विजयादशमी पर नीलकंठ दर्शन का क्या है रहस्य?

विनोद कुमार झा

भारतीय संस्कृति में हर पर्व का संबंध केवल परंपरा से नहीं, बल्कि गहरे दार्शनिक और आध्यात्मिक अर्थों से भी होता है। विजयादशमी यानी दशहरा ऐसा ही पर्व है जो न केवल असत्य पर सत्य की विजय का प्रतीक है, बल्कि मानवीय जीवन में नैतिकता, साहस और सदाचार के मूल्य स्थापित करने का संदेश देता है। इस दिन जहां एक ओर रावण दहन किया जाता है, वहीं दूसरी ओर नीलकंठ पक्षी के दर्शन की परंपरा भी बड़ी आस्था के साथ निभाई जाती है। आम जनमानस में यह मान्यता है कि दशहरे के दिन यदि नीलकंठ पक्षी का दर्शन हो जाए, तो आने वाला वर्ष शुभता, सफलता और विजय से भर जाता है। नीलकंठ पक्षी का नाम स्वयं भगवान शिव से जुड़ा हुआ है। पुराणों के अनुसार समुद्र मंथन के समय जब विष निकला, तो शिव ने संसार की रक्षा के लिए उसे पी लिया और उसी विष से उनका कंठ नीला हो गया। तभी से उन्हें ‘नीलकंठ’ कहा जाने लगा। यही प्रतीक आगे चलकर नीलकंठ पक्षी से जुड़ गया, जिसे शुभ और पवित्र माना जाने लगा।

विजयादशमी के दिन इस पक्षी के दर्शन को भगवान शिव के दर्शन समान माना जाता है। माना जाता है कि यह पक्षी शिव का प्रतीक बनकर अपने नीले गले से लोगों को इस दिन की पवित्रता और जीवन में विष को सहने की शक्ति का संदेश देता है। ग्रामीण और शहरी दोनों ही भारत में दशहरे की सुबह लोग नीलकंठ पक्षी को देखने के लिए विशेष रूप से बाहर निकलते हैं। पुराने समय में कहा जाता था “दशहरे के दिन नीलकंठ दिखे, तो वर्षभर सुख-समृद्धि मिले।” यह लोकविश्वास केवल अंधश्रद्धा नहीं, बल्कि प्रकृति के साथ गहरे जुड़ाव का भी प्रतीक है। हमारे पूर्वजों ने प्रकृति के हर जीव में ईश्वर का अंश देखा। नीलकंठ पक्षी के चमकते नीले पंख और शांत उड़ान जीवन में संयम, आत्मबल और शुभता की प्रेरणा देते हैं।

वाल्मीकि रामायण के अनुसार, लंका विजय से पहले श्रीराम ने आकाश में उड़ते नीलकंठ पक्षी को देखा था और इसे शुभ संकेत माना था। यही कारण है कि आज भी दशहरे पर नीलकंठ को देखना “विजय” का प्रतीक माना जाता है। यह केवल एक धार्मिक क्रिया नहीं, बल्कि आत्मबल और आत्मविश्वास का प्रतीक भी है  कि जैसे राम ने धर्मयुद्ध में विजय पाई, वैसे ही हम भी अपने जीवन के संघर्षों पर विजय प्राप्त कर सकते हैं।

नीलकंठ पक्षी भारतीय उपमहाद्वीप के सुंदर पक्षियों में से एक है। इसकी संख्या अब पहले जैसी नहीं रही, क्योंकि पेड़ों की कटाई और शहरीकरण ने इसके प्राकृतिक आवास को प्रभावित किया है। ऐसे में विजयादशमी का दिन केवल नीलकंठ दर्शन का नहीं, बल्कि पर्यावरण संरक्षण की चेतना जगाने का भी दिन है। जब हम नीलकंठ देखने की प्रतीक्षा करते हैं, तो हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि उसका अस्तित्व हमारी धरती के संतुलन और हरियाली से जुड़ा है।दशहरा हमें केवल रावण दहन की शिक्षा नहीं देता, बल्कि यह भी सिखाता है कि प्रकृति और जीवों के साथ संतुलन बनाकर ही सच्ची विजय प्राप्त की जा सकती है। हर व्यक्ति को अपने भीतर के ‘रावण’  यानी अहंकार, क्रोध, लोभ और ईर्ष्या को जलाना चाहिए। 

नीलकंठ का दर्शन इस आत्मशुद्धि की प्रक्रिया में एक शुभ संदेश है  विष को पीकर भी शांत और संतुलित बने रहना। यही जीवन की सच्ची विजय है। इसलिए जब दशहरे की सुबह हम आकाश में नीलकंठ को उड़ते देखें, तो यह केवल एक पक्षी नहीं, बल्कि जीवन के उस दिव्य संदेश का प्रतीक है कि हर अंधकार के बाद प्रकाश आता है, हर विष के बाद अमृत का स्वाद मिलता है, और हर संघर्ष के बाद विजय सुनिश्चित होती है।

विजयादशमी पर नीलकंठ दर्शन केवल एक धार्मिक क्रिया नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक संदेश है  कि हम शिव की तरह विष पीने का साहस रखें, राम की तरह धर्म के पथ पर अडिग रहें, और प्रकृति की रक्षा में अपनी भूमिका निभाएं। तभी हमारा जीवन भी नीलकंठ की उड़ान जैसा शांत, सुंदर और सफल हो सकेगा।

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