हरितालिका तीज व्रत की पौराणिक कथा

 विनोद कुमार झा

भादो का महीना जब धरती पर उतरता है, तो मानो प्रकृति नया श्रृंगार कर लेती है। खेत-खलिहान, बाग-बगिचे, पहाड़ियाँ और नदियाँ, सब हरियाली से लिपटे हुए प्रतीत होते हैं। चारों ओर पेड़ों की डालियों पर झूले झूलते हैं। महिलाओं के हाथों में मेहंदी की खुशबू होती है। गीतों की गूंज से वातावरण मधुर हो उठता है।

भादो का यही मौसम हरितालिका तीज का पर्व लेकर आता है। यह पर्व विशेष रूप से उत्तर भारत में, स्त्रियों के सौभाग्य और प्रेम का प्रतीक माना जाता है। इस दिन विवाहित स्त्रियाँ, अपने पतियों की लंबी आयु और अखंड सौभाग्य के लिए व्रत रखती हैं। अविवाहित कन्याएँ, उत्तम पति की कामना से यह व्रत करती हैं। यह केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि स्त्री के प्रेम, समर्पण और धैर्य का अद्वितीय प्रतीक है।

हरितालिका तीज का संबंध माता पार्वती और भगवान शिव के पावन मिलन से है। यह वही दिन है, जब माता पार्वती ने शिव को पति के रूप में प्राप्त करने के लिए, अटूट तपस्या की थी। उनकी भक्ति के बल पर ही यह संयोग संभव हुआ। इस पर्व का मूल मंत्र है – सच्चा प्रेम, धैर्य, और विश्वास।

हरितालिका व्रत एक अत्यंत महत्वपूर्ण और पवित्र व्रत है। इसे विशेष रूप से भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को रखा जाता है। यह व्रत मुख्यतः सौभाग्य, सुखमय दांपत्य जीवन और अखंड सुहाग की प्राप्ति के लिए किया जाता है। इस व्रत को करने वाली महिलाएँ, भगवान शिव और माता पार्वती की पूजा करती हैं। इसका नाम "हरितालिका" दो शब्दों से मिलकर बना है – हरि, जिसका अर्थ है हरण करना, और तालिका, जिसका अर्थ है सखी।

पौराणिक मान्यता के अनुसार, यह व्रत माता पार्वती ने स्वयं भगवान शिव को पति रूप में पाने के लिए किया था। कथा इस प्रकार है।

एक समय की बात है। पर्वतराज हिमालय की कन्या पार्वती का विवाह, उनके पिता ने भगवान विष्णु के साथ करने का निश्चय किया। किंतु पार्वती बचपन से ही भगवान शिव को अपना पति मान चुकी थीं। जब उन्हें यह ज्ञात हुआ कि उनका विवाह किसी और के साथ तय कर दिया गया है, तो वे अत्यंत दुखी हुईं।

पार्वती जी ने अपनी सखी से अपनी व्यथा कही। तब उनकी सखी ने उन्हें सलाह दी कि वे अपने पिता के घर से निकल जाएँ, और घने जंगल में जाकर कठोर तपस्या करें। सखी ने उन्हें साथ लेकर वन में पहुँचाया। इसी कारण इस व्रत का नाम हरितालिका पड़ा। क्योंकि सखी ने पार्वती को हरण किया, यानी घर से दूर ले गई, और सखी बनकर वन में पहुँचाया।

वन में पहुँचकर माता पार्वती ने निर्जल रहकर भगवान शिव की आराधना की। भाद्रपद शुक्ल पक्ष की तृतीया को उन्होंने मिट्टी से शिवलिंग बनाकर उसकी पूजा की, और पूरे दिन व्रत रखा। पार्वती जी की कठोर तपस्या और अटूट भक्ति से भगवान शिव प्रसन्न हुए। उन्होंने पार्वती जी को वरदान दिया कि वे ही उनकी पत्नी बनेंगी।

