विनोद kumar झा
"जीवन में परिस्थितियां चाहे कैसी भी हों, धर्म और कर्तव्य का पालन सर्वोच्च है। वाल्मीकि रामायण श्रीराम को कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति के रूप में दिखाती है, जबकि तुलसीदास उन्हें आदर्श पुत्र के रूप में प्रस्तुत किए हैं। "
वाल्मीकि रामायण और तुलसीदास कृत रामचरितमानस में श्रीराम के वनवास का विभिन्न कथाएं हैं जो अनसुनी नहीं प्रचलित भी है जो इस प्रकार है। श्रीराम के वनवास की कथा भारतीय इतिहास और संस्कृति में गहरी छाप छोड़ती है। लेकिन इसे प्रस्तुत करने के तरीके में वाल्मीकि रामायण और तुलसीदास कृत रामचरितमानस में महत्वपूर्ण भिन्नताएं हैं। दोनों काव्य ग्रंथों में इस घटना के केंद्र में माता केकयी, महाराज दशरथ और भगवान श्रीराम की भूमिका को भिन्न दृष्टिकोण से चित्रित किया गया है।
वाल्मीकि रामायण के अनुसार, भगवान श्रीराम स्वयं माता केकयी के पास जाकर उन्हें वनवास जाने का प्रस्ताव दिए थे। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम यह जानते थे कि महाराज दशरथ अपने वचनों के प्रति प्रतिबद्ध हैं और माता केकयी द्वारा मांगे गए वरदान को ठुकरा नहीं सकते। केकयी ने पहले ही महाराज दशरथ से अपने दो वरदान मांग लिए थे जो वरदान इस प्रकार है :-
1. भरत को अयोध्या का राजा बनाना।
2. श्रीराम को 14 वर्षों के लिए वनवास भेजना।
इन वरदानों से महाराज दशरथ अत्यधिक दुःखी थे और उन्होंने इन्हें पूरा करने से इनकार कर दिया। श्रीराम ने यह स्थिति देखकर स्वयं माता केकयी से कहा कि वे वनवास के लिए तैयार हैं। उन्होंने यह भी प्रस्ताव रखा कि भरत को अयोध्या का राजा बनाया जाए। राम ने अपने माता-पिता और राज्य के प्रति अपने कर्तव्य को सर्वोपरि रखा।
वाल्मीकि रामायण में माता केकयी की भूमिका नकारात्मक दिखाने के बजाय नियति को पूर्ण करने वाली मानी गई है।
तुलसीदास कृत रामचरितमानस का वर्णन
रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने इस कथा को एक अलग शैली में प्रस्तुत किया। इस ग्रंथ में माता केकयी को प्रमुख रूप से दोषी दिखाया गया है। उनकी मनोवृत्ति में परिवर्तन करने में उनकी दासी मंथरा की प्रमुख भूमिका मानी गई है। मंथरा ने केकयी के मन में यह विचार भरा कि यदि राम राजा बन गए तो भरत को राज्य से दूर कर दिया जाएगा। इस भय से प्रेरित होकर केकयी ने अपने वरदान मांग लिए।
गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरितमानस में वर्णित कथा के अनुसार, श्रीराम ने केकयी के आदेश को बिना किसी प्रश्न के स्वीकार कर लिया। उन्होंने इसे अपनी नियति और धर्म के रूप में स्वीकार किया। राम ने इस घटना को भगवान की इच्छा मानकर वनवास जाने का निर्णय लिया।
मुख्य अंतर
1. वाल्मीकि रामायण: इसमें श्रीराम अधिक सक्रिय भूमिका में दिखाए गए हैं। वे स्वयं वनवास जाने का प्रस्ताव रखते हैं और भरत के राजा बनने का समर्थन करते हैं।
2. रामचरितमानस: इसमें केकयी की भूमिका अधिक नकारात्मक रूप में चित्रित है। श्रीराम यहां आदर्श पुत्र के रूप में बिना किसी विरोध के वनवास को स्वीकार करते हैं।
समानताएं : दोनों कथाओं में भगवान श्रीराम की सहनशीलता, माता-पिता के प्रति सम्मान और धर्म के पालन की भावना समान रूप से उभरकर आती है। उनके वनवास को केवल एक व्यक्तिगत त्याग नहीं, बल्कि विश्व कल्याण के लिए एक आवश्यक घटना के रूप में देखा गया है।
इस कथा का दोनों रूपों में अध्ययन यह समझने में सहायक होता है कि एक ही घटना को विभिन्न दृष्टिकोणों से कैसे देखा जा सकता है, और प्रत्येक दृष्टिकोण से हमें जीवन की नई शिक्षा प्राप्त होती है।