विनोद कुमार झा
भारतीय सनातन परंपरा में संकल्प को अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया है। यह केवल शब्दों का उच्चारण नहीं, बल्कि आत्मा की एक गंभीर और दृढ़ प्रतिज्ञा होती है, जिसे हम देवता, ऋषि, मंत्र और अपने अंतरात्मा के साक्षी में करते हैं। पूजा, व्रत, यज्ञ, जप, हवन, तीर्थ-स्नान या दान आदि किसी भी धार्मिक कार्य की शुरुआत संकल्प के बिना अधूरी मानी जाती है।
संकल्प वह आध्यात्मिक उद्घोष है, जिसके द्वारा साधक अपने मन, बुद्धि और चेतना को एकाग्र करके दिव्य ऊर्जा से जुड़ता है। इसमें व्यक्ति अपना नाम, गोत्र, स्थान, समय और अनुष्ठान का उद्देश्य स्पष्ट करता है। लेकिन प्रश्न उठता है कि 'पान का पत्ता, सुपारी और द्रव्य' (जैसे सिक्का या दक्षिणा) को लेकर ही संकल्प क्यों किया जाता है? क्या यह केवल परंपरा है या इसके पीछे कोई गूढ़ तात्त्विक रहस्य छिपा है? आइए जानते हैं विस्तार से:-
पान का पत्ता: संकल्प का हरित प्रतीक - पान का पत्ता भारतीय धार्मिक परंपरा में शुभता, पवित्रता और समर्पण का प्रतीक माना गया है। इसकी आकृति हृदय के आकार जैसी होती है, जो दर्शाती है कि साधक हृदयपूर्वक ईश्वर से जुड़ रहा है। शास्त्रों के अनुसार पान वायु तत्व से संबंधित होता है, जिससे मन की चंचलता शांत होती है और संकल्प में स्थिरता आती है। यह ब्रह्मा, विष्णु, महेश, लक्ष्मी, सरस्वती और गणेश जी को भी अर्पित किया जाता है। इसलिए संकल्प में पान का पत्ता यह सूचित करता है कि साधक हृदय की पूरी पवित्रता और निष्ठा से अनुष्ठान कर रहा है।
सुपारी: संकल्प की स्थायित्व भावना - सुपारी या Areca Nut को भारतीय संस्कारों में “स्थायित्व” और “अखंडता” का प्रतीक माना गया है। जब हम सुपारी लेकर संकल्प करते हैं, तो यह दर्शाता है कि हम जो व्रत या पूजन कर रहे हैं, उसमें पूर्ण निष्ठा, दृढ़ता और एकनिष्ठता से जुड़े हैं। सुपारी का गोल आकार चक्र की तरह है, जो ब्रह्मांडीय पूर्णता को दर्शाता है। इसे मंत्रों का “गवाह” भी माना गया है, जिससे संकल्प स्थायी बनता है। इसलिए सुपारी को लेकर संकल्प करना, एक अनंत ब्रह्म की उपस्थिति में अपने निर्णय की अटलता की पुष्टि करना है।
द्रव्य (सिक्का या दक्षिणा): त्याग और कर्म की चेतना - द्रव्य को हाथ में लेने का उद्देश्य है कि संकल्प मात्र वाणी का नहीं, कर्म का भी आरंभ है। यह दर्शाता है कि साधक अपने संसाधनों, धन और शक्ति का उपयोग धर्म के मार्ग पर करेगा। इसे ‘दक्षिणा’ के रूप में देवताओं को अर्पण करके, मनुष्य अपने अहं का त्याग करता है और खुद को पूर्णतः समर्पित करता है। द्रव्य का समर्पण, कर्मफल और कर्तव्य की प्रतीकात्मक स्वीकृति है। इसलिए द्रव्य को संकल्प में सम्मिलित करना, अपने भौतिक सामर्थ्य को भी आध्यात्मिक साधना में समर्पित करने का संकेत है।
आइए जानते हैं इस पर आधारित एक लघु कथा:-
गंगा के किनारे बसे एक छोटे से गांव में एक वृद्ध ब्राह्मण थे । उम्र भले ही 78 पार कर चुकी थी, लेकिन उनकी आंखों में आज भी वही तेज था जो किसी तपस्वी साधक का होता है। हर सुबह वे गंगा किनारे जाकर पूजन करते, संध्या में वेदपाठ करते और बच्चों को धर्मशास्त्र सिखाते। गांव का हर व्यक्ति उन्हें ‘चलता-फिरता शास्त्र’ मानता था।
एक दिन उनके शिष्य राजुल ने प्रश्न किया,“गुरुदेव, आप संकल्प लेते समय हमेशा पान का पत्ता, सुपारी और एक छोटा सिक्का क्यों पकड़ते हैं? क्या मंत्रों से ही संकल्प नहीं हो सकता?”
