विनोद कुमार झा
यह शंकराचार्य द्वारा माता जगदम्बा से की गई क्षमा प्रार्थना का प्रसिद्ध स्तोत्र है। इसमें शंकराचार्य अपने हृदय की व्यथा व्यक्त करते हुए कहते हैं कि उन्हें न तो मंत्र का ज्ञान है, न तंत्र का, न ही वे कोई विशेष पूजा-विधि या स्तुति कर पाते हैं। फिर भी वे अपनी मां भगवती से शरण और क्षमा की याचना करते हैं। पूरा पाठ इस प्रकार है :-
न मन्त्रं नो यन्त्रं तदपि च न जाने स्तुतिमहो
न चाह्वानं ध्यानं तदपि च न जाने स्तुतिकथाः ।
न जाने मुद्रास्ते तदपि च न जाने विलपनं
परं जाने मातस्त्वदनुसरणं क्लेशहरणम् ॥१॥
हे माता! न तो मैं कोई मन्त्र जानता हूँ, न यन्त्र; न मैं स्तुति करना जानता हूँ, न ध्यान करना। न ही मुझे मुद्राएँ ज्ञात हैं और न ही सही प्रकार से प्रार्थना। पर एक बात मैं अवश्य जानता हूँ आपके चरणों का अनुसरण करना ही सारे दुःखों का हरण करता है।
विधेरज्ञानानेन विधिविहितपापान्यपि शिवे
क्षमस्व त्वं शम्भो त्रिपुरहर साधारणविधे ।
अजन्मानो लोकाः किमविधविधेरेवमविधौ
कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ॥२॥
अज्ञानवश मैं आपके पूजन-विधान का पालन नहीं कर पाया और अनेक भूलें हो गईं। हे शिवे! यदि पुत्र कुपथगामी भी हो तो माँ कभी उसे नहीं छोड़ती। वैसे ही मुझे भी क्षमा करें।
पृथिव्यां पुत्रास्ते जननि बहवः सन्ति सरलाः
परोक्तं त्वं सर्वं सकलमपि साधु प्रतिदिनम् ।
अहं तु त्रैणिक्यस्तव किमपि मातः सुतकुलं
कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ॥३॥
हे जननि! इस पृथ्वी पर आपके अनेक भक्त सरल और सच्चे हैं। उनके बीच मैं सबसे दीन और अल्पगुण वाला हूँ। परन्तु यदि पुत्र दोषी भी हो तो माँ कुमाता नहीं बनती।
जगन्मातर्मातस्तव चरणसेवा न रचितं
न वा दत्तं देवि द्रविणमपि भूयस्तव मया ।
तथापि त्वं स्नेहं मयि निरुपमं यत्प्रकुरुषे
कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ॥४॥
हे जगन्माता! मैंने न तो आपकी भक्ति-सेवा की, न आपको द्रव्य अर्पित किया। फिर भी आप मुझ पर अपार स्नेह बरसाती हैं। यह आपके मातृत्व का अद्भुत स्वरूप है।
परित्यक्ता देवा विविधविधसेवाकुलतया
मया पञ्चाशीतेरधिकमपनीते तु वयसा ।
इदानीं चेन्माता त्वयि यदि कृपा नापि भविता
निरालम्बो लम्बोदरजननि कं यामि शरणम् ॥५॥
अन्य देवताओं की पूजा में समय बिताते-बिताते मेरा जीवन व्यर्थ हो गया। अब आयु के ढलते समय में यदि आप भी कृपा न करें तो मैं किसका सहारा लूँगा? केवल आप ही मेरी शरण हैं।
श्वपाको जल्पाको भवति मधुपाकोपमगिरा
निरातङ्को रङ्को विहरति चिरं कोटिकनकैः ।
त्वदापर्णे कर्णे विशति मनुवर्णे फलमिदं
जनः को जानीते जननि जपनीयं जपविधौ ॥६॥
आपका नाम जपने से अज्ञानी भी मधुर वाणी वाला हो जाता है, निर्धन भी धनवान की तरह सुखी हो जाता है। कौन जानता है कि आपका नाम-जप करने से मनुष्य कितना महान बन जाता है!
चिताभस्मालेपो गरलमशनं दिक्पटधरः
जटाधारी कण्ठे भुजगपतिहारी पशुपतिः ।
कपाली भूतेशो भजति जगदीशैकपदवीं
भवानी त्वत्पाणिग्रहणपरिपाटीफलमिदम् ॥७॥
शिवजी, जो भस्म रमाते हैं, विष को भोजन बनाते हैं, सर्पों को गले में धारण करते हैं और भूतों के स्वामी हैं—वे भी जगत्पति कहलाते हैं। यह सब केवल इसलिए हुआ क्योंकि आपने ही उन्हें पति रूप में स्वीकार किया।
न मोक्षस्याकाङ्क्षा भवविभववाञ्छापि च न मे
न विज्ञानापेक्षा शशिमुखि सुखेच्छापि न पुनः ।
अतस्त्वां संयाचे जननि जननं यातु मम वै
मृडानी रुद्राणी शिव शिव भवानीति जपतः ॥८॥
हे माँ! न मुझे मोक्ष चाहिए, न संसार की सम्पत्ति, न ज्ञान की इच्छा है, न सुख की चाह। मैं केवल आपसे यही प्रार्थना करता हूँ कि बार-बार मेरा जन्म आपके जप और स्मरण में ही बीते।
नाराधितासि विधिना विविधोपचारैः
किं रुक्षचिन्तनपरैर्न कृतं वचोभिः ।
श्यामे त्वदीयमनसः स्मरणं करोमि
दुर्गे न तत्क्षणमपि त्यज मां शरण्ये ॥९॥
हे दुर्गे! मैंने विधिपूर्वक आपकी पूजा नहीं की, न विविध उपचरों से आपकी आराधना की। पर मैं सदा मन ही मन आपका स्मरण करता हूँ। शरण देने वाली माता! मुझे कभी मत त्यागना।
आपत्सु स्मरणं तव चरणयोर्देवि करुणार्णवे
नैतच्चठत्वं मम भवतु मातः क्षुधितकातरः ।
कृत्वा स्मरणमम्ब ते हृदयतः सम्पूर्णकामः सदा
सुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ॥१०॥
हे करुणामयी माँ! संकटों में पड़कर मैं केवल आपके चरणों का स्मरण करता हूँ। यह कोई छल नहीं, बल्कि भूखे-बच्चे का अपनी माँ को पुकारना है। आप मुझे सदैव कृपा से पूर्ण रखें।
मत्समः पातकी नास्ति पापघ्नी त्वत्समा न हि ।
एवं ज्ञात्वा महादेवि यथायोग्यं तथा कुरु ॥११॥
मेरे समान बड़ा पापी कोई नहीं है और आपके समान पापों का नाश करने वाली कोई नहीं। हे महादेवी! इस सत्य को जानकर मेरी रक्षा करें और मुझे क्षमा कर दें। माँ कभी भी अपने पुत्र को त्यागती नहीं। इसलिए उन्होंने अपराधों के लिए क्षमा माँगी और माता के चरणों में शरण ग्रहण की।
जय माता दी
नोट : यह दुर्गा सप्तशती ग्रंथ से लिया गया है।