जगन्नाथ रथयात्रा : रथों की गूंज में ईश्वर के साथ चलती है आत्मा की यात्रा

  •  जीवन में यदि रथ के पहिए रुक भी जाएं, तो भक्ति की शक्ति से पुनः गति दी जा सकती है
  • 27 जून को यह महापर्व हमें एक बार फिर उस शाश्वत सत्य से जोड़ने आएगा 
  •  ईश्वर कभी दूर नहीं होते, बस मन का द्वार खोलना होता है

विनोद कुमार झा

हर वर्ष आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को ओडिशा के पुरी नगरी में एक अद्भुत, अनुपम और दिव्य दृश्य देखने को मिलता है जगन्नाथ रथयात्रा। लाखों श्रद्धालु उस दिन मानो एक ध्वनि में लयबद्ध हो जाते हैं "जय जगन्नाथ!"। यह केवल एक उत्सव नहीं, बल्कि अधर्म, अहंकार और अज्ञान पर धर्म, समर्पण और प्रेम की विजय यात्रा है। रथ के पहियों की हर गति आत्मा के चेतना की दिशा को दर्शाती है, और तीनों रथों की यात्रा आत्मा, मन और परमात्मा के मध्य पुल का निर्माण करती है। इस यात्रा के पीछे एक गूढ़ रहस्य छिपा है  ईश्वर जब भक्तों के पास स्वयं चलकर आते हैं , तब केवल दर्शन ही नहीं, पापों से मुक्ति का द्वार भी खुलता है।

भगवान जगन्नाथ, जिनके साथ उनके बड़े भ्राता बलभद्र और बहन सुभद्रा विराजते हैं, हर वर्ष अपने भव्य मंदिर से बाहर निकलकर गुंडिचा मंदिर तक की यात्रा करते हैं। इस रथयात्रा के पीछे कई रहस्य हैं। मान्यता है कि भगवान श्रीकृष्ण अपने बाल्यकाल की लीलाओं को याद करने के लिए द्वारका से वृंदावन लौटते हैं , और पुरी की यह यात्रा उसी का रूपांतरण है। गुंडिचा मंदिर को श्रीकृष्ण के ननिहाल (मातुलगृह) के रूप में देखा जाता है। इस यात्रा के दौरान ईश्वर अपने भक्तों के बीच, उनके मार्गों पर, उनके जीवन की धूल को अपने रथ के पहियों पर लेकर चलते हैं – यह संकेत है कि ईश्वर हर अवस्था में हमारे साथ हैं , चाहे हम कितने भी अशुद्ध क्यों न हों।

इस रथयात्रा में भगवान का मंदिर से बाहर आना प्रतीक है उस क्षण का जब सत्य स्वयं अंधकार में भटक रही आत्माओं की खोज में निकलता है। भक्तजन मानते हैं कि जो भी इस दिन रथ को खींचता है या उसके दर्शन मात्र करता है, उसके सभी पाप कट जाते हैं और मोक्ष का द्वार खुल जाता है। रथयात्रा इस बात की याद दिलाती है कि ईश्वर केवल मंदिर में नहीं, प्रेम, भक्ति और विनम्रता में वास करते हैं। पुरी की रथयात्रा में रथ को खींचना जीवन के संघर्षों को ईश्वर की दिशा में ले जाने का प्रतीक माना जाता है।

रथयात्रा का एक विशेष पक्ष यह भी है कि इसमें ईश्वर को लकड़ी के नए शरीर (नवकलेवर) में पूजा जाता है, जो यह दर्शाता है कि परिवर्तन संसार का नियम है, पर आत्मा शाश्वत है। इस परंपरा का अनुसरण करते हुए श्रद्धालु अपने जीवन की नकारात्मकताओं को त्यागकर ईश्वर की ओर अग्रसर होते हैं।

कलियुग, जोकि द्वेष, स्वार्थ और भ्रम का युग माना गया है  उसमें जगन्नाथ रथयात्रा एक प्रकाशस्तंभ की तरह है। यह यात्रा हमें याद दिलाती है कि जब संसार पथभ्रष्ट होता है, तब ईश्वर स्वयं मार्गदर्शन करने आते हैं। यह परंपरा न केवल धार्मिक क्रिया है, बल्कि एक सामाजिक सुधार की प्रक्रिया भी है  जब सभी जाति, वर्ण, धर्म, लिंग की सीमाएं टूट जाती हैं और सब मिलकर रथ को खींचते हैं। यह भाईचारे, समर्पण और सामाजिक समरसता की अभिव्यक्ति है।

आज के आधुनिक युग में, जब मनुष्य भौतिकता की दौड़ में आत्मा की आवाज़ को भूलता जा रहा है, तब यह रथयात्रा उसे भक्ति, अनुशासन और संतुलन का पाठ सिखाती है। यह बताती है कि जीवन में यदि रथ के पहिए रुक भी जाएं, तो भक्ति की शक्ति से पुनः गति दी जा सकती है।

पुरी की जगन्नाथ रथयात्रा कभी केवल ओडिशा तक सीमित थी, पर आज यह भारत के हर छोटे-बड़े शहर—कोलकाता, मुंबई, दिल्ली, अहमदाबाद, वृंदावन, वाराणसी, पटना, रांची, इंदौर, चेन्नई, और यहां तक कि विदेशों तक में मनाई जाने लगी है। इस बदलाव के पीछे केवल धार्मिक भावना नहीं, बल्कि मानवता, भक्ति और एकात्मता की सार्वभौमिक भावना** है। आज यह यात्रा सनातन संस्कृति के प्रचार-प्रसार का सबसे भव्य और लोकप्रिय रूप बन गई है।

