लेखक: विनोद कुमार झा
शाम का वक्त था। दिसंबर की हल्की ठंड हवा में घुल चुकी थी। सूरज ढलते-ढलते पार्क के पेड़ों की लंबी परछाइयाँ ज़मीन पर फैला रहा था। रोज़ की तरह शांति देवी धीमे क़दमों से पार्क में दाख़िल हुईं। हाथ में ऊनी शॉल, आँखों में बीते वर्षों की थकान और मन में वही पुरानी चुप्पी।
शांति देवी की उम्र साठ पार कर चुकी थी। जीवन के ज़्यादातर रंग वे देख चुकी थीं युवावस्था का उत्साह, गृहस्थी की ज़िम्मेदारियाँ, बच्चों की परवरिश और फिर एक दिन पति का हमेशा के लिए चला जाना। पति के जाने के बाद घर बड़ा हो गया था, पर दिल सिकुड़ गया था। बेटे-बेटी अपने-अपने संसार में रम गए थे। फोन आते थे, हालचाल पूछे जाते थे, पर वह अपनापन नहीं था जो कभी शाम को चाय के साथ मिला करता था।
उसी पार्क में, कुछ दूरी पर, बचपन झा भी रोज़ की तरह टहल रहे थे। सत्तर के करीब की उम्र, चेहरे पर गंभीरता, आँखों में अनुभवों की गहराई। वे कभी बहुत हँसमुख हुआ करते थे, पर पत्नी के जाने के बाद जैसे हँसी उनसे रूठ गई थी। पत्नी उनके जीवन की धुरी थीं हर छोटी-बड़ी बात की साथी। अब घर में हर चीज़ अपनी जगह पर थी, बस जीवन बिखर-सा गया था।
पहली पहचान : पहले दिन बस नज़रें मिलीं। दूसरे दिन हल्की मुस्कान। तीसरे दिन एक औपचारिक नमस्ते। और चौथे दिन, बातचीत का पहला वाक्य।
“आज पार्क कुछ ज़्यादा सूना है,” बचपन झा ने कहा। शांति देवी ने उत्तर दिया, “भीड़ तो घरों में भी होती है, पर सूना वहाँ भी लगता है।”बस यही एक वाक्य था, पर दोनों को लगा जैसे किसी ने मन की बात कह दी हो।
धीरे-धीरे बातचीत बढ़ने लगी। कभी पुराने गानों की चर्चा होती, कभी बच्चों की। कभी वे अपने-अपने बीते समय की बातें साझा करते। शांति देवी बतातीं कि कैसे उन्होंने अपनी इच्छाओं को परिवार के लिए पीछे छोड़ दिया। बचपन झा बताते कि कैसे ज़िम्मेदारियों की दौड़ में वे पत्नी को समय ही नहीं दे पाए।
इन बातों में कोई शिकायत नहीं थी बस स्वीकार था। मन के बंद दरवाज़े खुलने लगे। एक दिन शांति देवी बीमार पड़ गईं और दो दिन पार्क नहीं आईं। तीसरे दिन जब वे पहुँचीं, तो बचपन झा बेचैन-से दिखे।
“आप दो दिन नहीं आईं… सब ठीक तो है?”
इतना सुनते ही शांति देवी का गला भर आया। वर्षों बाद किसी ने उनकी गैरहाज़िरी महसूस की थी। उस दिन दोनों देर तक चुप बैठे रहे। उस चुप्पी में भी संवाद था एक ऐसा संवाद जो शब्दों का मोहताज नहीं था।
अब वे सिर्फ़ पार्क के साथी नहीं रहे थे। वे एक-दूसरे की दिनचर्या का हिस्सा बन गए थे। सुबह की चाय, शाम की सैर, अख़बार की सुर्खियाँ सब साझा होने लगा।
बारिश के बीच प्यार का एहसास : एक दिन अचानक बारिश आ गई। दोनों पास की छतरी के नीचे खड़े हो गए। बारिश की बूँदें ज़मीन से टकराकर खुशबू बिखेर रही थीं। ठंडी हवा में शांति देवी काँप उठीं। बचपन झा ने बिना कुछ कहे अपनी शॉल उनके कंधों पर रख दी। वह पल साधारण था, पर भावनाओं से भरा। शांति देवी की आँखों से आँसू बह निकले।
“क्या हुआ?” बचपन ने पूछा। “कुछ नहीं… बस बहुत समय बाद किसी ने यूँ ध्यान रखा।” उसी दिन दोनों ने मन ही मन स्वीकार कर लिया यह रिश्ता अब सिर्फ़ दोस्ती नहीं रहा।
संकोच और समाज का डर : लेकिन उम्र के इस पड़ाव पर प्रेम स्वीकार करना आसान नहीं था।शांति देवी के मन में सवाल उठते, लोग क्या कहेंगे? बच्चे क्या सोचेंगे? बचपन भी दुविधा में थे, क्या यह सही है? क्या मैं स्वार्थी हो रहा हूँ?
एक दिन शांति देवी ने स्पष्ट कहा,“हमारी उम्र में प्यार… लोग मज़ाक उड़ाएँगे।”
बचपन ने गहरी साँस ली,“लोग तो तब भी बोले थे जब हम जवान थे। तब हमने परवाह नहीं की, अब क्यों करें?”यह जवाब शांति देवी के मन में उतर गया।
परिवार की परीक्षा : जब बच्चों को पता चला, तो प्रतिक्रियाएँ मिली-जुली रहीं।शांति देवी की बेटी ने कहा,“माँ, आपको खुशी मिल रही है तो हमें क्या आपत्ति?”पर बेटे ने चुप्पी साध ली।
बचपन झा के बेटे ने शुरुआत में असहजता जताई,“पापा, इस उम्र में…”बचपन ने बस इतना कहा,“बेटा, उम्र तो साँसों की होती है, दिल की नहीं।”धीरे-धीरे विरोध पिघल गया।
नया जीवन, नया अर्थ :उन्होंने शादी नहीं की। किसी रस्म या दिखावे की ज़रूरत नहीं थी। बस साथ रहने का निर्णय लिया।एक-दूसरे के लिए चाय बनाना, दवाइयों का ध्यान रखना, रात को पुराने गीत सुनना यही उनका उत्सव था।
पार्क की वही बेंच अब उनकी कहानी की गवाह बन गई थी। लोग देखते, कुछ मुस्कुराते, कुछ कानाफूसी करते। पर अब उन्हें फर्क नहीं पड़ता था।
अंतिम सत्य : शांति देवी अक्सर कहतीं,“ प्यार जवानी का अधिकार नहीं, इंसान की ज़रूरत है।”
बचपन झा मुस्कुराकर जोड़ते,“और ढलती उम्र में तो इसकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है।”ढलती उम्र में उमड़ा यह प्यार न उग्र था, न अधीर। यह ठहरा हुआ, सधा हुआ और बेहद सच्चा था। जैसे सांझ की रोशनी,जो दिन से भी सुंदर और रात से भी सुकूनभरी होती है।

