विनोद कुमार झा
आधुनिक युवा की हथेली पर खिंची लकीरें आज किस्मत नहीं, संघर्ष और विकल्पों का प्रतीक बन चुकी हैं। बीते युगों में जहां जीवन की दिशा जन्म से तय मानी जाती थी, वहीं आज का युवा स्वयं अपने लिए रास्ता बना रहा है कई बार समाज से उलझते हुए, कई बार अपनों से लड़ते हुए, और कई बार खुद के भीतर जूझते हुए। यह लेख उसी संघर्ष, संकल्प और समर्पण की कहानी है आज के युवा की हथेली की लकीर की कहानी।
आज का युवा सपने देखना जानता है, लेकिन वे सपने अब दादी की कहानियों जैसे सीधे-सादे नहीं रहे। अब उनके रंग बदल गए हैं, उनकी आकृतियाँ विकराल हो चली हैं। एक तरफ अभिभावकों की आकांक्षाएं हैं डॉक्टर, इंजीनियर, सरकारी अफसर बनने की तो दूसरी तरफ है युवा की अपनी चाह यूट्यूबर, स्टार्टअप फाउंडर, गेम डेवेलपर या संगीतकार बनने की।
“तू IAS बनेगा” माँ ने कहा था। “पर मैं फिल्म बनाना चाहता हूँ,” उसने मन में कहा था। इस द्वंद्व ने एक पीढ़ी को भीतर ही भीतर कुंठित कर दिया है। नतीजतन या तो वे अपना मन मारते हैं, या परिवार की उम्मीदें।
शिक्षा आज योग्यता की नहीं, प्रतिस्पर्धा की परीक्षा बन गई है। कोचिंग की दुकानों में आत्माओं की बिक्री होती है। लाखों अभ्यर्थियों की भीड़ में एक अदद नौकरी का सपना देखता युवा अपनी ज़िंदगी के सबसे कीमती साल गँवा देता है। वह सोचता है कि "जो मेरे हाथ की लकीरें कहती हैं, क्या वो कभी सच्चाई बनेंगी?"
“रिजल्ट आने के बाद का सन्नाटा, उससे बड़ा होता है तैयारी के सालों का शोर।” किसी का पाँच साल का प्रेम एक असफल UPSC प्रयास के साथ खत्म हो जाता है, किसी की उम्र निकल जाती है बायोडाटा बनाते-बनाते।
आज का युवा भावनात्मक रूप से खुला है, पर रिश्तों में स्थिरता की कमी है। दोस्ती अब स्क्रीन पर टिक-टिक करती चैट बन चुकी है। प्रेम में गहराई की जगह इंस्टाग्राम स्टोरीज आ गई हैं। और जब दिल टूटता है, तो कंधा देने वाला नहीं मिलता, बस एक "ब्रो, मूव ऑन" मिल जाता है।
"आजकल के रिश्ते टिकाऊ नहीं, इंस्टैंट नूडल्स जैसे हैं।"और यहीं युवा भीतर ही भीतर अकेला हो जाता है, भले वह सोशल मीडिया पर कितना भी 'एक्टिव' क्यों न हो।
तकनीक ने युवा को दुनिया से जोड़ दिया है, लेकिन स्वयं से तोड़ दिया है। पहले किताबें जिंदगी सिखाती थीं, अब रील्स सिखाती हैं। बड़ों से संवाद खत्म हो गया है गूगल से पूछ लिया जाता है कि "मुझे क्या करना चाहिए?"
"हम वो पीढ़ी हैं जो स्क्रीन से रौशनी लेती है, पर अंधेरे में जीती है।"स्व-विकास की जगह सोशल वैलिडेशन आ गया है। 'फॉलोअर्स' की गिनती आत्म-संतुष्टि का मानक बन गई है। लेकिन आत्मा पूछती है, “क्या मैं सच में खुश हूँ?”
आत्महत्या की खबरें अब अखबारों में आम हो चली हैं। कारण? असफलता नहीं, अकेलापन। एक युवा जो रात को अपने बिस्तर पर फोन में मुस्कराता दिखता है, भीतर से टूट चुका होता है। डिप्रेशन, एंग्ज़ायटी, इनसोम्निया अब सिर्फ मनोवैज्ञानिक शब्द नहीं, आज की पीढ़ी की पहचान बन गए हैं।
"हम मुस्कान की तस्वीरें डालते हैं, पर भीतर के आँसुओं को कोई नहीं देखता।" किसे बताएं कि मन डगमगा रहा है? माँ को? जो पहले से चिंता में डूबी है? या दोस्त को? जो खुद जूझ रहा है।
फिर भी, यही युवा आशा का दीपक जलाता है। यही वह पीढ़ी है जिसने स्टार्टअप संस्कृति को जन्म दिया, पर्यावरण आंदोलनों को आवाज दी, और लैंगिक समानता के मुद्दों को मुखर किया। वही युवा जो एक बार असफल हुआ, खुद से लड़कर खड़ा हुआ और नए रास्ते पर चल पड़ा।
"हम हार मानना नहीं जानते। हम वे हैं जो रेत पर लकीर खींच कर भी भविष्य लिखते हैं।"हर हार के बाद उठने वाला यह युवा हथेली की लकीरों को बदलना सीख गया है।
आज का युवा न तो परंपराओं का विरोधी है, न ही आधुनिकता का अंधभक्त। वह संतुलन चाहता है जहाँ परिवार भी रहे, और आत्मनिर्भरता भी। वह 'संस्कार' से भागता नहीं, पर 'संकीर्णता' से लड़ता है। वह आज के जमाने का अर्जुन है, जिसे लक्ष्य भी दिखता है और मार्ग भी।
इस पीढ़ी की सबसे बड़ी लड़ाई पहचान की है। कॉलेज, कोचिंग, कैरियर सब कुछ होते हुए भी जब रात में अकेला होता है, तो सवाल करता है “मैं कौन हूँ?”, “क्या मेरा अस्तित्व किसी स्कोर या सीवी से परिभाषित होता है?” यहीं पर आत्मिक जागृति की आवश्यकता है युवाओं को यह जानना होगा कि वे मशीन नहीं हैं, वे आत्मा हैं। अंततः, युवा की हथेली की लकीर न तो जन्म से तय होती है, न ही भाग्य के भरोसे। यह उसके विचारों, कर्मों और आत्मबल से बनती है। आज की पीढ़ी को समझना होगा कि जीवन का अर्थ सिर्फ सफलता नहीं, संतुलन और संतोष भी है। और यह तभी संभव है जब वे स्वयं को पहचानें, आत्मा की आवाज़ सुनें, और समाज में सकारात्मक परिवर्तन लाएं।
लकीरें हाथों की नहीं, इरादों की होती हैं। जो चलते हैं अडिग, वही बदलते हैं दिशा भी और दशा भी।