इस परिवर्तन का श्रेय विशेष रूप से अंतरराष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ (ISKCON) को जाता है, जिसने इसे विश्वव्यापी बनाकर "चलती-फिरती तीर्थयात्रा" का रूप दे दिया। इसके माध्यम से देश के हर कोने में लोगों को यह अनुभव होने लगा कि यदि वे पुरी नहीं जा सकते, तो पुरी उनके पास आ गया है।

 धर्म ग्रंथों में वर्णित रथयात्रा की कथाएं : जगन्नाथ रथयात्रा कोई आधुनिक परंपरा नहीं, बल्कि यह प्राचीन ग्रंथों और पुराणों में भी वर्णित है। नीचे कुछ प्रमुख ग्रंथों में इसकी उल्लेखनीय कथाएं दी गई हैं:

1. स्कंद पुराण (Skanda Purana) : "गुंडिचा यात्रा" का वर्णन विस्तार से स्कंद पुराण के वैष्णव खंड में किया गया है। यहां भगवान विष्णु (जगन्नाथ) की रथ पर आरूढ़ होकर नगर भ्रमण की परंपरा बताई गई है। इसमें कहा गया है कि:

यदा रथेन संयुक्तो देवो याति जनार्दनः।

तदा दर्शनमात्रेण मुच्यते सर्वपातकैः॥

(अर्थ: जब भगवान जनार्दन (जगन्नाथ) रथ पर सवार होकर नगर भ्रमण करते हैं, तब उनके केवल दर्शन मात्र से ही सभी पापों से मुक्ति मिल जाती है।)

 2. ब्रह्म पुराण (Brahma Purana) : ब्रह्म पुराण में पुरी को "श्री क्षेत्र", भगवान जगन्नाथ को "नित्यवासी नारायण", और रथयात्रा को "आत्मा की मुक्ति के मार्ग की यात्रा" कहा गया है। इसमें रथयात्रा को द्वारका से वृंदावन लौटते श्रीकृष्ण की स्मृति बताया गया है।

 3. पद्म पुराण (Padma Purana) : पद्म पुराण में कहा गया है कि कलियुग में केवल रथयात्रा का दर्शन ही पुण्य प्रदान करने वाला और मोक्षदायक होता है। इसमें रथों की पूजा, उनके निर्माण की विधि, और यात्रा के दौरान की जाने वाली प्रार्थनाओं का उल्लेख मिलता है।

 4. नारद पुराण (Narada Purana): इस पुराण में बताया गया है कि रथयात्रा के दिन ईश्वर स्वयं अपने भक्तों के पापों को हरने के लिए रथ पर चढ़कर नगर भ्रमण करते हैं।

विशेषकर इसमें कहा गया है कि :-

अर्चायामेव हरये पूजनं न तु भक्ततः।

रथस्थो भक्तिभावेन सेवितो भवहारकः॥

(अर्थ: केवल मूर्ति में नहीं, रथ पर आरूढ़ होकर भक्तिभाव से पूजे गए हरि ही भव-सागर से तारने वाले हैं।) 

5. श्रीमद्भागवत महापुराण (Bhagavata Purana): इस ग्रंथ के दशम स्कंध में भगवान श्रीकृष्ण की वृंदावन से द्वारका जाने और पुनः नंदगांव लौटने की लीलाओं का वर्णन मिलता है। भक्तगण मानते हैं कि रथयात्रा उन्हीं लीलाओं की स्मृति और पुनर्निमाण है –भगवान भक्तों के बीच लौटते हैं, जैसे श्रीकृष्ण गोकुल लौटे थे।

 6. कथासरित्सागर और ओडिशा की लोकगाथाएं : प्राचीन ग्रंथ कथासरित्सागर’ और कई ओड़िया लोकगाथाएं भी इस यात्रा का वर्णन करती हैं, जहां रथ को आत्मा का प्रतीक और पुरी की गलियों को संसार की यंत्रणा बताया गया है।

जगन्नाथ रथयात्रा केवल एक परंपरा नहीं, बल्कि जीवन दर्शन का उत्सव है  जिसमें हर कोई सहभागी बन सकता है। यह यात्रा बताती है कि ईश्वर केवल मन्दिरों में नहीं, बल्कि हर उस मन में रहते हैं, जो उन्हें सच्चे भाव से पुकारता है। और जब भक्त अपने मन को रथ की तरह निर्मल बनाकर उसमें भक्ति की रस्सी बांधते हैं, तब ईश्वर स्वयं उसे खींचकर मोक्ष के मार्ग पर ले जाते हैं। यह रथयात्रा अब केवल पुरी तक सीमित नहीं रहा, बल्कि अब यह एक सांस्कृतिक और आध्यात्मिक आंदोलन बन चुका है। यह दर्शाता है कि कैसे धर्म ग्रंथों की गूढ़ परंपराएं आधुनिक समाज में भी जीवंत हो सकती हैं, और कैसे रथ के पहिए केवल ईश्वर को ही नहीं, समाज को भी आगे बढ़ाते हैं।

 -जय जगन्नाथ 

27 जून को मन, आत्मा और समाज मिलकर रथयात्रा के इस अद्भुत अनुभव से गुजरेंगे  जहां हर मोड़ पर ईश्वर साथ चल रहे होंगे।





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