ब्राह्मण वेश में हनुमानजी को देख प्रभु श्रीराम गदगद क्यों हुए ?

विनोद कुमार झा

जब वाणी में वेदों की गंभीरता हो, बुद्धि में चातुर्य का प्रकाश हो और हृदय में निष्कलंक भक्ति हो  तब ईश्वर स्वयं उस आत्मा की ओर खिंचे चले आते हैं। यह कोई कल्पना नहीं, बल्कि वाल्मीकि रामायण और गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरितमानस दोनों में उल्लिखित वह मार्मिक प्रसंग है, जहाँ पहली बार भगवान श्रीराम और हनुमानजी का साक्षात्कार होता है  एक ब्राह्मण वेशधारी सेठी साधु के माध्यम से।

वनवास की तप्त धूप और सीता-वियोग की जलती पीड़ा के मध्य, जब श्रीराम और लक्ष्मण निष्कंप विश्वास के साथ दक्षिण की ओर बढ़ रहे थे, तब उनकी जीवन-यात्रा में एक ऐसा क्षण आया, जिसने उनके अभियान को नया मोड़ दे दिया। यह था ऋष्यमूक पर्वत पर ब्राह्मण वेश में आए उस परब्रह्मस्वरूप हनुमान का दर्शन, जिनकी वाणी में श्रद्धा थी, जिनकी बुद्धि में नीति थी, और जिनके हृदय में भक्ति का महासागर उमड़ रहा था।

वाल्मीकि रामायण में इस प्रसंग को अत्यंत सुंदर वर्णन के साथ प्रस्तुत किया गया है, जहाँ श्रीराम हनुमान की वाणी सुनकर लक्ष्मण से कहते हैं “न अनृत्तं, न च तीव्रं, न हीनं, न अतिशोभनम्  हनुमान की यह वाणी न तो असत्य है, न तीव्र है, न हीन है, और न ही अत्यधिक सजावटी। यह वाणी तो जैसे न्याय, नीति, वेद और विनय का सम्मिलित सार है। वहीं तुलसीदासजी ‘रामचरितमानस’ में इस दृश्य को एक अलग ही भक्ति-रस में डुबोते हैं। वहाँ हनुमान का यह पहला दर्शन रामभक्ति के उस बीज की तरह है, जो आगे चलकर लंका-दहन, संजीवनी-वहन, और राम नाम के अमरत्व तक विस्तार पाता है।

यह प्रसंग केवल एक दूत और राजा की भेंट नहीं है, यह उस दिव्य मिलन की शुरुआत है जहाँ भक्ति और भगवान पहली बार एक-दूसरे को गले लगाते हैं। यह वह क्षण है जहाँ ईश्वर को अपना सबसे प्रिय सेवक मिलता है, और सेवक को अपना सर्वस्व  श्रीराम। आइए, इस अलौकिक, भावप्रवण और आध्यात्मिक घटना को एक बार फिर ह्रदय में उतारें  वाणी के माधुर्य, बुद्धि के प्रकाश और भक्ति की पूर्ण समर्पण के इस विलक्षण संगम में…

ब्राह्मण वेश में हनुमानजी की श्रीराम से भेंट

वनवास का काल चल रहा था। सीता हरण के पश्चात श्रीराम और लक्ष्मण वन-वन भटकते हुए अपनी प्रियतमा जानकी की खोज में निस्सीम वनप्रदेशों को पार कर रहे थे। सूर्य तप रहा था, धरती सूखी थी, और दोनों राजपुत्र अपने लक्ष्य में द्रढ़, किन्तु पीड़ा से आकुल थे।

उसी समय ऋष्यमूक पर्वत पर स्थित सुग्रीव उन्हें दूर से आते देख भयभीत हो गया। वह सोचने लगा  “ये दो अत्यन्त तेजस्वी पुरुष कौन हैं? इनके शरीर से राजत्व झलक रहा है। धनुष-बाण इनके हाथों में हैं। कहीं बाली ने इन्हें मुझे मारने के लिये तो नहीं भेजा?”

सुग्रीव की शंका बढ़ी। उसने अपने परम विश्वासी और बुद्धिमान मंत्री हनुमानजी से कहा, “वत्स हनुमान! जाओ और इन दोनों पुरुषों का परिचय प्राप्त करो। पता लगाओ कि ये कौन हैं, क्यों आये हैं, और इनकी दृष्टि क्या संकेत कर रही है।”

हनुमानजी ने तुरंत आज्ञा स्वीकार की। लेकिन इस गूढ़ कार्य के लिये उन्होंने साधारण रूप से न जाकर एक ब्राह्मण का वेश धारण किया। सिर पर जटा, तन पर वल्कल वस्त्र, हाथ में दण्ड और कमण्डलु, मुख पर मृदु मुस्कान और वाणी में मधुरता लिए वे उन दो राजकुमारों के समीप पहुँचे।

हनुमानजी की वाणी का जादू 

हनुमानजी ने जैसे ही बोलना आरंभ किया, उनके शब्द मानो शहद में डूबे हुए प्रतीत हुए। वे बोले, “हे तपस्वियों! आप दोनों के नेत्रों में तेज है, मुख पर शांत भाव है। किंतु आप कोई साधारण मुनि नहीं प्रतीत होते। आपके कंधों पर जो धनुष है, वह युद्ध का प्रतीक है। कृपया बताएं, आप कौन हैं, और इस वन में किस प्रयोजन से आए हैं?”

