विनोद कुमार झा
मनुस्मृति और रामायण जैसे धर्मग्रंथों में पत्नी को 'धर्मपत्नी' कहा गया है जो केवल गृहस्थ जीवन की संरचना नहीं करती, बल्कि पति के पुण्य और पाप की भागीदार भी बनती है। यज्ञ, पूजा, व्रत, श्राद्ध आदि धार्मिक कार्यों में पति अकेले योग्य नहीं होता – जब तक कि उसकी अर्धांगिनी सम्मिलित न हो। यही कारण है कि राम ने सीता के बिना यज्ञ नहीं किया, और शिव की शक्ति के बिना शिवत्व अधूरा रहता है। स्त्री की यह आध्यात्मिक सहभागिता भारतीय जीवन-दर्शन का मूल आधार है।
धार्मिक दृष्टिकोण में नारी केवल एक सेवा करने वाली नहीं है, वह 'शक्ति' है, 'सहधर्मिणी' है, 'समान अधिकारिनी' है। पति के जीवन में आने के बाद पत्नी उसकी आत्मा की परिपूर्णता का प्रतीक बनती है। यह संबंध केवल शारीरिक या सांसारिक नहीं, अपितु आत्मिक और दैविक है। यही कारण है कि जब यज्ञ में पत्नी सम्मिलित नहीं होती, तो वह अधूरा और निष्फल माना जाता है। ‘अर्धांगिनी’ बनना नारी की गरिमा को सर्वोच्च मान्यता देना है।
यह अवधारणा केवल सनातन धर्म में नहीं, बल्कि वैदिक संस्कृति से उपजी उस सामाजिक प्रणाली में है, जहाँ स्त्री और पुरुष को पूरक माना गया है, प्रतियोगी नहीं। जब समाज इस सिद्धांत को आत्मसात करता है, तभी संतुलन, संयम और समरसता का मार्ग प्रशस्त होता है। अतः अर्धांगिनी होना न केवल एक संबोधन है, बल्कि एक दिव्य उत्तरदायित्व भी है, जिसे भारतीय नारी युगों-युगों से निभाती आई है।
अर्धांगिनी की व्युत्पत्ति और धार्मिक परिभाषा: 'अर्धांगिनी' शब्द संस्कृत के 'अर्ध' (आधा) और 'अंग' (शरीर) से बना है, जिसका तात्पर्य है पति के आधे शरीर की स्वामिनी। हिन्दू धर्म में विवाह के पश्चात पत्नी को पुरुष की अर्धांगिनी माना गया है, क्योंकि वह उसके जीवन की प्रत्येक शुभ-अशुभ गतिविधि की सहभागी बनती है। यह केवल शब्द भर नहीं, बल्कि धर्म, शास्त्र और परंपरा से मान्यता प्राप्त भाव है। पति-पत्नी के इस संबंध को आत्मा और चेतना, शिव और शक्ति, अग्नि और ईंधन के रूप में समझा गया है।
वेदों और शास्त्रों में पत्नी की सहभागिता: ऋग्वेद (10.85.26) में उल्लेख है "साम्राज्ञी श्वशुरे भव, साम्राज्ञी श्वश्र्वां भव। ननान्दरि साम्राज्ञी भव, सम्राज्ञी अधि देवृषु॥"
यह मंत्र पत्नी को केवल गृहस्थ की लक्ष्मी नहीं, बल्कि यज्ञ, धर्म और समाज की अधिष्ठात्री बताता है। गृहस्थ धर्म का पालन केवल तब पूर्ण होता है, जब पत्नी सहधर्मिणी होकर साथ चलती है। महाभारत में भी कहा गया है कि "पत्नी धर्मस्य सहचरी", अर्थात पत्नी धर्म की सहचरी होती है।
धार्मिक कर्मों में पत्नी की अनिवार्यता: विवाह उपरांत यज्ञ, तर्पण, श्राद्ध, पूजा, व्रत आदि सभी धार्मिक क्रियाएं तब तक पूर्ण नहीं मानी जातीं जब तक उसमें पति-पत्नी दोनों सम्मिलित न हों। विशेषकर 'दशाश्वमेध यज्ञ', 'राजसूय', 'पुत्रकामेष्टि यज्ञ' आदि में पत्नी की उपस्थिति आवश्यक होती है। यही कारण है कि राम ने अश्वमेध यज्ञ से पूर्व अयोध्या में सीता की स्वर्ण प्रतिमा बनाकर उनके प्रतीक के रूप में पूजा की, ताकि यज्ञ पूर्ण माना जा सके।
सांस्कृतिक और सामाजिक दृष्टिकोण से अर्धांगिनी की भूमिका: भारतीय सामाजिक संरचना में भी पत्नी को केवल गृहस्वामिनी नहीं, बल्कि परिवार की संस्कृति, मूल्य और परंपरा की वाहक माना गया है। वह न केवल बच्चों की माता होती है, बल्कि परिवार को संयम, स्नेह और समर्पण से बाँधने वाली शक्ति होती है। पति के जीवन की उन्नति में उसका परामर्श, उसकी प्रेरणा और उसका त्याग अद्वितीय भूमिका निभाता है। यही वह आध्यात्मिक पूरकता है, जो उसे ‘अर्धांगिनी’ बनाती है।
शिव-पार्वती और राम-सीता जैसे आदर्श: धार्मिक दृष्टांतों में अर्धांगिनी के सर्वश्रेष्ठ उदाहरण शिव-पार्वती और राम-सीता हैं। शिव स्वयं अर्द्धनारीश्वर कहलाते हैं – जो इस बात का प्रतीक है कि स्त्री और पुरुष दोनों मिलकर ही पूर्णता को प्राप्त करते हैं। पार्वती का तप, सीता का त्याग, सावित्री का संकल्प और अनसूया का पतिव्रत ये सब यह दर्शाते हैं कि अर्धांगिनी केवल जीवन की साथी नहीं, बल्कि आत्मा की प्रकाशवृत्ति है।
अर्धांगिनी का दिव्य स्वरूप: भारतीय धर्म-दर्शन में पत्नी को अर्धांगिनी कहकर एक अतुलनीय स्थान प्रदान किया गया है। यह सम्मान नारी की गरिमा को दर्शाता है और उसे जीवन के प्रत्येक मोड़ पर पुरुष की समान भागीदार बनाता है। अर्धांगिनी केवल संबंध नहीं, एक संस्कार है जहाँ आत्मा, धर्म, प्रेम और कर्तव्य का अद्वितीय संगम होता है। आज जब आधुनिकता की दौड़ में रिश्ते बिखर रहे हैं, तब अर्धांगिनी की यह परंपरा पुनः स्मरण कराने योग्य है कि स्त्री और पुरुष मिलकर ही जीवन को पूर्णता प्रदान करते हैं।