स्वर्ग से भी सुंदर शाल्मली द्वीप

विनोद कुमार झा

बहुत प्राचीन समय की बात है। वह समय जब पृथ्वी केवल धरती नहीं थी, अपितु स्वयं एक जीवंत देवी थी  विशाल, करुणामयी और रहस्यों से भरी हुई। सप्तद्वीपों में विभक्त इस धरा पर एक विशेष द्वीप था शाल्मली द्वीप जो अपनी दिव्यता और अनुपम सौंदर्य के कारण स्वयं देवताओं के भी आकर्षण का केंद्र था।

 शाल्मली द्वीप का अद्भुत स्वरूप : शाल्मली द्वीप पर एक महान्, अतुलनीय वृक्ष था  शाल्मली वृक्ष।  यह वृक्ष कोई साधारण वृक्ष नहीं था। उसकी शाखाएँ नभ को छूती थीं। उसकी जड़ें पृथ्वी के नाभि में गहरे धँसी थीं। उसके फूल इतने विशाल और रक्तिम थे कि दूर से देखने पर ऐसा प्रतीत होता था मानो स्वयं अग्नि की ज्वालाएँ आकाश में नृत्य कर रही हों।

इस वृक्ष के चारों ओर जीवन गूँजता था। हवा उसकी शाखाओं से होकर संगीत बजाती थी। मधुर गंध से सारा द्वीप सुवासित रहता था। श्वेत गगनचुंबी मणिमय मंदिर, स्वर्णसरिताएँ, चाँदी के पर्वत और नीलाभ जलप्रपात सब कुछ मानो इस दिव्य वृक्ष की छाया में चिरसुख भोगते थे। यहाँ न कोई मृत्यु थी, न रोग। न कोई शोक, न कोई द्वेष। केवल प्रेम, आनंद और प्रकाश का साम्राज्य था।

शाल्मली द्वीप पर अद्भुत जीव निवास करते थे  गंधर्व, जो मधुर संगीत गाते थे।  किन्नर, जो सुंदर नृत्य करते थे।  अप्सराएँ, जिनकी मुस्कान से फूल खिल जाते थे।  ऋषि और मुनि, जो ध्यानस्थ रहते थे। और अनेक दिव्य पक्षी, जिनके पंखों में सूर्य और चंद्रमा के रंग झिलमिलाते थे।

ये सभी प्राणी शाल्मली वृक्ष के नीचे एकत्र होते और ईश्वर की आराधना करते। वृक्ष के भीतर से ऐसी कंपनियाँ निकलतीं जो साधकों को समाधि की स्थिति में पहुँचा देतीं। किंवदंती है कि यह वृक्ष स्वयं भगवान विष्णु के तेज से उत्पन्न हुआ था। जब भगवान ने जगत के पालन हेतु क्षीरसागर में विश्राम किया था, तब उनके हृदय से एक दिव्य किरण फूटी थी, जो धरती पर गिरकर शाल्मली वृक्ष के रूप में विकसित हुई।

शाल्मली वृक्ष में तीनों लोकों के तत्त्व समाहित थे :  भूमि का स्थैर्य,   जल का मधुर प्रवाह,   अग्नि का तेज,  वायु का स्पंदन  और आकाश का विस्तार।

जो भी साधक इस वृक्ष की छाया में ध्यान करता, वह भौतिक सीमाओं से परे जाकर ब्रह्मलोक की झलक प्राप्त करता। ऐसा माना जाता था कि शाल्मली वृक्ष के फूलों से निकली सुवास सीधे स्वर्ग तक पहुँचती थी, और देवता भी उस गंध से मोहित होकर नीचे उतर आते थे।

शाल्मली द्वीप पर पहला संकट, परंतु समय शाश्वत नहीं है।  एक बार, जब पृथ्वी पर अधर्म बढ़ने लगा, तो उसकी छाया शाल्मली द्वीप तक पहुँच गई। द्वीप के कुछ वासी घमंड और लोभ में पड़ गए। उनकी पवित्रता में दरार आने लगी। वृक्ष ने यह सब अनुभव किया और उसकी ऊर्जा मंद पड़ने लगी। तब स्वयं शाल्मली वृक्ष ने एक निर्णय लिया। उसने अपनी कुछ शाखाओं को स्वेच्छा से गिरा दिया, ताकि उनका भार पृथ्वी को फिर से संतुलित कर सके। उन गिरी हुई शाखाओं से अनेक पवित्र नदियाँ, वनों और छोटे द्वीपों का जन्म हुआ। 

इस घटना के बाद शाल्मली वृक्ष ने स्वयं को बाह्य संपर्क से छुपा लिया। केवल अत्यंत तपस्वी, जो संपूर्ण अहंकार त्याग चुके हों, वही उसकी वास्तविक दिव्यता का दर्शन कर सकते थे।

आज भी कुछ ऋषियों का मानना है कि शाल्मली द्वीप किसी सूक्ष्म आयाम में विद्यमान है।  जो साधक पूर्ण तपस्या से अपनी चेतना को ऊर्ध्वगामी कर लेता है, वह ध्यान में उस द्वीप के दर्शन कर सकता है।  शाल्मली वृक्ष के दर्शन करना अर्थात् स्वयं ब्रह्म का स्पर्श करना।  इस वृक्ष की छाया में बैठकर एक क्षण का ध्यान करना, सौ जन्मों के पुण्य के बराबर फल देता है।

कुछ किंवदंतियाँ यह भी कहती हैं कि समय के अंतिम क्षणों में, जब सृष्टि का संहार आरंभ होगा, शाल्मली वृक्ष से ही एक नई सृष्टि का बीज फूटेगा।

शाल्मली वृक्ष केवल एक वृक्ष नहीं था, वह स्वयं एक जीवंत चेतना थी प्रेम, पवित्रता और संतुलन की प्रतीक।  

शाल्मली द्वीप केवल एक द्वीप नहीं था, वह एक आदर्श था  जहाँ जीवन और आध्यात्मिकता का पूर्णतम समन्वय था।

जो भी इस कथा को श्रवण करता है और हृदय से स्मरण करता है, ऐसा माना जाता है कि उसके भीतर भी शाल्मली वृक्ष का एक छोटा अंकुर प्रस्फुटित होता है — जो प्रेम, शांति और दिव्यता के पुष्प कभी मुरझाने नहीं देता।

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