गया में पितरों को क्यों करते हैं पिंडदान, आइए जानते हैं...

विनोद kumar झा


धार्मिक मान्यताओं के अनुसार गया पितरों की आत्मशांति के पवित्र तीर्थ स्थल है। यह स्थान बिहार में स्थित है , यह स्थान हिन्दू धर्म में पिंडदान के लिए प्रसिद्ध है। हर साल यहां देश विदेश से लाखों श्रद्धालु आते हैं ताकि अपने पूर्वजों की आत्माओं की शांति के लिए पिंडदान कर सकें। पिंडदान की परंपरा हिन्दू धर्मग्रंथों में विशेष स्थान रखती है, और इसका उद्देश्य पितरों की आत्मा को मोक्ष दिलाना है।

विष्णुपुराण और गरुड़पुराण में वर्णित है कथा के अनुसार, गया नामक एक असुर था, जिसने कठोर तपस्या कर भगवान विष्णु से वरदान प्राप्त किया था। भगवान विष्णु ने गयासुर से वरदान स्वरूप उसका शरीर मांगा। गयासुर ने अपने तप के फलस्वरूप प्राप्त शक्ति के बावजूद भगवान विष्णु के सामने आत्मसमर्पण करते हुए अपना शरीर दान कर दिया। गयासुर के त्याग और समर्पण से प्रभावित होकर भगवान विष्णु ने उसे आशीर्वाद दिया कि जहां उसने शरीर का दान किया, वह स्थान पवित्र हो जाएगा। वहां पर जो भी व्यक्ति अपने पितरों के लिए पिंडदान करेगा, उनके पितर मोक्ष प्राप्त करेंगे और स्वर्ग लोक में स्थान पाएंगे। जो परंपरा आज भी प्रचलित है।

पिंडदान का महत्व: हिन्दू धर्म में माना जाता है कि मृत्यु के बाद आत्मा को शांति और मुक्ति के लिए पिंडदान आवश्यक है। गया में किया गया पिंडदान पितरों की आत्माओं को पितृलोक से मुक्त कर उन्हें मोक्ष प्रदान करता है। शास्त्रों के अनुसार, पितरों की आत्मा अगर प्रेत योनि में अटकी हो, तो पिंडदान उन्हें उस स्थिति से मुक्त कर मोक्ष का मार्ग दिखाता है।

गया तीर्थ की कथा : ब्रह्माजी जब सृष्टि की रचना कर रहे थे, उस समय उनसे असुर कुल में गया नामक असुर की रचना हो गई। गया असुरों की संतान रूप में पैदा नहीं हुआ था, इसलिए उसमें आसुरी प्रवृति नहीं थी। वह सभी देवताओं का सम्मान और आराधना करता था। उसके मन में एक बात खटक रही थी। वह सोचा करता था कि भले ही मेरा स्वभाव संत प्रवृति का है लेकिन असुर कुल में पैदा होने के कारण उसे कभी सम्मान नहीं मिल पायेगा। इसलिए क्यों न अच्छे कर्मो से इतना पुण्य अर्जित किया जाए ताकि उसे स्वर्ग प्राप्ति हो। गयासुर ने कठोर तप करके भगवान श्री विष्णुजी को प्रसन्न किया। भगवान ने गयासुर वरदान मांगने को कहा तो गयासुर ने मांगा। भगवन आप मेरे शरीर में वास करें, जो मुझे देखे तो उसके सारे पाप नष्ट हो जाएं। वह जीव पुण्यात्मा हो जाए और उसे स्वर्ग में भी स्थान मिले।