पंडित जी मुस्कुराए, जैसे वर्षों से यही प्रश्न किसी के मुख से सुनने की प्रतीक्षा कर रहे हों। उन्होंने अपने पास रखे एक छोटे पीतल के पात्र से पान का पत्ता, सुपारी और एक पुराना तांबे का सिक्का निकाला।
“राजुल,” वे बोले, “यह केवल प्रतीक नहीं, यह मेरी आत्मा के तीन रूप हैं।”
“कैसे?” राजुल ने जिज्ञासु होकर पूछा।
पंडित जी ने पान के पत्ते को हाथ में उठाया और कहा, “यह पत्ता हरा है, जीवित है — यह मेरे हृदय की शुद्धता का प्रतीक है। जब मैं इसे पकड़ता हूँ, तो मानता हूँ कि मेरा मन किसी दुर्भावना से दूषित न हो। मैं जो करूं, वह प्रेम और भक्ति से भरा हो।”
अब उन्होंने सुपारी को उठाया और बोला,“यह कठोर है, पर पूर्ण है जैसे मेरा संकल्प अटूट हो। जब यह हाथ में होती है, तो मैं अपने आप से कहता हूँ कि चाहे कुछ भी हो, मैं विचलित नहीं होऊँगा। मेरा व्रत, मेरी साधना, मेरी सेवा स्थिर और समर्पित रहे।”
फिर उन्होंने तांबे का सिक्का दिखाया। “यह मेरा द्रव्य है मेरे कर्म और त्याग का प्रतीक। मैं इससे यह दिखाता हूँ कि मैं अपनी शक्ति, अपनी संपत्ति और अपने अस्तित्व को ईश्वर के चरणों में समर्पित करता हूँ। यह मुझे याद दिलाता है कि पूजा केवल शब्दों की नहीं, त्याग की प्रक्रिया है।”
राजुल अब मौन था। वह देख रहा था कांपते हाथों में थमा पान का पत्ता अब जीवन का पाठ बन चुका था।
पंडित जी ने आंखें मूंद लीं, और फिर गंगा के जल में उन तीनों वस्तुओं को स्पर्श कराकर संकल्प पढ़ा,"मैं अमुक नाम, अमुक गोत्र, अमुक तिथि पर यह कार्य कर रहा हूँ... सत्य के पथ पर चलने का संकल्प करता हूँ..."गंगा की लहरों ने जैसे उस संकल्प को अपने साथ बहाकर ब्रह्मांड तक पहुँचा दिया।
उस दिन राजुल ने जाना संकल्प केवल शब्द नहीं, बल्कि हृदय, मन और जीवन का समर्पण है। और तीन वस्तुएं पान, सुपारी और द्रव्य इस त्रिविध समर्पण की प्रतीक साक्षी हैं।
त्रय तत्वों से पूर्ण होता है संकल्प : यही संकल्प है, जो किसी भी पूजा को आत्मा से जोड़ता है। और जो आत्मा से जुड़ गया, वह साक्षात् ईश्वर से भी दूर नहीं। जब पान का पत्ता (हृदय की शुद्धता), सुपारी (दृढ़ता) और द्रव्य (त्याग और समर्पण) को एक साथ लेकर संकल्प किया जाता है, तो वह केवल एक धार्मिक रिवाज नहीं रह जाता, बल्कि वह ब्रह्मांडीय ऊर्जा के समक्ष आत्मा का उद्घोष बन जाता है। ईश्वर की पूजा केवल कर्मकांड नहीं, बल्कि तन, मन और धन तीनों के समर्पण की प्रक्रिया है।
अतः जब भी अगली बार आप संकल्प करें, तो समझें कि आपके हाथ में एक पवित्र संकल्प की शक्ति है, जो आपको ब्रह्म से जोड़ती है।