बिहार की राजनीति ने हमेशा देश के लोकतंत्र की धड़कन को दिशा दी है। यहां के चुनाव केवल सत्ता परिवर्तन का संकेत नहीं होते, बल्कि सामाजिक, आर्थिक और वैचारिक परिवर्तन का प्रतिबिंब भी होते हैं। वर्ष 2025 के विधानसभा चुनाव में पहले चरण का मतदान 64.66 प्रतिशत तक पहुंचा जो अब तक का सबसे अधिक मतदान प्रतिशत है। यह न सिर्फ रिकॉर्ड तोड़ संख्या है, बल्कि बिहार के जनमानस के मनोविज्ञान और लोकतंत्र के प्रति बढ़ते विश्वास का प्रतीक भी माना जा सकता है। परंतु सवाल यह उठता है कि आखिर यह ऐतिहासिक मतदान किस दिशा का संकेत दे रहा है परिवर्तन का या पुनः विश्वास का?
मतदान का बदलता परिदृश्य, इतिहास से वर्तमान तक
यदि पिछले दो दशकों के चुनावों पर नज़र डालें तो मतदान दर में धीरे-धीरे निरंतर वृद्धि दिखाई देती है।
2005 के विधानसभा चुनाव में औसतन 46 प्रतिशत मतदान हुआ था। उस समय जनता में राजनीतिक निराशा और असुरक्षा का माहौल था।
2010 में नीतीश कुमार की ‘सुशासन’ छवि ने उत्साह जगाया और मतदान बढ़कर 52.7 प्रतिशत तक पहुंचा।
2015 में महागठबंधन बनाम एनडीए की जंग ने जनता को फिर से सक्रिय किया, परिणामस्वरूप मतदान 56.8 प्रतिशत तक गया जो उस समय तक का रिकॉर्ड था।
2020 में, कोरोना महामारी के बावजूद, बिहार ने हिम्मत दिखाई और 57 प्रतिशत मतदान कर लोकतंत्र को मजबूती दी।और अब, 2025 के पहले चरण में 64.66 प्रतिशत, यानी लगभग साढ़े सात प्रतिशत की छलांग, बिहार के इतिहास में एक नई मिसाल बन गई है। यह आंकड़ा बताता है कि बिहार का मतदाता अब पहले से कहीं अधिक सजग, समझदार और अपने अधिकार के प्रति जागरूक हुआ है।
यह वृद्धि क्या दर्शाती है, परिवर्तन या पुनः समर्थन?
आमतौर पर राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि जब किसी राज्य में मतदान का प्रतिशत अचानक बढ़ता है, तो यह सत्ता-विरोधी लहर (Anti-incumbency) या परिवर्तन की इच्छा का संकेत देता है।परंतु बिहार का सामाजिक समीकरण इतना सरल नहीं है। यहां जातीय और क्षेत्रीय समीकरण के साथ-साथ युवा मतदाताओं की भूमिका भी निर्णायक होती जा रही है।
2025 के मतदान का बढ़ना कई कारणों से जुड़ा हो सकता है:
1. युवाओं और महिलाओं की बढ़ती भागीदारी: बिहार में 18 से 29 वर्ष के मतदाताओं की संख्या लगभग 2 करोड़ है। साथ ही, महिलाओं का मतदान प्रतिशत पुरुषों से लगातार अधिक रहा है। महिला मतदाता अब न केवल जागरूक हैं बल्कि वे शासन की नीतियों खासकर शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार को लेकर सजग हैं।
2. राजनीतिक विकल्पों की विविधता: इस बार राज्य में एनडीए, इंडिया गठबंधन, वाम दलों और स्थानीय संगठनों सहित कई ध्रुव उभरकर सामने आए हैं। इससे मतदाताओं के सामने विकल्प बढ़े हैं और मतदान का उत्साह भी।
3. चुनाव आयोग की पारदर्शी पहल: विशेष मतदाता सूची संशोधन अभियान (SIR) ने पुराने, डुप्लीकेट और मृत मतदाताओं के नाम हटाए, जिससे वास्तविक प्रतिशत और भी प्रभावशाली दिखा।
बढ़ते मतदान का सामाजिक अर्थ
बिहार का मतदाता अब जाति और धर्म की सीमाओं से धीरे-धीरे बाहर निकल रहा है। ग्रामीण इलाकों में जहां पहले मतदान को ‘परंपरा’ समझा जाता था, अब वह ‘अधिकार’ और ‘जवाबदेही’ के रूप में देखा जाने लगा है। इस बदलाव का श्रेय केवल राजनीतिक दलों को नहीं, बल्कि शिक्षा, सोशल मीडिया और स्थानीय नागरिक संगठनों को भी जाता है जिन्होंने मतदाता जागरूकता को बढ़ाया है।
बढ़ा हुआ मतदान इस बात का द्योतक है कि जनता अब "सरकारें बनाती" नहीं, बल्कि "नीतियां तय करती" है। लोग अब यह समझ चुके हैं कि विकास के मुद्दे सड़क, बिजली, नौकरी, और कानून-व्यवस्था केवल चुनावी नारों से नहीं, बल्कि जवाबदेह शासन से ही संभव हैं।
क्या यह बदलाव का संकेत है?
इतिहास गवाह है कि हर बार मतदान प्रतिशत में उल्लेखनीय वृद्धि के बाद बिहार में राजनीतिक समीकरण बदले हैं।
2005 में कम मतदान के बाद लंबे शासन परिवर्तन हुए।
2015 में बढ़े मतदान के साथ महागठबंधन की अप्रत्याशित जीत हुई।
2020 में मामूली वृद्धि के बावजूद सत्ताधारी गठबंधन बाल-बाल बचा। अब 2025 में इतना भारी मतदान खासकर युवाओं और महिलाओं की सक्रियता इस ओर इशारा करता है कि जनता इस बार किसी स्पष्ट दिशा में संदेश देना चाहती है। चाहे वह बदलाव के रूप में हो या भरोसे की पुनः पुष्टि के रूप में, इतना तो तय है कि बिहार के मतदाता मौन नहीं रहे।
पहले चरण के मतदान ने स्पष्ट कर दिया है कि बिहार की जनता अब सिर्फ दर्शक नहीं, बल्कि लोकतंत्र की वास्तविक शक्ति बन चुकी है। यह ऐतिहासिक मतदान उस नयी बिहार की तस्वीर पेश करता है जो जागरूक है, जवाब मांगती है और दिशा तय करती है। राजनीतिक दलों के लिए यह एक चेतावनी भी है और अवसर भी क्योंकि इस बार जनता की अदालत पहले से कहीं ज्यादा सक्रिय, सजग और निर्णायक नजर आ रही है। यदि आने वाले चरणों में यही रुझान बरकरार रहा, तो 2025 का चुनाव बिहार की राजनीतिक कहानी में एक नया अध्याय जोड़ सकता है जहां जनता केवल वोट नहीं डालती, बल्कि अपना भविष्य खुद लिखती है।
(एक विश्लेषणात्मक संपादकीय लेख)
