असमानता की बढ़ती खाई : आर्थिक विकास का असली सवाल

विश्व बैंक की हालिया "गरीबी और समानता रिपोर्ट" ने भारत में आर्थिक प्रगति के एक जटिल और बहुपरतीय चित्र को प्रस्तुत किया है। रिपोर्ट में यह स्वीकार किया गया है कि भारत ने अत्यधिक गरीबी को घटाने में उल्लेखनीय सफलता प्राप्त की है  2011-12 के 16.2 प्रतिशत से घटकर 2022-23 में 2.3 प्रतिशत तक आना वास्तव में एक बड़ी उपलब्धि है। यह भारत के उदारीकरण की नीतियों, सामाजिक सुरक्षा जालों और दशकों की योजनाबद्ध विकास प्रक्रियाओं का परिणाम है। इसमें विशेष रूप से 2004-14 के दौरान डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार द्वारा प्रारंभ की गई पहलों जैसे महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (NFSA) की महती भूमिका रही है।  

किन्तु इस सकारात्मक प्रगति के पीछे एक गहरी चिंता भी छुपी हुई है  असमानता का निरंतर चौड़ा होता फासला। कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश के वक्तव्यों के अनुसार, भारत की आर्थिक वृद्धि अब एक ऐसी प्रकृति ग्रहण कर चुकी है जिसमें आय और संपत्ति का केंद्रीकरण कुछ वर्गों में अत्यधिक हो गया है। विश्व बैंक की रिपोर्ट भी इस संकेत को मजबूत करती है कि शीर्ष 10 प्रतिशत की औसत आय निचले 10 प्रतिशत की तुलना में 13 गुना अधिक है।  

यह स्थिति न केवल सामाजिक अन्याय को जन्म देती है, बल्कि भविष्य के विकास के लिए भी गंभीर चुनौतियां खड़ी करती है। असमानता बढ़ने का अर्थ है कि विकास का लाभ सीमित वर्गों तक सिमट जाएगा, जिससे बहुसंख्यक जनसंख्या के बीच असंतोष, सामाजिक तनाव और आर्थिक गतिशीलता में बाधा उत्पन्न होगी।  यह भी विचारणीय है कि गरीबी मापने के लिए प्रयुक्त मानदंडों का अंतर किस प्रकार एक भ्रामक तस्वीर प्रस्तुत कर सकता है। यदि हम निम्न मध्यम आय वाले देशों के उपयुक्त मानक  प्रतिदिन 3.65 डॉलर आय को आधार मानें, तो भारत की गरीबी दर आज भी 28.1 प्रतिशत के आसपास है। यह आंकड़ा सरकार और समाज दोनों के लिए आत्मनिरीक्षण का कारण होना चाहिए।  

इस संदर्भ में कांग्रेस का जीएसटी सुधार, कॉरपोरेट पक्षपात पर अंकुश और आय सहायता कार्यक्रमों के विस्तार का आह्वान अत्यंत सामयिक प्रतीत होता है। जीएसटी की वर्तमान संरचना छोटे कारोबारियों और निम्न आय वर्ग पर अपेक्षाकृत भारी बोझ डालती है, जबकि बड़े कॉरपोरेट घरानों को अनेक सुविधाएं प्राप्त हैं। इसी प्रकार, सरकारी नीतियों का झुकाव यदि केवल धनी वर्गों के पक्ष में रहेगा तो आर्थिक असंतुलन और गहराएगा।  

प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना जैसी योजनाएं निश्चित रूप से राहत प्रदान करती हैं, लेकिन असमानता को मिटाने के लिए दीर्घकालिक संरचनात्मक सुधारों की आवश्यकता है। आय वितरण की न्यायसंगत नीतियां, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं तक समान पहुँच, तथा ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में रोजगार सृजन को नई दिशा देना अनिवार्य हो चुका है।  यह समय है जब भारत को केवल आंकड़ों में गरीबी उन्मूलन से आगे बढ़कर वास्तविक समानता और समावेशी विकास की ओर कदम बढ़ाना चाहिए। विकास का मूल्यांकन केवल जीडीपी की दर से नहीं, बल्कि इस बात से होना चाहिए कि समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े व्यक्ति तक इसका लाभ किस हद तक पहुँच रहा है।  

देश को चाहिए कि वह अपने विकास मॉडल को पुनर्समीक्षा करे एक ऐसा मॉडल जो न केवल अमीरी बढ़ाए, बल्कि समानता, न्याय और गरिमा का भी संरक्षण करे। अन्यथा, आर्थिक प्रगति के चमकते आँकड़े सामाजिक असंतोष के अंधेरे में डूब सकते हैं।  

Post a Comment

Previous Post Next Post