सकता है।

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