भगवान श्री हरी से वरदान पाकर गयासुर घूम-घूमकर लोगों के पाप दूर करने लगा। जो भी उसे देख लेता उसके सभी पाप नष्ट हो जाते और स्वर्ग का अधिकारी हो जाता। गयासुर के इस कर्म से यमराज की व्यवस्था गड़बड़ा गई, कोई भी घोर पापी गयासुर के दर्शन कर लेता तो उसके सभी पाप नष्ट हो जाते। यमराज उसके कर्मो के अनुसार उसे नर्क भेजने की तैयारी करते तो वह गयासुर के दर्शन के प्रभाव से स्वर्ग मांगने लगता। धर्मराज को कर्मो का हिसाब रखने में संकट हो गया था। यमराज ने ब्रह्माजी से कहा कि अगर गयासुर को अभी न रोका गया तो आपका वह विधान समाप्त हो जाएगा जिसमें आपने सभी को उनके कर्मो के अनुसार फल भोगने की व्यवस्था दी है। पापी भी गयासुर के प्रभाव से स्वर्ग भोगने लगते है।

ब्रह्माजी ने उसी समय उपाय निकाला, उन्होंने गयासुर से कहा कि तुम्हारा शरीर सबसे अधिक पवित्र है इसलिए मैं तुम्हारी पीठ पर बैठकर सभी देवताओं के साथ यज्ञ करुंगा। उसकी पीठ पर यज्ञ होगा यह सुनकर गयासुर सहर्ष तैयार हो गया। ब्रह्माजी सभी देवताओं के साथ एक पत्थर से गयासुर को दबाकर बैठ गए। इतने भार के बावजूद भी वह अचल नहीं हुआ और वह घूमने-फिरने में फिर भी समर्थ था। देवताओं को चिंता हुई, उन्होंने आपस में सलाह की कि इसे भगवान श्री विष्णु ने वरदान दिया है इसलिए अगर स्वयं श्री हरि भी देवताओं के साथ बैठ जाएं तो गयासुर अचल हो जाएगा। तब श्री हरि भी उसके शरीर पर आकर बैठ गये।

भगवान श्री विष्णु जी को भी सभी देवताओं के साथ अपने शरीर पर बैठा देखकर गयासुर ने कहा- आप सब देवता और मेरे आराध्य श्री हरि की मर्यादा के लिए अब मैं अचल हो रहा हूं, सभी जगह घूम-घूमकर लोगों के पाप हरने का कार्य बंद कर दूंगा। लेकिन मुझे श्री हरि का आशीर्वाद है इसलिए वह व्यर्थ नहीं जा सकता इसलिए श्री हरि आप मुझे पत्थर की शिला बना दें और यहीं स्थापित कर दें। भगवान श्री हरि उसकी इस भावना से बड़े खुश हुए, उन्होंने गयासुर से कहा अगर तुम्हारी कोई और इच्छा हो तो मुझसे वरदान के रूप में मांग लो।

गयासुर ने कहा- ” हे नारायण मेरी इच्छा है कि आप सभी देवताओं के साथ अप्रत्यक्ष रूप से इसी शिला पर विराजमान रहें और यह स्थान मृत्यु के बाद किए जाने वाले धार्मिक अनुष्ठानों के लिए तीर्थस्थल बन जाए।” भगवान श्री विष्णु ने कहा- गया तुम धन्य हो, तुमने जीवित अवस्था में भी लोगों के कल्याण का वरदान मांगा और मृत्यु के बाद भी मृत आत्माओं के कल्याण के लिए वरदान मांग रहे हो। तुम्हारी इस कल्याणकारी भावना से हम सब बंध गए हैं।

तब भगवान श्री हरि ने आशीर्वाद दिया कि जहां गया स्थापित हुआ वहां पितरों के श्राद्ध-तर्पण आदि करने से मृत आत्माओं को पीड़ा से मुक्ति मिलेगी। और इस क्षेत्र का नाम गयासुर के अर्धभाग गया नाम से तीर्थ रूप में विख्यात होगा। मैं स्वयं यहां विराजमान रहूंगा। गया तीर्थ से समस्त मानव जाति का कल्याण होगा। और साथ ही वहा भगवान “श्री विष्णुजी ने अपने पैर का निशान स्थापित किया जो आज भी वहा के मंदिर मे स्थित हे। गया विधि के अनुसार श्राद्ध फल्गू नदी के तट पर विष्णु पद मंदिर में व अक्षयवट के नीचे किया जाता है। वह स्थान बिहार के गया में हुआ जहां श्राद्ध आदि करने से पितरों का कल्याण होता है।

