बिहार की अस्मिता और राजनीति की चुनौतियाँ

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूर्णिया की जनसभा में एक बार फिर घुसपैठ और डेमोग्राफी जैसे गंभीर मुद्दों को उठाते हुए कांग्रेस और राजद पर तीखा प्रहार किया। उनके अनुसार, सीमांचल और पूर्वी भारत के कई हिस्सों में अवैध घुसपैठियों के कारण जनसंख्या संतुलन पर संकट मंडरा रहा है, जो न केवल सुरक्षा बल्कि सामाजिक संरचना और अस्मिता के लिए भी खतरा है। प्रधानमंत्री ने इस समस्या के समाधान हेतु "डेमोग्राफी मिशन" की घोषणा लाल किले से कर पहले ही स्पष्ट संकेत दिया है कि केंद्र सरकार इस प्रश्न को केवल चुनावी मुद्दा नहीं, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा और सामाजिक स्थिरता से जुड़ी चुनौती मानती है।

बिहार, बंगाल और असम जैसे राज्यों में घुसपैठ का सवाल दशकों से चर्चा में है। स्थानीय जनसंख्या की चिंताएँ रोजगार, संसाधनों पर दबाव और बहन-बेटियों की सुरक्षा राजनीतिक मंचों से बार-बार उठती रही हैं। प्रधानमंत्री का तर्क है कि इन वास्तविक चिंताओं पर गंभीरता से काम करने के बजाय विपक्षी दल, विशेषकर कांग्रेस और राजद, वोटबैंक की राजनीति में उलझे हैं। अवैध प्रवासियों के समर्थन में खड़े होना, उन्हें "अधिकार" दिलाने के लिए आंदोलन करना और संवेदनशील सीमावर्ती इलाकों में उन्हें संगठित करने की कोशिश करना यह सब राष्ट्रीय हित और क्षेत्रीय शांति दोनों के विपरीत है। हालाँकि, इस बहस का दूसरा पक्ष भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। लोकतांत्रिक राजनीति में मानवाधिकार और शरणार्थियों के संरक्षण की बातें अक्सर उठती हैं। मगर घुसपैठ और शरणार्थी के बीच का फर्क भी स्पष्ट रहना चाहिए। यदि अनियंत्रित प्रवास को न रोका गया तो सीमावर्ती समाजों पर स्थायी असर पड़ेगा और राष्ट्रीय सुरक्षा की चुनौतियाँ और जटिल होंगी। इसीलिए आवश्यक है कि राजनीतिक दल अपने स्वार्थ से ऊपर उठकर इस विषय पर एक साझा नीति बनाएं।

प्रधानमंत्री का यह बयान निश्चित रूप से बिहार चुनावी राजनीति में भी गूँज पैदा करेगा। कांग्रेस और राजद पर यह आरोप गहरा चोट करता है कि वे "बिहार की पहचान और सम्मान" को दांव पर लगा रहे हैं। किंतु जनता के लिए यह समय केवल आरोप-प्रत्यारोप सुनने का नहीं, बल्कि यह जानने का है कि वास्तव में कौन-सी नीतियाँ और कौन-से कदम उनके भविष्य को सुरक्षित करेंगे। बिहार जैसे संवेदनशील राज्य में घुसपैठ का प्रश्न न तो केवल सुरक्षा का मुद्दा है और न केवल चुनावी रणनीति का हिस्सा। यह प्रश्न सामाजिक संतुलन, सांस्कृतिक पहचान और राष्ट्रीय एकता का है। विपक्ष और सत्ता दोनों को चाहिए कि वे इसे राजनीतिक हथियार बनाने के बजाय गंभीर नीति निर्माण का आधार बनाएं। क्योंकि यदि यह चुनौती अनसुलझी रही, तो आने वाली पीढ़ियों को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी।

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