कुछ समय बाद, हिमालय भी समझ गए कि उनकी पुत्री भगवान शिव को ही पति के रूप में चाहती हैं। तब उन्होंने पार्वती का विवाह महादेव से कर दिया।

तभी से यह व्रत स्त्रियों के लिए सौभाग्य प्राप्ति और दांपत्य सुख का प्रतीक बन गया। विवाहित महिलाएँ इस व्रत को पति की दीर्घायु के लिए करती हैं। वहीं अविवाहित कन्याएँ, उत्तम वर की प्राप्ति के लिए।

एक और पौराणिक कथा के अनुसार, हिमालय पर्वत की पुत्री पार्वती का जन्म, एक ऐसे समय में हुआ जब देवताओं के मन में असुरों से युद्ध की चिंता थी। देवताओं को पता था कि भगवान शिव यदि विवाह करेंगे, तो एक ऐसे पुत्र का जन्म होगा जो असुरों का संहार करेगा।

पार्वती बचपन से ही अत्यंत सुंदर, तेजस्विनी और विनम्र स्वभाव की थीं। जब वे कुछ बड़ी हुईं, तो उनके कानों में बार-बार भगवान शिव की महिमा का वर्णन गूंजता। ऋषि-मुनियों और तपस्वियों के मुख से शिव की अद्वितीय महानता की बातें सुनकर, उनके मन में यह दृढ़ संकल्प जन्मा कि वे शिव को ही पति के रूप में प्राप्त करेंगी।

समय आया जब हिमालय ने अपनी पुत्री के लिए विवाह का विचार किया। उन्होंने कई योग्य वरों के नाम सुझाए। पर पार्वती ने स्पष्ट शब्दों में कहा –
“पिताश्री! मैं केवल महादेव को ही पति के रूप में स्वीकार करूंगी। यदि मुझे वे न मिले, तो मैं आजीवन अविवाहित रहूंगी।”

हिमालय चिंतित हो उठे। भगवान शिव का स्वभाव योगी का था। वे भस्म से लिपटे रहते, गले में सर्प धारण करते, और कैलाश पर्वत पर समाधि में लीन रहते। उनका गृहस्थ जीवन से कोई संबंध नहीं था। फिर भी पार्वती ने अपने निश्चय से पीछे हटने से इंकार कर दिया।

उन्होंने माता मैना से आशीर्वाद लिया और वन में जाकर कठोर तपस्या आरंभ की। प्रारंभ में उन्होंने केवल फल-फूल खाए। फिर केवल पत्तों पर जीवित रहीं। और अंत में पत्ते भी छोड़ दिए। वे केवल वायु पर जीवित थीं। उनकी तपस्या इतनी भीषण थी कि देवता भी उनके धैर्य को देखकर विस्मित हो उठे।

वन में पार्वती अकेली बैठी थीं। उनके चारों ओर घना जंगल, जंगली पशुओं की गर्जना, ठंडी हवाएँ, और कभी-कभी प्रचंड वर्षा। वे अपनी आँखें मूंदकर शिव के ध्यान में लीन रहतीं। उनके होंठों से केवल यही शब्द निकलते –
“ॐ नमः शिवाय… ॐ नमः शिवाय…”

कभी वे सोचतीं –
“हे महादेव! यदि आप मेरी भक्ति से प्रसन्न नहीं हुए, तो यह जीवन व्यर्थ है। मैं आपको छोड़कर किसी और की कल्पना भी नहीं कर सकती।”

उनके तन क्षीण हो गए, पर मन दृढ़ बना रहा। यही वह धैर्य और संकल्प था, जिसने इतिहास रच दिया।

अंततः भगवान शिव पार्वती की भक्ति से प्रसन्न हुए। किंतु उन्होंने पार्वती की दृढ़ता की परीक्षा लेने का निश्चय किया। उन्होंने एक ब्राह्मण का रूप धारण किया और पार्वती के पास पहुँचे।

ब्राह्मण बोले –
“कन्या! तुम किसकी तपस्या कर रही हो?”

