सांसें थमती दिल्ली , कब रुकेगा यह ज़हर?

विनोद कुमार झा

दिल्ली एक बार फिर धुंध की चादर में लिपटी है। प्रदूषण का स्तर लगातार बढ़ता जा रहा है और हालात इतने खराब हो चुके हैं कि राजधानी में सांस लेना तक दूभर हो गया है। ITO जैसे व्यस्त इलाके का एयर क्वालिटी इंडेक्स (AQI) 347 तक पहुंच गया है यानी "बहुत खराब" श्रेणी में। यह सिर्फ एक आंकड़ा नहीं, बल्कि हर दिल्लीवासी की फेफड़ों की चीख है।

हर साल नवंबर का महीना आते ही दिल्ली गैस चेंबर में बदल जाती है। यह कोई नई समस्या नहीं है, बल्कि एक पुरानी बीमारी है जिसे सरकारें हर साल "आपात स्थिति" के नाम पर थोड़े समय के उपायों से दबा देती हैं। नतीजा यह होता है कि कुछ दिनों बाद वही कहानी फिर दोहराई जाती है  स्कूल बंद, निर्माण कार्य पर रोक, गाड़ियों पर ऑड-ईवन, और लोगों के चेहरों पर मास्क। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह स्थायी समाधान है?

प्रदूषण के मूल कारण सभी जानते हैं  पराली जलाना, वाहन धुआं, निर्माण धूल, औद्योगिक उत्सर्जन, और अनियंत्रित शहरीकरण। बावजूद इसके, केंद्र और राज्य सरकारें हर साल केवल एक-दूसरे पर आरोप लगाने में व्यस्त रहती हैं। अगर उत्तर भारत के राज्यों के बीच तालमेल और दीर्घकालिक रणनीति बनाई जाती, तो दिल्ली की हवा इतनी जहरीली न होती।

यह भी समझना होगा कि यह केवल "दिल्ली की समस्या" नहीं है। हवा का कोई सीमा क्षेत्र नहीं होता। NCR, हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश  सब इस संकट के हिस्सेदार हैं। ऐसे में अलग-अलग नीतियों से नहीं, बल्कि क्षेत्रीय स्तर पर एक संयुक्त ‘क्लीन एयर मिशन’ की सख्त ज़रूरत है। सबसे दुखद यह है कि इस प्रदूषण का सबसे बड़ा असर बच्चों और बुजुर्गों पर पड़ रहा है। अस्पतालों में सांस की बीमारियों के मरीजों की संख्या लगातार बढ़ रही है। क्या यह विकास की कीमत है  जहां शहर चमकते हैं, लेकिन फेफड़े जलते हैं?

सरकार को अब ‘आपात उपायों’ से आगे बढ़कर स्थायी समाधानों पर काम करना होगा जैसे कि सार्वजनिक परिवहन को मजबूत करना, इलेक्ट्रिक वाहनों को बढ़ावा देना, औद्योगिक उत्सर्जन पर सख्त निगरानी, और पराली प्रबंधन के लिए किसानों को व्यवहारिक विकल्प देना। साथ ही, नागरिकों को भी अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी। केवल सरकार को दोष देकर हम अपनी सांसें नहीं बचा सकते। दिल्ली की यह धुंध सिर्फ धुएं से नहीं, हमारी नीतिगत असफलता से भी बनी है। अब वक्त है कि सरकारें “कब तक चलेगा यह ज़हर” का जवाब ठोस कदमों से दें  वरना आने वाले वर्षों में दिल्ली में सांस लेना भी एक विलासिता बन जाएगा।

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