एक विस्तृत साहित्यिक कथा
विनोद कुमार झा
किसी समय ओम नगर के पुराने हिस्से में स्थित गंगा-विहार कॉलोनी अपनी संकरी गलियों और मिट्टी की सोंधी खुशबू के लिए जानी जाती थी। शाम ढलते ही यहाँ की हवा में एक अनोखी मिठास घुलने लगती, जैसे कुछ अनकहे किस्से धूल के कणों में बिखरते हों। इन्हीं गलियों में एक घर था पीपल के पेड़ की छाँव के नीचे, नीले दरवाज़े वाला जहाँ रहती थी संयमिता। उस समय संयमिता, की उम्र लगभग पच्चीस वर्ष के करीब थी, एक शांत, सौम्य भाव वाली लड़की, जिसकी आँखों में हमेशा कुछ ऐसे प्रश्न तैरते थे जिनका उत्तर वह खुद भी नहीं खोज पाती थी। वह शहर के कॉलेज में मनोविज्ञान की अध्यापिका थी बच्चों की भावनाओं को समझना उसे प्रिय था, पर अपनी ही भावनाओं को पढ़ने से वह हमेशा बचती आई थी।
उसी कॉलोनी के दूसरे मोड़ पर रहता था नितांत वर्मा एक युवा आर्किटेक्ट। लंबी कद-काठी, हल्की दाढ़ी और आँखों में एक अजब-सी गहराई। मुहल्ले में लोग कहते “यह लड़का जैसे इमारतें नहीं, लोगों के चेहरे पढ़ता है।” और सच भी यही था। नितांत अपने काम को लेकर जितना गंभीर था, रिश्तों को लेकर उतना ही सतर्क। शायद इसी वजह से वह किसी से जल्दी खुलता नहीं था।
एक ठहरा हुआ पल : एक शाम, ठंडी हवा के झोंके के बीच, कॉलोनी के पुराने बाग़ में संयमिता बच्चों को कहानी सुना रही थी। नितांत वहाँ एक नये कम्युनिटी-हॉल की डिज़ाइन के लिए माप-तौल करने आया था। कहानी सुनाने के अंदाज़ में कुछ ऐसा आकर्षण था कि नितांत न चाहते हुए भी ठिठक गया।
संयमिता की मुस्कान…, उसकी आँखों में झिलमिलाता अपनापन…, और बोलने का संतुलित अंदाज, कोमल और सुरीली आवाज। नितांत खड़े-खड़े कुछ देर वह बच्चों का अभिनय देखता रहा। फिर अचानक संयमिता की नज़र उस पर पड़ी।
“क्या आप किसी बच्चे को लेने आए हैं?” उसने सहज प्रश्न पूछा। नितांत हल्का मुस्कुराया, “नहीं… बस यूँ ही रुक गया। आपकी कहानी कहने की शैली बहुत सुंदर है।” संयमिता हल्का-सा सकपका गई। यह पहला क्षण था जहाँ रिश्ते की बुनियाद हवा में रची-बसी महसूस हुई पर दोनों ही इससे अनजान थे।
धीरे-धीरे उभरता परिचय : दिन बीतते गए उस दिन दे जब भी दोनों आमने-सामने आते, बातचीत के धागे थोड़ा-थोड़ा बढ़ते जाते। कभी वह पेड़ों की छाँव में बच्चों के बीच मिल जाते तो कभी कॉलोनी में लगी वार्षिक प्रदर्शनी में।
एक दिन संयमिता ने पूछा- “आप इतने लोगों के बीच भी अकेले क्यों दिखते हैं?”
नितांत ने पल भर उसे देखा और बोला- “क्योंकि मैं रिश्तों की नींव बहुत सोच-समझकर रखता हूँ। और शायद… अभी तक सही व्यक्ति मिला ही नहीं था।” यह सुनकर संयमिता की धड़कन एक पल को ठहर गई।
उसने कहा कुछ नहीं, पर उसके होंठों पर एक अनजानी मुस्कान आकर चली गई।
रिश्ते का छुपा धागा : कॉलोनी में चल रही उस कम्युनिटी-हॉल की परियोजना के दौरान दोनों की मुलाकातें बढ़ती गईं। संयमिता उसे कम्युनिटी की जरूरतें बताती, नितांत डिज़ाइन दिखाता, और बातों के बीच छुपकर बहुत कुछ कहा-अनकहा सा खिलने लगता।
लोगों की नज़रें भी अब इन दोनों को देखने लगी थीं, पर दोनों ही अपने मन की बात कह पाने में अक्षम थे। कई बार ऐसा लगता जैसे कोई अदृश्य दीवार दोनों के बीच खड़ी है- एक-दूसरे को चाहते हुए भी न कह पाने की दुविधा।
एक पत्र… जिसने सब बदल दिया पूरी कहानी : एक दिन, देर शाम, बारिश की हल्की फुहारों में संयमिता को आरव मिला। उसके हाथ में एक पुराना कागज़ था भीगा हुआ, मुड़ा हुआ। “संयमिता… यह मेरा अधूरा पत्र है। मैं इसे किसी को नहीं देता, पर शायद… आप इसे पढ़ सकती हैं।”
पत्र में लिखा था, “मेरी जिंदगी की सबसे मजबूत इमारतें ईंटों से नहीं, भावनाओं से बनी हैं। पर एक रिश्ता है… जो बिना बनाए ही बन रहा है। शायद मैं उससे डरता हूँ, शायद बहुत चाहता भी हूँ… और शायद पहली बार… मैं किसी को खोने से डर रहा हूँ।”
संयमिता की आँखें नम हो गईं। वह धीमे स्वर में बोली- “नितांत अगर कोई रिश्ता बिना कहे इतना गहरा हो सकता है, तो सोचिए, उसे कहना कितना सुंदर होगा।”
नितांत ने पहली बार उसके हाथ थामे-“तो क्या… मैं कह सकता हूँ कि यह रिश्ता हमारे बीच है?” संयमिता की मुस्कान उत्तर थी- और वही मुस्कान उनकी बुनियाद बन गई।
रिश्तों की उभरती नींव : कम्युनिटी-हॉल बनकर तैयार हुआ लेकिन उससे पहले ही एक और निर्माण पूरा हो चुका था। संयमिता और नितांत का रिश्ता, जो कभी अनकहे संकेतों से शुरू हुआ था, अब सुदृढ़, स्पष्ट और सुंदर रूप ले चुका था।
लोगों ने उनकी जोड़ी देखकर कहा- “यह रिश्ता जैसे धीरे-धीरे खुद ही तराशा गया हो।” शायद इसलिए कि सबसे मजबूत नींव वही होती है जो छुपकर, धीरे-धीरे, भावना की सीमेंट और विश्वास की ईंटों से तैयार होती है। और यही थी- छूपे रिश्तों की उभरते बुनियाद।
