अटकलों के बीच उपराष्ट्रपति धनखड़ का इस्तीफा?

 

देश की राजनीति में जब भी कोई उच्च constitutional पद पर आसीन व्यक्ति अपने निर्णयों, वक्तव्यों या संभावित इस्तीफे को लेकर चर्चा में आता है, तो यह स्वाभाविक रूप से जनमानस, लोकतंत्र और संस्थाओं की भूमिका पर गहरा प्रभाव डालता है। इन दिनों देश के उपराष्ट्रपति श्री जगदीप धनखड़ को लेकर चर्चाओं का एक नया सिलसिला छिड़ा हुआ है। सवाल उठता है क्या अकलों की टकराहट के बीच उपराष्ट्रपति धनखड़ इस्तीफा दिए?

लेकिन जिस तरह की राजनीतिक घटनाएं, पार्लियामेंट्री गतिरोध और संवैधानिक संस्थाओं की भूमिका को लेकर बयानबाज़ी हो रही है, वह संकेत ज़रूर देती है कि संस्थागत संतुलन और गरिमा संकट में है। धनखड़ जैसे अनुभवी और संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति की भूमिका केवल संसदीय कार्यवाही संचालित करने तक सीमित नहीं है, बल्कि वे देश के लोकतांत्रिक ढांचे के एक प्रमुख स्तंभ माने जाते हैं। हालिया घटनाक्रमों में यह देखा गया कि राज्यसभा की कार्यवाही के संचालन को लेकर विपक्ष और उपराष्ट्रपति के बीच तल्ख़ी बढ़ती गई। विपक्ष का आरोप है कि उन्हें पर्याप्त बोलने नहीं दिया जा रहा, जबकि उपराष्ट्रपति इस बात पर अड़े रहे कि सदन की गरिमा और नियमों का पालन सर्वोपरि है। दोनों पक्ष अपने-अपने स्थान पर सही हो सकते हैं, लेकिन परिणामस्वरूप यह स्थिति एक संवैधानिक टकराव का रूप लेने लगी है।

यहां यह सवाल उठना लाज़िमी है कि यह लड़ाई तर्क और अटकल की है या राजनीतिक हितों की? उपराष्ट्रपति धनखड़, जो पहले एक तेज़तर्रार वकील और फिर एक मुखर राज्यपाल रह चुके हैं, उनकी स्वतंत्र सोच और निष्पक्षता अक्सर सत्ता पक्ष की ‘रेखाओं’ से अलग नज़र आई है। यही स्वतंत्रता शायद कई ताकतवर राजनीतिक ताकतों को असहज करती है। उनके अनेक भाषणों में न्यायपालिका की भूमिका, संसद की सर्वोच्चता और संविधान की आत्मा को लेकर दिए गए बयान कई बार सुर्खियों में आए हैं। क्या यह संभव है कि ऐसे विचार उपराष्ट्रपति को दबाव में लाकर किनारे करने की एक प्रक्रिया का हिस्सा बन चुके हैं? या फिर वे स्वयं ही मौजूदा परिस्थितियों से क्षुब्ध होकर अपने पद से अलग होने का मन बना चुके हैं?

यदि यह अटकलें सही साबित होती हैं और उपराष्ट्रपति का इस्तीफा, तो यह न सिर्फ एक संवैधानिक संकट को जन्म देगा, बल्कि देश में निष्पक्षता और गरिमापूर्ण संवैधानिक व्यवहार की एक गहन बहस भी शुरू करेगा। यह स्थिति दर्शाएगी कि लोकतंत्र की बुनियादी संस्थाएं कितनी दबाव में काम कर रही हैं और कितना स्वतंत्र रूप से निर्णय लेने का साहस रखती हैं। धनखड़ का इस्तीफा तो वह केवल एक व्यक्ति का पद त्याग नहीं होगा, बल्कि यह एक व्यवस्था के सामने आइना होगा जिसमें संस्थागत गरिमा और लोकतंत्र के मूल्यों के बीच टकराव हो रहा है।

उपराष्ट्रपति जैसे उच्च पद पर बैठे व्यक्ति का इस्तीफा कोई साधारण बात नहीं होती। यह न केवल वर्तमान राजनीतिक परिवेश की गहराई को उजागर करता है, बल्कि लोकतंत्र की जड़ों में हो रहे संभावित क्षरण की ओर भी संकेत करता है। अकलों के बीच यह टकराव अगर संवाद, धैर्य और संविधान की भावना के साथ नहीं सुलझा, तो देश को इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है। इसलिए, सभी पक्षों को चाहिए कि वे अपने-अपने ‘अहं’ को अलग रखकर लोकतंत्र की मर्यादा, संविधान की आत्मा और जनता के विश्वास को सर्वोपरि मानें। इस्तीफे से पहले संवाद की संभावना हमेशा होनी चाहिए क्योंकि यही लोकतंत्र की असली ताकत है।

- संपादक

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