असम, अवैध प्रवासन और राजनीति की कसौटी

 
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा असम के नामरूप में दिए गए ताज़ा वक्तव्य ने एक बार फिर देश की राजनीति के उस संवेदनशील प्रश्न को केंद्र में ला दिया है, जिसमें राष्ट्र सुरक्षा, अवैध प्रवासन और वोटबैंक की राजनीति आपस में टकराती दिखाई देती हैं। कांग्रेस पर “राष्ट्रविरोधी गतिविधियों” में लिप्त होने और असम में अवैध बांग्लादेशी प्रवासियों को बसाने का आरोप लगाकर प्रधानमंत्री ने न केवल विपक्ष पर तीखा हमला किया, बल्कि पूर्वोत्तर भारत की उस पीड़ा को भी स्वर दिया, जो दशकों से जनसांख्यिकीय बदलाव और पहचान के संकट से जूझ रही है।

असम का इतिहास बताता है कि अवैध प्रवासन का मुद्दा यहां केवल राजनीतिक नारा नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक अस्तित्व से जुड़ा प्रश्न रहा है। असम आंदोलन से लेकर असम समझौते तक, यह समस्या लगातार केंद्र और राज्य सरकारों के सामने चुनौती बनी रही। प्रधानमंत्री का यह कहना कि कांग्रेस केवल अपने वोटबैंक को मजबूत करने के लिए इस मुद्दे की अनदेखी करती रही है, सीधे तौर पर विपक्ष की नीयत पर सवाल खड़ा करता है। हालांकि, लोकतंत्र में ऐसे आरोपों की निष्पक्ष जांच और तथ्यों के आधार पर बहस भी उतनी ही आवश्यक है, ताकि यह विषय केवल चुनावी हथियार बनकर न रह जाए।

प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में विकास और राष्ट्रवाद को एक-दूसरे से जोड़ते हुए नामरूप उर्वरक संयंत्र का उदाहरण दिया। 10,601 करोड़ रुपये की लागत से बनने वाला यह संयंत्र केवल औद्योगिक परियोजना नहीं, बल्कि आत्मनिर्भर भारत की उस सोच का हिस्सा है, जिसमें किसानों को समय पर उर्वरक उपलब्ध कराने, आयात पर निर्भरता कम करने और स्थानीय युवाओं के लिए रोजगार सृजन का लक्ष्य निहित है। कांग्रेस शासन के दौरान पुराने संयंत्रों के बंद होने और आधुनिकीकरण के अभाव का उल्लेख कर प्रधानमंत्री ने यह संदेश देने की कोशिश की कि विकास में हुई देरी भी एक प्रकार की राजनीतिक असंवेदनशीलता का परिणाम रही है।

मोदी का यह दावा कि भाजपा सरकार असमिया लोगों की पहचान, भूमि और गौरव की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध है, पूर्वोत्तर की राजनीति में एक मजबूत भावनात्मक अपील है। असम जैसे राज्य में, जहां भाषा, संस्कृति और संसाधनों को लेकर चिंता गहरी है, वहां विकास के साथ-साथ पहचान की सुरक्षा भी जनता की प्राथमिकता है। ऐसे में मतदाता सूची के संशोधन का विरोध करने पर कांग्रेस की आलोचना इस बहस को और तेज करती है कि लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और जनहित के बीच संतुलन कैसे साधा जाए।

प्रधानमंत्री द्वारा डॉ. भूपेन हजारिका को भारत रत्न दिए जाने का उल्लेख और उस पर कांग्रेस की कथित प्रतिक्रिया का जिक्र भी राजनीतिक विमर्श में सांस्कृतिक सम्मान के प्रश्न को सामने लाता है। असम के लिए भूपेन दा केवल एक कलाकार नहीं, बल्कि अस्मिता का प्रतीक हैं। ऐसे में उनके सम्मान को लेकर किसी भी प्रकार की टिप्पणी स्वाभाविक रूप से भावनात्मक प्रतिक्रिया को जन्म देती है।

कृषि, उर्वरक, चाय बागान श्रमिकों और पूर्वोत्तर के समग्र विकास को लेकर प्रधानमंत्री के वक्तव्य यह संकेत देते हैं कि केंद्र सरकार असम को केवल सीमावर्ती राज्य नहीं, बल्कि विकास की धुरी के रूप में देख रही है। पाम ऑयल मिशन, यूरिया उत्पादन में वृद्धि और पीएम किसान सम्मान निधि जैसी योजनाओं का उल्लेख इस दिशा में किए गए प्रयासों को रेखांकित करता है। हालांकि, यह भी सच है कि राष्ट्रविरोध और अवैध प्रवासन जैसे गंभीर आरोपों पर राजनीतिक बयानबाज़ी से आगे बढ़कर ठोस नीतिगत कार्रवाई और पारदर्शिता की आवश्यकता है। जनता अब केवल आरोप-प्रत्यारोप नहीं, बल्कि स्थायी समाधान चाहती है ऐसे समाधान जो असम की पहचान की रक्षा करें, विकास को गति दें और लोकतांत्रिक मूल्यों को मजबूत करें। अंततः, असम का भविष्य इसी बात पर निर्भर करेगा कि राजनीति राष्ट्रहित और जनहित के बीच किसे प्राथमिकता देती है। विकास, सुरक्षा और पहचान इन तीनों के संतुलन में ही पूर्वोत्तर और देश की समग्र प्रगति का मार्ग छिपा है।

- संपादक

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