सर्दी की सितम, याद आए प्रीतम

 विनोद कुमार झा

पूस की ठिठुरती रातें जब धुंध की मोटी चादर ओढ़कर चुपचाप धरती पर उतर आती हैं, तब सर्दी केवल देह तक सीमित नहीं रहती वह आत्मा में भी उतर जाती है। हवा की हर सिसकी जैसे बीते समय की कोई अधूरी बात कानों में फुसफुसा जाती है। उंगलियाँ ठंड से जकड़ जाती हैं और मन, अनायास ही, उन दिनों की ओर लौटने लगता है जब यही सर्दी किसी के साथ होने से सुहानी लगती थी। अलाव की लपटें हथेलियों को तो कुछ देर की राहत दे देती हैं, पर दिल के किसी कोने में जमी उस ठंड को नहीं पिघला पातीं, जो प्रीतम की अनुपस्थिति से जम गई है। ऐसे ही पलों में, जब खामोशी शब्दों से अधिक मुखर हो जाती है, प्रीतम की यादें बिना दस्तक दिए भीतर चली आती हैं।

सर्दी का यह मौसम बड़ा बेरहम होता है। धूप की हर किरण मानो थोड़ी देर के लिए हौसला थमा देती है और फिर बादलों के पीछे छिप जाती है। आँगन में बिछी धूप में बैठकर भी मन काँपता रहता है। चाय की भाप में उभरते धुँधले-से चेहरे, ऊनी स्वेटर में उलझी उँगलियाँ और खिड़की से बाहर झांकता धुंधलका सब मिलकर उस अपनत्व की कमी को और गहरा कर देते हैं, जो कभी प्रीतम की मौजूदगी से सहज ही भर जाया करता था। तब ठंड भी मीठी लगती थी, क्योंकि पास बैठा कोई अपनेपन से पूछ लेता था—
“ठंड तो नहीं लग रही?”
और उसी एक वाक्य से सर्दी हार मान लिया करती थी।

शाम ढलते ही सर्दी जैसे और गाढ़ी हो जाती है। आसमान जल्दी अंधेरे में डूब जाता है और दिल भी उसी अंधेरे में किसी परिचित रोशनी को टटोलने लगता है। कभी साथ बैठकर हाथों में चाय का कप थामे बिताई गई वे शामें याद आती हैं, जब खामोशी भी बोझ नहीं लगती थी। दो लोगों की मौजूदगी ही एक-दूसरे के लिए सबसे बड़ा सहारा होती थी। आज वही खामोशी चुभती है, क्योंकि उसे बाँटने वाला कोई नहीं है।

रातें सर्दियों में असहनीय रूप से लंबी हो जाती हैं। घड़ी की टिक-टिक के साथ यादें भी जागती रहती हैं। रजाई के भीतर सिमटा शरीर गर्मी खोजता है, पर मन उन पलों में लौट जाता है, जब एक मुस्कान ही सबसे बड़ा कंबल हुआ करती थी। कभी पैरों की ठंड को अपने हाथों से सहलाकर दूर कर देने वाला वह स्पर्श अब केवल स्मृति बनकर रह गया है। अलाव भी अब फीका लगता है, क्योंकि उसकी लपटों में प्रीतम की आँखों की वह चमक नहीं दिखती, जिसमें कभी पूरा जाड़ा पिघल जाया करता था।

कभी-कभी लगता है कि सर्दी केवल मौसम नहीं, एक परीक्षा है प्रेम की, स्मृतियों की और उस धैर्य की, जो बिछड़ने के बाद भी इंसान को थामे रखता है। हर ठंडी सांस के साथ किसी का नाम अनायास ही होंठों तक आ जाता है। वह नाम, जिसे पुकारने की आदत आज भी नहीं छूटी। धुंध में लिपटी सुबहें, ओस से भीगी घास और सूने रास्ते सब कुछ प्रीतम की याद दिलाने के बहाने बन जाते हैं।

फिर भी सर्दी हर बार केवल पीड़ा ही नहीं देती। वह यह भी याद दिलाती है कि प्रेम कितना गहरा था इतना गहरा कि उसकी ऊष्मा आज भी महसूस होती है। जो रिश्ता कभी ठंड में भी दिल को गर्म रखता था, उसकी आँच समय के बावजूद बुझी नहीं है। शायद इसी लिए सर्दी के सितम में प्रीतम और भी शिद्दत से याद आते हैं, क्योंकि सर्द हवाओं के बीच वही एक नाम है, जो दिल को थोड़ी-सी गर्माहट दे जाता है।

धीरे-धीरे मौसम बदलेगा। धुंध छँटेगी, धूप तेज होगी, और सर्दी विदा ले लेगी। पर यादों का यह अलाव यूँ ही जलता रहेगा। समय चाहे आगे बढ़ जाए, पर प्रेम की वह अनुभूति कहीं ठहर जाती है हर ठंडी सुबह में, हर लंबी रात में और हर उस पल में जब सर्दी के साथ प्रीतम की यादें और भी करीब आ जाती हैं।
सर्दी गुजर जाती है, पर प्रेम यदि सच्चा हो मौसमों का मोहताज नहीं होता। वह हर ठिठुरन में भी दिल को गर्म रखना जानता है।

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