विनोद कुमार झा
भारतीय संस्कृति में संतान को वंश परंपरा की धुरी माना गया है। माताएं अपने बच्चों की दीर्घायु, सुख और समृद्धि के लिए वर्ष भर अनेक व्रत-उपवास करती हैं। इन्हीं में एक है जीवितपुत्रिका व्रत (जितिया व्रत)। यह व्रत मुख्य रूप से बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड और नेपाल के कुछ हिस्सों में बड़े उत्साह और श्रद्धा के साथ किया जाता है। इस दिन व्रती माताएं निर्जला उपवास रखकर अपने पुत्रों की लंबी आयु और स्वास्थ्य की प्रार्थना करती हैं। इस वर्ष जितिया व्रत 14 सितंबर रविवार को होगा। 13 सितंबर को नहाय-खाय और ओठगन, 14 सितंबर को व्रत और 15 सितंबर की सुबह पारण किया जाएगा। पंचांग के अनुसार अष्टमी तिथि 14 सितंबर सुबह 8:41 बजे से प्रारंभ होकर 15 सितंबर सोमवार सुबह 6:27 बजे तक रहेगी। इसलिए व्रती महिलाएं 14 सितंबर को निर्जला उपवास में रहेंगी और अगले दिन 15 सितंबर को व्रत का समापन करेंगी। इस व्रत पर आधारित कथाएं इस प्रकार है:-
चिल्हो और सियारो की संक्षिप्त कथा : धार्मिक कथा के अनुसार, एक विशाल सेमल के पेड़ पर एक चील और उसके नीचे एक सियारिन रहती थी। दोनों घनिष्ठ सहेलियां थीं। उन्होंने स्त्रियों को जितिया व्रत करते देखा और यह व्रत करने का संकल्प लिया। लेकिन व्रत वाले दिन सियारिन अपनी भूख न रोक सकी और शवदाह स्थल पर जाकर भोजन कर लिया। उसका व्रत भंग हो गया, जबकि चील ने नियमपूर्वक उपवास किया।
अगले जन्म में चील शीलवती नाम से ब्राह्मण परिवार में जन्मी और सियारिन कपुरावती बनी। शीलवती के सात पुत्र हुए, जबकि कपुरावती की संतानें जन्म लेते ही मर जाती थीं। ईर्ष्यावश कपुरावती ने शीलवती के पुत्रों की हत्या करवाई, परंतु भगवान जीमूतवाहन ने उन सभी को पुनर्जीवित कर दिया। व्रत में नियम और संयम का पालन ही संतान की रक्षा का मूल है।
जीमूतवाहन की संक्षिप्त कथा : एक अन्य कथा के अनुसार गंधर्वों के राजकुमार जीमूतवाहन बड़े परोपकारी और त्यागी थे। उन्होंने राज्य त्यागकर वन में जीवन बिताना चुना।
वन में उन्हें एक नागवंशी वृद्धा मिली, जो अपने पुत्र शंखचूड़ की बलि को लेकर विलाप कर रही थी। नागों को प्रतिदिन गरुड़ को भक्षण हेतु एक नाग देना होता था। उस दिन वृद्धा का पुत्र बलि के लिए नियत था। जीमूतवाहन ने वृद्धा को ढांढ़स बंधाया और स्वयं उसकी जगह बलि देने का निश्चय किया। वे लाल वस्त्र ओढ़कर वध्य-शिला पर लेट गए। गरुड़ ने उन्हें पकड़कर मांस नोचना शुरू किया। दर्द से उनकी आँखों से आँसू बह निकले। जब कारण पूछा तो जीमूतवाहन ने कहा, “ मैं किसी की संतान की रक्षा हेतु अपना जीवन अर्पित कर रहा हूँ।”
उनके त्याग से प्रभावित होकर गरुड़ ने नागों की बलि लेना सदा के लिए छोड़ दिया और उन्हें वरदान दिया कि “जो स्त्री इस व्रत को करेगी और यह कथा सुनेगी, उसकी संतान मृत्यु से भी सुरक्षित रहेगी।”
महाभारत और नैमिषारण्य की संक्षिप्त कथा
महाभारत युद्ध के बाद जब अश्वत्थामा ने द्रौपदी के पुत्रों की हत्या की, तो शोकाकुल द्रौपदी ने ऋषि धौम्य से उपाय पूछा। धौम्य ने बताया कि सत्ययुग में जीमूतवाहन के त्याग के कारण यह व्रत लोक में प्रसिद्ध हुआ।
इसी प्रकार नैमिषारण्य में जब ऋषियों ने सूतजी से कलियुग में संतान रक्षा का उपाय पूछा तो उन्होंने यही कथा सुनाई। सूतजी ने कहा, “आश्विन कृष्ण अष्टमी को यह व्रत संतान की रक्षा का व्रत है। जो स्त्रियां इसे श्रद्धा से करेंगी, उनके पुत्र दीर्घायु होंगे।”
जीवितपुत्रिका व्रत केवल एक उपवास नहीं, बल्कि मातृत्व की ममता और संतान के लिए त्याग का उत्सव है। इस दिन महिलाएं समूह में बैठकर लोकगीत गाती हैं, कथा सुनती हैं और जीमूतवाहन के त्याग को स्मरण करती हैं।
यह व्रत यह संदेश देता है कि मातृत्व केवल जन्म देने तक सीमित नहीं, बल्कि संतान की रक्षा के लिए त्याग और तपस्या का मार्ग है। संयम, नियम और आस्था से किया गया व्रत जीवन में चमत्कार ला सकता है।
जीवितपुत्रिका व्रत भारतीय माताओं की संतान के प्रति गहन ममता और त्याग का प्रतीक है। यह व्रत याद दिलाता है कि जैसे जीमूतवाहन ने नागवंश को बचाने के लिए अपने प्राणों का बलिदान दिया, वैसे ही हर माता अपनी संतान की रक्षा के लिए जीवन भर त्याग करने को तैयार रहती है। यही कारण है कि आज भी यह व्रत आस्था और विश्वास के साथ करोड़ों माताओं द्वारा मनाया जाता है।
