देश की राजधानी दिल्ली से लेकर राजस्थान, पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश तक आसमान से बरसती आग ने जनजीवन को बेहाल कर दिया है। तापमान ने जहां 44 डिग्री का आंकड़ा पार किया है, वहीं हीट इंडेक्स 51 से 52 डिग्री तक पहुँचकर तपिश को असहनीय बना रहा है। सिर्फ दिन नहीं, अब तो रातें भी सुलगने लगी हैं। यह केवल मौसम की मार नहीं, बल्कि हमारी नीतिगत असंवेदनशीलता, जलवायु परिवर्तन की उपेक्षा और पर्यावरणीय दोहन का परिणाम है।
इस भीषण गर्मी और लू ने उत्तर-पश्चिम और मध्य भारत के आठ से अधिक राज्यों को अपनी चपेट में ले लिया है। दिल्ली-एनसीआर के नागरिकों को अब सूरज की रोशनी से अधिक भय सताता है। सुबह 7 बजे के पहले से ही तापमान 30 डिग्री के पार पहुँच जाता है, जिससे पता चलता है कि इस बार गर्मी के तेवर कितने विकराल हैं। परंतु इससे भी अधिक चिंता की बात यह है कि अगले कुछ दिनों तक इसमें और इज़ाफा होने की आशंका जताई जा रही है।
ऐसे हालात में मौसम विभाग द्वारा 12 जून तक जारी ऑरेंज और यलो अलर्ट, केवल चेतावनी नहीं, बल्कि आने वाले संकट का संकेत है। जिस तरह से उत्तर भारत में लू और हीट इंडेक्स जानलेवा हो चला है, उसी तरह पूर्वोत्तर और दक्षिण भारत में भारी बारिश, बाढ़ और भूस्खलन भी दूसरी तरह की तबाही की कहानी कह रहे हैं। सिक्किम में भूस्खलन के चलते सैनिकों की मृत्यु और लापता होने की खबरें हमें बताती हैं कि यह समस्या केवल किसी एक मौसम की नहीं, बल्कि समूचे भारत की पर्यावरणीय अस्थिरता का दुष्परिणाम है।
लेकिन इस गंभीर आपदा में भी हम मूल प्रश्न से मुँह मोड़े खड़े हैं आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? उत्तर स्पष्ट है जलवायु परिवर्तन। वर्षों से वैज्ञानिक और पर्यावरणविद् चेताते आ रहे हैं कि कार्बन उत्सर्जन, अंधाधुंध पेड़ों की कटाई, बढ़ती जनसंख्या, अराजक शहरीकरण और जल स्रोतों के दोहन ने हमारे पर्यावरणीय संतुलन को तहस-नहस कर दिया है। शहरों की कंक्रीट की छतें और डामर की सड़कों ने 'हीट आइलैंड' प्रभाव को और तीव्र कर दिया है। यही कारण है कि दिल्ली जैसे शहरों में तापमान का अनुभव वास्तविक तापमान से कई डिग्री अधिक हो जाता है।
अब यह केवल ‘जलवायु परिवर्तन’ शब्द तक सीमित बहस नहीं रह गई है, बल्कि एक जमीनी संकट बन चुका है। किसानों की फसलें सूख रही हैं, गरीब मजदूरों की जान पर बन आई है और स्वास्थ्य सेवाएं पहले से ही गर्मी से संबंधित बीमारियों के मरीजों से भर चुकी हैं। धूल भरी हवाओं ने वायु गुणवत्ता सूचकांक को 'खराब' श्रेणी में पहुँचा दिया है। ऐसे में क्या केवल अलर्ट जारी कर देना या लोगों को घर में रहने की सलाह देना पर्याप्त है?
सरकारों को चाहिए कि वे इस मौसमीय आपातकाल को गंभीरता से लें। तात्कालिक राहत के साथ-साथ दीर्घकालीन रणनीतियाँ बनाई जाएं। शहरी क्षेत्रों में 'ग्रीन कवर' बढ़ाया जाए, छतों पर सौर ऊर्जा और शीतल छायादार संरचनाओं को बढ़ावा दिया जाए। जल स्रोतों के पुनरुद्धार, रेन वाटर हार्वेस्टिंग और जल संरक्षण योजनाओं को धरातल पर लाया जाए। मजदूरों, वृद्धों और बच्चों के लिए सार्वजनिक स्थलों पर शीतल आश्रय और जल सुविधा की व्यवस्था होनी चाहिए।
मीडिया और नागरिक समाज की भूमिका भी यहां निर्णायक है। हमें व्यक्तिगत और सामाजिक स्तर पर पर्यावरणीय जिम्मेदारी निभानी होगी। पेड़ लगाना, बिजली की बचत, पानी का विवेकपूर्ण उपयोग और प्लास्टिक का त्याग, ये सब अब केवल 'पर्यावरण दिवस' के भाषण नहीं, बल्कि जीवन रक्षक आदतें बननी चाहिए। यह भीषण गर्मी केवल एक मौसमी परिस्थिति नहीं, बल्कि प्रकृति की कठोर चेतावनी है। यह हमें पुकार रही है चेतो, जागो और बदलो। अगर अब भी नहीं बदले, तो भविष्य में मौसम नहीं, बल्कि मनुष्य ही सबसे बड़ा संकट बन जाएगा अपने लिए, और आने वाली पीढ़ियों के लिए भी।
– सम्पादक खबर मार्निंग