उनकी वाणी में वेदों की गूंज थी, शास्त्रों की गंभीरता थी, और नीति का मधुर स्पर्श भी। उनके शब्दों की गहराई और माधुर्य ऐसा था मानो वे स्वयं ब्रह्मस्वरूप हों। श्रीराम ने उन्हें एक टक देखा और उनके प्रत्येक शब्द को हृदय में उतारते चले गये।

प्रभु श्रीराम की प्रतिक्रिया

हनुमान की वाणी सुनकर श्रीराम चकित रह गये। वे लक्ष्मण की ओर मुड़े और बोले, “भैया लक्ष्मण! इस ब्राह्मण के मुख से जो वाणी निकल रही है, वह कोई साधारण व्यक्ति नहीं बोल सकता। ऐसा भाषण वही कर सकता है जो *वेद, उपनिषद्, पुराण और न्याय शास्त्र* का मर्मज्ञ हो।

इसके शब्दों में ऐसा मंत्र है कि यदि शत्रु भी इसे सुने तो अपने हथियार त्याग दे। इसका स्वर नीतिज्ञ है, इसकी चाल सज्जनता से पूर्ण है।

मैं दावे से कह सकता हूँ कि जिस राजा के पास ऐसा दूत, ऐसा गुप्तचर हो, वह अवश्य ही विजय प्राप्त करेगा।”

रामजी का मन हनुमान की ओर आकृष्ट हो चुका था। उन्हें अपने सामने कोई साधारण ब्राह्मण नहीं, अपितु कोई अद्वितीय आत्मा प्रतीत हो रही थी।

हनुमानजी का आत्म-प्रकटन

श्रीराम की इतनी प्रशंसा सुनकर हनुमानजी का ह्रदय गद्गद हो गया। उनकी आंखों से अश्रु बहने लगे। वे अपने ब्राह्मण वेश को त्यागते हुए अपने वास्तविक रूप में आ गये।

उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर श्रीराम के चरणों में सिर नवाया और कहा, “प्रभु! मैं केसरीनंदन हनुमान हूँ। मैं सुग्रीव का मंत्री और आपका सेवक हूँ। आज मेरा जीवन धन्य हो गया कि मैंने आपके श्रीमुख से ऐसी अमृतवाणी सुनी। मैं आपके चरणों में शरणागत हूँ।"

हनुमान का यह समर्पण देख श्रीराम अत्यंत भावुक हो उठे। उन्होंने हनुमान को उठाया, उन्हें अपने वक्ष से लगा लिया और बोले,“हनुमान! तू केवल सेवक नहीं, तू तो मुझे प्राण से भी प्रिय है। आज तेरे रूप, तेरी वाणी और तेरे भाव ने मेरे मन को बाँध लिया है।“

प्रभु श्रीराम -हनुमान का प्रथम आलिंगन: भक्ति का जन्म

यही वह क्षण था जब राम और हनुमान का प्रथम आलिंगन हुआ। यह कोई साधारण आलिंगन नहीं था  यह भक्ति और भगवान के मिलन का आलिंगन था। इसमें ना कोई शंका थी, ना कोई प्रश्न, केवल निःशर्त समर्पण था।

हनुमानजी उसी क्षण से श्रीराम के अनन्य भक्त बन गये और जीवनपर्यंत उनकी सेवा में समर्पित हो गये। श्रीराम ने उन्हें सीता की खोज का दायित्व सौंपा, और तब प्रारंभ हुआ हनुमान के जीवन का वह अविस्मरणीय अध्याय जिसने उन्हें रामभक्ति का अमर प्रतीक बना दिया।

इस प्रसंग की आध्यात्मिक महत्ता

1. बुद्धि का प्रयोग : हनुमानजी का ब्राह्मण वेश यह दर्शाता है कि कार्य को परिस्थिति के अनुसार बुद्धिपूर्वक करना चाहिए।

2. वाणी का प्रभाव : केवल शारीरिक बल नहीं, वाणी का संयम और ज्ञान से परिपूर्ण संवाद भी लोगों को जीत सकता है।

3. समर्पण की शक्ति : जब हनुमानजी ने अपने ज्ञान और रूप को त्याग कर रामचरणों में समर्पण किया, तभी उन्हें वास्तविक कृपा प्राप्त हुई।

4. ईश्वर की दृष्टि : भगवान केवल शरीर नहीं, वाणी, भाव और आत्मा की शुद्धता को देखते हैं।


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