पार्वती ने मुस्कुराकर कहा –
“भगवान शिव की।”

ब्राह्मण ने हँसते हुए कहा ,“शिव? वे तो विरक्त योगी हैं। उनके पास न धन है, न गृह। वे तो श्मशान में रहते हैं, भस्म धारण करते हैं, गले में साँप लपेटते हैं। ऐसे व्यक्ति को पति बनाना चाहती हो?”

पार्वती ने दृढ़ स्वर में उत्तर दिया ,“हाँ! क्योंकि वे केवल योगी ही नहीं, सम्पूर्ण ब्रह्मांड के स्वामी हैं। उनका वैभव भौतिक नहीं, दिव्य है। मैं उन्हें छोड़कर किसी और को नहीं चाहती।”

यह सुनकर भगवान शिव अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने अपना वास्तविक स्वरूप प्रकट किया और कहा –
“देवि! तुम्हारी भक्ति, निष्ठा और धैर्य के आगे मैं अभिभूत हूँ। आज से तुम मेरी अर्धांगिनी हो।”

भगवान शिव और माता पार्वती का विवाह श्रावण मास की शुक्ल तृतीया को हुआ। हिमालय के महल में यह विवाह भव्य रूप से संपन्न हुआ। देवता, गंधर्व, अप्सराएँ, सभी इस दिव्य विवाह के साक्षी बने। चारों ओर संगीत गूँज उठा। पुष्पवृष्टि होने लगी।

शिव बारात लेकर आए, जिसमें भूत-प्रेत, गण और देवता सम्मिलित थे। बारात का यह दृश्य विचित्र होते हुए भी अद्भुत था। विवाह की सभी रस्में वेद मंत्रों के साथ संपन्न हुईं। इस प्रकार पार्वती का संकल्प पूर्ण हुआ और उनका प्रेम अमर हो गया।

इसी विवाह की स्मृति में यह व्रत मनाया जाता है। विवाहित महिलाएँ इस दिन निर्जल व्रत रखती हैं और माता पार्वती का पूजन कर अखंड सौभाग्य की कामना करती हैं। अविवाहित कन्याएँ उत्तम वर की प्राप्ति के लिए यह व्रत करती हैं।

व्रत की विधि
सुबह स्नान करके नए वस्त्र धारण करें।
इस व्रत में निर्जल उपवास करने का विधान है।
महिलाएँ मिट्टी के शिव-पार्वती की प्रतिमा बनाकर पूजा करती हैं।
रात्रि में जागरण और भजन-कीर्तन करने का महत्व है।
व्रत का पारण अगले दिन सूर्योदय के बाद किया जाता है।
भगवान शिव-पार्वती का पूजन करें।
बेलपत्र, धतूरा, आक, चंदन और सुहाग सामग्री अर्पित करें।
हरितालिका तीज की कथा सुनें।
निर्जल व्रत रखें और रात्रि में पूजा के बाद ही जल ग्रहण करें।

भादो की हरियाली में महिलाएँ सखियों संग झूले झूलती हैं। गीत गाती हैं –
“कच्ची कली कचनार की, सावन आया…”

उनके हाथों में मेंहदी, पैरों में पायल, और चेहरे पर अद्भुत खुशी झलकती है। यह पर्व केवल धार्मिक नहीं, बल्कि प्रकृति, प्रेम और स्त्री शक्ति का उत्सव है।

हरितालिका तीज हमें यह सिखाती है कि सच्चा प्रेम धैर्य और समर्पण से ही पूर्ण होता है। यह व्रत केवल परंपरा नहीं, बल्कि स्त्री की शक्ति, साहस और निष्ठा का प्रतीक है।

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जय शिव शंकर।

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