पिंडदान की शुरुआत कब और किसने की

यह उतना ही कठिन है जितना कि भारतीय धर्म-संस्कृति के उद्भव की कोई तिथि निश्चित करना। गया के स्थानीय पंडों का कहना है कि सर्व प्रथम सतयुग में ब्रह्माजी ने पिंडदान किया था। महाभारत के ‘वन पर्व’ में भीष्म पितामह और पांडवों की गया-यात्रा का उल्लेख मिलता है। श्रीराम ने महाराजा दशरथ का पिण्ड दान गया में किया था। गया के पंडों के पास जो साक्ष्य है उनसे स्पष्ट है कि मौर्य और गुप्त राजाओं से लेकर कुमारिल भट्ट, चाणक्य, रामकृष्ण परमहंस और चैतन्य महाप्रभु जैसे महापुरुषों का भी गया में ही पिंडदान करने का प्रमाण मिलता है। गया में फल्गू नदी प्रायः सूखी रहती है। इसके संदर्भ में भी एक कथा प्रचलित है।

मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम अपनी पत्नी जनक नंदनी सीताजी के साथ पिता दशरथ का श्राद्ध करने गयाधाम पहुंचे। श्री राम श्राद्ध कर्म के लिए आवश्यक सामग्री लाने वे चले गये। तब तक राजा दशरथ की आत्मा ने पिंड की मांग कर दी थी। फल्गू नदी तट पर अकेली बैठी माता सीताजी अत्यंत असमंजस में पड़ गई। माता सीताजी ने वहा उपस्थित फल्गु नदी, गाय, वटवृक्ष और केतकी के फूल को साक्षी मानकर पिंडदान कर दिया। जब श्री राम जी आए तो उन्हें पूरी कहानी सुनाई, परंतु भगवान को विश्वास नहीं हुआ। तब जिन्हें साक्षी मानकर पिंडदान किया गया था, उन सबको सामने लाया गया। उनमें से पंडा, फल्गु नदी, गाय और केतकी फूल ने झूठ बोल दिया परंतु अक्षयवट ने सत्यवादिता का परिचय देते हुए माता की लाज रख ली।

उन सबके झूट से क्रोधित होकर माता सीताजी ने फल्गू नदी को श्राप दे दिया कि तुम सदा सूखी रहोगी जबकि गाय को मैला खाने का श्राप दिया केतकी के फूल को पितृ पूजन मे निषेध का। और वटवृक्ष पर प्रसन्न होकर सीताजी ने उसे सदा दूसरों को छाया प्रदान करने व लंबी आयु का वरदान दिया। तब भी से ही फल्गू नदी हमेशा सूखी रहती हैं, जबकि वटवृक्ष अभी भी तीर्थयात्रियों को छाया प्रदान करता है। आज भी फल्गू तट पर स्थित सीता कुंड में बालू का पिंड दान करने की परंपरा संपन्न होती है।

 कैसे करें पिंडदान की प्रक्रिया: गया में पिंडदान की प्रक्रिया कुछ विशेष नियमों के तहत की जाती है। इसमें पिंड आटे या चावल की बनाकर उन्हें  फल्गु नदी में प्रवाहित किया जाता है। इन पिंडों को पितरों का प्रतीक माना जाता है, और उनके माध्यम से श्रद्धालु अपने पूर्वजों को भोजन अर्पित करते हैं। यह क्रिया आत्मा की शांति और मोक्ष प्राप्ति के लिए की जाती है।

गया में पिंडदान एक ऐसी परंपरा है जो पितरों के प्रति श्रद्धा और सम्मान का प्रतीक है। यह न केवल धार्मिक महत्व रखता है, बल्कि पीढ़ियों के बीच जुड़ाव और कृतज्ञता की भावना को भी सुदृढ़ करता है। पितरों की आत्मा को मोक्ष दिलाने की इस प्राचीन परंपरा में हर साल लाखों लोग हिस्सा लेते हैं, ताकि वे अपने पूर्वजों को शांति और मोक्ष का आशीर्वाद दिला सकें।

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