-कभी-कभी प्रेम शब्दों से नहीं, सिर्फ़ निगाहों से बोला जाता है...
-प्रेम का सबसे सुंदर रूप वह होता है, जिसमें चुप्पी बोलती है और आंखें सुनती हैं।"
विनोद कुमार झा
एक दिन रेलवे स्टेशन की उस हल्की भीड़ में जब पहली बार उसकी आंखों से सामना हुआ, तो मुझे कुछ भीड़भाड़ नहीं लगी। मानो समय थम गया हो। वो गहरे काजल से सजी आंखें किसी उपन्यास के अधूरे पन्ने सी लगती थीं, जिन्हें पढ़ने की चाह तो थी, पर छूने की हिम्मत नहीं होती। उसकी निगाहों में एक अद्भुत गहराई थी, जो शब्दों से परे, सीधे दिल में उतरती थी।
मैं एक #पत्रकार था शब्दों में जीने वाला, कहानियों में सांस लेने वाला। और वो? वो खुद किसी अधूरी कविता की तरह थी। मेरी कहानी की नायिका बनने के लिए जैसे कुदरत ने उसे भेजा हो। उसका नाम पूछने की #हिम्मत भी नहीं हुई पहले कुछ दिनों तक, बस हर रोज स्टेशन पर एक ही समय आकर उसका इंतज़ार करता था। वो आती, एक बार मेरी ओर देखती, मुस्कुराती और चली जाती।
रोज़ की तरह एक दिन मैं अपने कैमरा बैग को संभालते हुए दिल्ली स्टेशन की ओर बढ़ रहा था। पत्रकार की जिंदगी भी अजीब होती है ख़बरों की तलाश में सड़कों की धूल निगलते हैं, और जब कोई खबर नहीं होती तो हम चेहरे पढ़ते हैं।
दिल्ली के इस व्यस्त स्टेशन पर मेरे लिए कोई #खबर नहीं थी, पर एक चेहरा ज़रूर था जो रोज़ की आदत बन चुका था। वही चेहरा जिसकी आंखों में गहरे काजल की लकीरें थीं, इतनी गहरी कि उसमें मैं खुद को हर रोज़ डूबता महसूस करता।
वो लड़की कोई खास नहीं थी दुनिया के लिए। सादे कपड़े, किताबों से भरा बैग और एक ठंडी सी मुस्कान। लेकिन उसकी आंखें... उन आंखों में जैसे कहानियां तैरती थीं। कोई अधूरी कविता, कोई अनकहा वादा या शायद कोई टूटा हुआ सपना।
पहली बार उसे देखा तो वो #मेरे ठीक सामने वाली बेंच पर बैठी थी। वो ‘निर्मल वर्मा’ की कोई किताब पढ़ रही थी, और हर दो मिनट बाद अपनी उंगलियों से आंखों के काजल को हल्के से छूती थी, मानो उसे दुरुस्त कर रही हो।
मैंने कैमरा उठाया था उस पल, लेकिन फोटो नहीं खींचा। कुछ तस्वीरें सिर्फ आंखों में कैद होनी चाहिए। दिन बीतते गए। मैं रोज़ उस वक्त वहीं रहने लगा जिस वक्त वो आती थी। वो भी शायद मुझे नोटिस करती थी, पर कहती कुछ नहीं। एक-दो बार हमारी नजरें मिलीं। मैंने हल्की मुस्कान दी, उसने पलकों से जवाब दिया।
एक दिन जब मैं अपने कैमरे से झुका कुछ सेटिंग बदल रहा था, तब एक कागज़ का टुकड़ा मेरे पास गिरा। उसमें एक पंक्ति लिखी थी, #“हर रोज़ आंखों से जो कहा, कभी शब्दों में कहूं तो डर लगे।” मैंने चारों ओर देखा, वो जा चुकी थी। लेकिन उस दिन से हमारी 'बिना कहे' की बातचीत शुरू हो चुकी थी।अब वो कभी एक गुलाब गिरा देती, कभी कोई अधूरी कविता। मैं पढ़ता, मुस्कुराता और अगली मुलाकात की प्रतीक्षा करता।
देखते- देखते काफी दिन हो गए लेकिन हमने अभी तक एक-दूसरे का नाम नहीं पूछा था। मुझे उसके लिए नाम की जरूरत नहीं थी, मैं उसे 'काजल' कहने लगा था अपनी डायरी में, ख़्यालों में, और ख्वाबों में।
एक दिन हिम्मत जुटाकर मैंने पूछ ही लिया, "आपके काजल का रंग इतना गहरा क्यों लगता है?"#वो मुस्कुराई और बोली"शायद उसमें मेरी नींदें बसी हैं... और कुछ अधूरे सपने भी।" फिर मैंने सोचा मैं तो नाम के बारे पूछना था लेकिन मैं पूछ लिया काजल के बारे में। आखिर मैं हार मानने वाले नहीं हूं। दूसरे दिन #खुद को रोक नहीं पाया और पूछा" आपका नाम क्या है? वो मुस्कुराई, और बोली ,"नाम जानोगे तो सब कुछ बहुत आसान हो जाएगा... फिर तुम्हारे सवाल खत्म हो जाएंगे। वैसे भी, हर प्रेम कहानी में एक रहस्य होना ही चाहिए।"
मैं चुप हो गया, लेकिन मेरे अंदर एक बेचैनी घर कर गई। काजल की ये पहेली मुझे आकर्षित करती थी, मगर अब मैं उसके बारे में सब जानना चाहता था।
एक शाम उसने मेरी जेब में एक और नोट डाला: “कल तुम्हारे साथ कॉफ़ी पी सकती हूं, अगर तुम पूछो तो।” मैंने तुरंत मुड़कर देखा, वो वहीं खड़ी थी, थोड़ी शरमाई हुई सी। मैंने कहा, “कॉफ़ी तो ज़रूर, पर नाम के बिना कैसे?”
