भगवान शिव ने कासी क्यों छोड़ी?

विनोद kumar झा

"काशी केवल एक शहर नहीं , बल्कि यह एक ऐसा स्थान है जहां सांसारिक बंधनों से परेशान व्यक्ति आत्मज्ञान और मुक्ति प्राप्त कर सकता है। काशी की महिमा केवल भौतिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक है।"

भगवान शिव और काशी की कथा एक अद्भुत कहानी है, जो इस प्राचीन शहर की आध्यात्मिक महिमा और शक्ति को दर्शाती है। कहानी की शुरुआत तब होती है जब देवताओं ने दिवोदास नामक राजा को काशी का प्रबंधन सौंपा। लेकिन राजा ने एक शर्त रखी—“अगर मैं काशी का राजा बनूं, तो भगवान शिव को इसे छोड़ना होगा, क्योंकि उनके रहते लोग उनकी पूजा करेंगे, न कि मेरे शासन को मानेंगे।” आइए जानते हैं विस्तार से :-

शिव पुराण में वर्णित कथा के अनुसार भगवान शिव ने कुछ राजनैतिक कारणों से काशी छोड़ी। देवताओं को डर था कि अगर काशी का प्रबंधन अच्छी तरह न किया गया तो ये अपनी विशेषतायें खो देगी यह और उन्होंने दिवोदास को वहाँ राजा बनने के लिये कहा। पर उन्होंने एक शर्त रखी, "अगर मुझे राजा बनना है तो शिव को यहाँ से जाना होगा क्योंकि उनके यहाँ रहते हुए मैं राजा नहीं बन सकता। लोग उन्हीं के आसपास इकट्ठा होंगे।” तो, शिव और पार्वती काशी छोड़ कर मंदार पर्वत पर चले गये। पर वे वहाँ रहना नहीं चाहते थे। वे काशी आना चाहते थे। उन्होंने पहले अपने संदेशवाहक भेजे। वे लोग वहाँ गये और उनको शहर इतना पसंद आया कि वे वापस ही नहीं गये।

तब शिवजी ने स्वर्ग की 64 सुन्दर अप्सराओं को कहा, "काशी जाओ और कुछ भी कर के राजा को बिगाड़ दो। जैसे ही हम उसकी कोई गलती ढूँढ लेंगे तो हम उसे बाहर भेज देंगे और मैं वापस आ जाऊँगा"। तो वे अप्सराएँ आईं और चारों ओर फैल गयीं जिससे समाज को बिगाड़ा जा सके। पर उन्हें भी यह शहर इतना पसंद आया कि वे अपना मकसद भूल गयीं और वहीं रहने लगीं।

तब भगवान शिव शंकर ने सूर्यदेव को भेजा। वे भी आये - काशी में सारे आदित्य मंदिर उन्हीं के लिये हैं - उन्हें ये नगर इतना भाया कि वे भी वापस नहीं गये। सूर्यदेव को अपने आप पर बहुत शर्मिंदगी हुई और उन्हें डर भी लगा कि इस नगर के लिये उनका प्यार इस मिशन के लिये उनकी प्रतिबद्धता से ज्यादा हो जाने की वजह से उन्होंने शिव का काम नहीं किया था। तो वे दक्षिण की ओर मुड़ गये, एक तरफ़ झुक गये और वहीं रह गये।

फिर भगवान भोलेनाथ ने ब्रह्मा को भेजा। उन्हें भी काशी इतनी प्यारी लगी कि वे भी वापस नहीं गये। तब शिव ने सोचा, "मैं अब इन सब लोगों पर विश्वास नहीं कर सकता" और उन्होंने अपने सबसे विश्वसनीय गणों में से दो को भेजा। वे दोनों आये - वे शिव को नहीं भूल सके क्योंकि वे शिव के ही गण थे - पर उन्हें ये स्थान बहुत ज्यादा पसंद आया और उन्होंने सोचा, "यह तो ऐसी जगह है जहाँ शिव को रहना चाहिये, उस मंदार पर्वत पर नहीं"। और फिर वे उस शहर के द्वारपालक बन गये।

तब शिवजी ने दो और अपने गणों को काशी भेजा। लेकिन काशी की अलौकिक सुंदरता और आध्यात्मिक आकर्षण ने हर किसी को वहां रहने के लिए मजबूर कर दिया। गणेश जी और एक अन्य जिन्होंने आकर शहर को संभाल लिया। उन्होंने शहर को तैयार करने और उसकी रक्षा करने का काम ले लिया और सोचा, "वैसे भी अब शिव यहीं आने वाले हैं हमारा वहाँ वापस जाने का क्या काम"! फिर दिवोदास को मुक्ति का लालच दिया गया। वे और किसी लालच में नहीं फँसे थे पर मुक्ति के लालच में आ गये, और उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया। तब शिव वापस आये।

यह कथा हमें बताती है कि काशी केवल एक शहर नहीं है, बल्कि यह एक ऐसा स्थान है जहां सांसारिक बंधनों से परे जाकर व्यक्ति आत्मज्ञान और मुक्ति प्राप्त कर सकता है। इस कहानी से यह समझ आता है कि काशी की महिमा केवल भौतिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक है।

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