दूर्वा अष्टमी व्रत कथा

भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को दूर्वा अष्टमी व्रत किया जाता है। यह व्रत विशेष रूप से भगवान गणेश को समर्पित है। शास्त्रों में कहा गया है कि गणेश जी दूर्वा (दूब घास) के अत्यंत प्रिय हैं। इसलिए इस दिन गणपति का पूजन दूर्वा के साथ करने से विशेष पुण्य फल मिलता है। मान्यता है कि इस व्रत से जीवन में आने वाली सभी विघ्न-बाधाएं दूर होती हैं और सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है।

इस व्रत को करने से घर में सदैव लक्ष्मी का वास रहता है और जीवन में आने वाले संकट दूर होते हैं। विशेषकर विवाह में बाधा, संतान सुख में विलंब और आर्थिक कठिनाइयों को यह व्रत दूर करता है। जो स्त्रियाँ यह व्रत करती हैं, उनके पति की आयु लंबी होती है और परिवार में सौभाग्य बढ़ता है।

व्रत विधि

प्रातः स्नान कर शुद्ध वस्त्र पहनें।

व्रत का संकल्प लें।

एक चौकी पर गणेश जी की प्रतिमा या चित्र स्थापित करें।

गणेश जी को दूर्वा (21, 51 या 108 संख्या में) अर्पित करें।

मोदक, लड्डू, लाल फूल और सिंदूर से पूजन करें।

गणेश मंत्र का जप करें –“ॐ गं गणपतये नमः”

व्रत कथा सुनकर, आरती करके प्रसाद वितरित करें।

दूर्वा अष्टमी व्रत कथा :  प्राचीन काल में एक राजा और रानी रहते थे। उनके राज्य में धन, वैभव सब कुछ था, परंतु संतान सुख का अभाव था। राजा-रानी ने कई व्रत-तप किए, परंतु उन्हें कोई संतान नहीं हुई। दुखी होकर वे वन की ओर चले गए और वहाँ एक महान ऋषि से मिले।

ऋषि ने कहा – “हे राजन! भगवान गणेश ही सभी विघ्नों का नाश करने वाले हैं। भाद्रपद शुक्ल अष्टमी को आप गणेश जी का दूर्वा अर्पित कर विधिवत पूजन करें और उनका व्रत करें। ऐसा करने से आपको मनोकामना सिद्ध होगी।”

राजा-रानी ने ऋषि के बताए अनुसार व्रत किया। उन्होंने 21 दूर्वा के束 (गुच्छे) बनाकर गणेश जी को अर्पित किए और पूरे श्रद्धाभाव से पूजन किया। गणेश जी प्रसन्न हुए और उन्हें संतान सुख का आशीर्वाद दिया। कुछ समय बाद रानी ने एक सुंदर पुत्र को जन्म दिया।

तभी से यह व्रत प्रसिद्ध हुआ। जो भी इस व्रत को विधि-विधान से करता है, उसकी सभी इच्छाएँ पूरी होती हैं और जीवन में कोई विघ्न नहीं रहता।


व्रत का फल

संतान सुख की प्राप्ति।

विवाह और जीवन की बाधाओं का निवारण।

परिवार में सुख, शांति और समृद्धि।

रोग, शोक और संकट से रक्षा।

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