वो हँसी “काजल बुला सकते हो। तुम वैसे भी यही सोचते हो, है ना?” मैं चौंका। क्या वो मेरे मन की बात जानती थी? क्या वो मेरी डायरी पढ़ी थी?
हमने स्टेशन के पास वाली उस पुरानी सी कॉफ़ी शॉप में एक कॉफ़ी साझा की। उसने बताया कि वो लिटरेचर की रिसर्च स्कॉलर है, और उसका शोध विषय है "प्रेम की चुप्पी में संप्रेषण"। मैं मुस्कुराया “तो हम दोनों एक ही कहानी के किरदार हैं, बस भाषा अलग है।”
हमारी मुलाकातें अब लगातार होने लगीं। अब वो सिर्फ स्टेशन की नहीं, मेरी ज़िंदगी की भी आदत बन चुकी थी। लेकिन ठीक वहीं से डर भी शुरू हुआ। उस दिन से हमारी मुलाकातें बढ़ने लगीं। वो किताबों से प्यार करती थी और मैं उसकी आंखों से। कभी-कभी वो मेरी जेब में कोई कविता रख जाती, बिना नाम के। मैं शब्दों को उलट-पलट कर पढ़ता, ताकि उसमे छिपा उसका स्पर्श महसूस कर सकूं।
कई बार मुझे उसकी आंखों में एक अजीब सी बेचैनी दिखती। जैसे कुछ कहना चाहती हो, मगर ज़ुबान साथ नहीं देती। एक दिन जब हम पुराने शहर की गलियों में घूम रहे थे, उसने अचानक कहा, "अगर मैं अचानक गायब हो जाऊं तो?"
मैंने मुस्कराते हुए कहा, "तो मैं हर स्टेशन, हर गली, हर कविता में तुम्हें ढूंढूंगा।" उसने पलटकर नहीं देखा। वो बस आगे चलती रही। एक दिन वो नहीं आई। दूसरे दिन भी नहीं। तीसरे दिन मैं स्टेशन पर देर तक बैठा रहा। और फिर चौथे दिन, एक बूढ़े पोस्टमैन ने मुझे एक लिफाफा थमाया। उसमें वही परिचित लिखावट थी,
"मुझे जाना पड़ा। कुछ अधूरी जिम्मेदारियां थीं। तुम्हारे शहर में तुम्हारा दिल छोड़ आई हूं।
आंखों में जो काजल था, अब वो मेरी नींदों में बस गया है।
माफ करना, बिना बताए चला जाना मेरी आदत नहीं थी, पर शायद प्रेम की सबसे सुंदर विदाई वही होती है, जो शब्दों के बिना हो।" यह पढ़ते ही मेरे लिए समय वहीं रुक गया।
करीब एक साल बीत गया। अब मैं शहर से दूर पहाड़ों में बस गया था। ज़िंदगी खबरों की नहीं, खामोशियों की हो गई थी। एक दिन पोस्ट ऑफिस में फिर वही लिफाफा मिला।
"क्या अब भी वहां स्टेशन पर तुम इंतज़ार करते हो?
क्या अब भी किसी कविता में मेरी परछाई नजर आती है?मैं भी तेरी खबरों में खुद को ढूंढ़ती रही, तेरे कॉलम में मेरी आंखों की परछाइयां दिखती रहीं। मैं लौट रही हूं। वही आंखें, वही काजल... क्या अब भी पढ़ लोगे मेरी चुप्पी को?"
मैं दौड़ा... दिल्ली लौट आया। और वहां, उसी बेंच पर, वो बैठी थी एक किताब हाथ में और आंखों में वही काजल। हम अब साथ हैं। शायद हमेशा के लिए। कभी-कभी हम बोलते नहीं, बस एक-दूसरे की आंखों में झांकते हैं।
अब मैं समझ गया हूं प्रेम उन शब्दों का मोहताज नहीं होता जो हम कहते हैं, बल्कि उन आंखों का जो सब कुछ बिन कहे कह जाती हैं। उसके काजल में अब मैं भी बसता हूं।
कभी-कभी प्रेम ना चीखा करता है, ना पुकारता है। वो बस आंखों में काजल की तरह सजा रहता है चुपचाप, मगर गहरा। और अगर दिल सच्चा हो, तो फिर वो लौट कर ज़रूर आता है... बिल्कुल उसी मुस्कान के साथ।