ठंड की रात, ख्वाबों की बरसात...

 लेखक: विनोद कुमार झा

ठंड की वह रात शहर पर चुपचाप उतर आई थी। सड़कों पर पसरी धुंध ऐसे लग रही थी मानो आसमान ज़मीन से लिपटकर अपने सारे राज़ छुपा लेना चाहता हो। स्ट्रीट लाइट्स की पीली रोशनी में उड़ते धुएँ से भरे साँसों की तरह, लोग अपने-अपने घरों की ओर जल्दी-जल्दी बढ़ रहे थे। इसी शहर के एक पुराने मोहल्ले में, तीसरी मंज़िल के छोटे से कमरे में, खिड़की के पास बैठी थी अन्वेषा ऊनी शॉल में लिपटी, हाथों में गर्म चाय का कप थामे, और आँखों में अनकहे सवाल।

ठंड केवल बाहर नहीं थी, वह भीतर भी थी। कमरे की दीवारों पर टंगी तस्वीरें पुरानी मुस्कानें, अधूरी मुलाक़ातें आज कुछ ज़्यादा ही बोल रही थीं। चाय से उठती भाप में उसे अपने ही मन का धुआँ दिख रहा था। बरसों पहले की एक सर्द रात, जब सब कुछ बदल गया था, आज फिर उसी की तरह दस्तक दे रही थी।

अन्वेषा ने खिड़की खोली। ठंडी हवा ने चेहरे को छुआ, और उसी स्पर्श में कहीं दूर दबी हुई यादें जाग उठीं। कॉलेज के दिनों की वह लाइब्रेरी, जहाँ किताबों की महक के बीच पहली बार आरव की आवाज़ सुनी थी साफ़, सधी हुई, और कुछ कहती हुई। वह आवाज़, जो बिना नाम लिए दिल में जगह बना लेती है। दोनों की दोस्ती धीरे-धीरे उन पन्नों की तरह पलटती गई, जिनमें हर अध्याय पहले से ज़्यादा गहरा होता है।

पर हर कहानी में मोड़ आता है। आरव का शहर छोड़ना, अन्वेषा का यहीं रह जाना ज़िम्मेदारियों और सपनों के बीच फँसे दो रास्ते। उन्होंने वादे किए थे, पर वक़्त ने उन्हें अपने तरीके से लिख दिया। संपर्क टूट गया, शब्द कम होते गए, और अंततः चुप्पी ने जगह ले ली।

आज की इस ठंडी रात में, अन्वेषा के मन में वही बरसात हो रही थी। सवालों की, अफ़सोसों की, और उन बातों की जो कभी कही नहीं गईं। मोबाइल की स्क्रीन बार-बार जगमगा रही थी काम के संदेश, औपचारिक हालचाल पर एक नाम था जो बरसों से न दिखा।

वह खुद से पूछ रही थी क्या कुछ अधूरा रह जाना ही जीवन है? या अधूरापन हमें पूरा करने का साहस देता है?

तभी दरवाज़े की घंटी बजी। रात के इस पहर, कोई मेहमान? दिल ज़ोर से धड़क उठा। दरवाज़ा खोला तो सामने वही जाना-पहचाना चेहरा आरव। ठंड से लाल गाल, आँखों में वही पुरानी चमक, और होंठों पर संकोच भरी मुस्कान।

“मैं… शहर आया था,” उसने धीमे से कहा, “और लगा, आज आना चाहिए।”कमरे में एक पल को सन्नाटा छा गया। वह सन्नाटा, जो वर्षों की दूरी से भरा था। फिर अन्वेषा ने दरवाज़ा पूरी तरह खोल दिया सिर्फ़ कमरे का नहीं, अपने मन का भी।

दोनों चुपचाप बैठे, चाय फिर से बनी। बाहर ठंड बढ़ रही थी, पर भीतर कुछ पिघल रहा था। बातें शुरू हुईं काम, शहर, ज़िंदगी और फिर धीरे-धीरे वे बातें भी, जो कभी कहने की हिम्मत नहीं हुई थी। आरव ने माना कि वह डर गया था ज़िम्मेदारियों से, असफलता से, और उस प्यार से जो उसे बाँध सकता था। अन्वेषा ने स्वीकारा कि उसने इंतज़ार किया था बहुत और फिर खुद को समझाया कि आगे बढ़ना ही ठीक है।

खिड़की के बाहर हल्की फुहार शुरू हो गई। ठंड की रात में बारिश मानो प्रकृति भी उनके मन की नकल कर रही हो। अन्वेषा ने खिड़की की ओर देखा और मुस्कराई। “देखो,” उसने कहा, “ठंड में भी बरसात हो सकती है।”

आरव ने सिर हिलाया। “शायद इसलिए, ताकि हम समझें दिल मौसम नहीं देखता।” उस रात कोई बड़े वादे नहीं हुए। कोई फ़ैसला नहीं लिया गया। बस इतना हुआ कि दोनों ने अपने-अपने मन की बरसात को महसूस किया बिना डर, बिना भागे। और कभी-कभी, यही काफ़ी होता है।

सुबह होने से पहले आरव चला गया। पर इस बार, अन्वेषा के भीतर ठंड नहीं थी। खिड़की से आती ठंडी हवा भी अब ताज़गी दे रही थी। उसने शॉल कसकर ओढ़ी, चाय का आख़िरी घूँट लिया, और मन ही मन सोचा कुछ मुलाक़ातें अंत के लिए नहीं, नई शुरुआत की तैयारी के लिए होती हैं। ठंड की उस रात में, मन की बरसात ने उसे भिगो दिया था पर अब वह जानती थी, बारिश के बाद ही धरती सबसे ज़्यादा सजीव होती है।

Post a Comment

Previous Post Next Post