संध्या की लाली में डूबा हुआ तपोवन अद्भुत लग रहा था। आकाश में रंगों की झिलमिलाहट थी कहीं रक्तिम, कहीं सुनहली, कहीं हल्की नीलिमा में डूबती क्षितिज रेखा। वायुमंडल में वेदपाठ की ध्वनि गूँज रही थी, जिसके पीछे से आती थी मंद-मंद हवाओं की सनसनाहट, और कभी-कभी मुनियों की शांति भरी फुसफुसाहटें।
पराशर मुनि यज्ञकुंड के सामने बैठे थे, आँखें बंद, मस्तक पर आक्रोश की रेखाएँ। उनके चारों ओर जलती यज्ञाग्नि की लपटें क्रोध के प्रतीक बनकर उठ रही थीं और हविष्य की आहुतियों के साथ राक्षसों की चीखें जैसे दिशाओं में गूँज रही थीं।
पर उनके मन में केवल एक ही स्वर प्रतिध्वनित हो रहा था: “पिता! पिता! उन्होंने मेरे पिता को मार डाला…
इसी बीच, शांति की तरह एक आहट हुई वसिष्ठ मुनि का आगमन हुआ। वे धीरे-धीरे, अपनी लाठी पर टिकते हुए, पास आए। उनके सफेद केश सूर्य की अंतिम किरणों में चमक रहे थे, और आँखों में वह करुणा थी, जो केवल उन ऋषियों के भीतर पनपती है, जिन्होंने समय की धार पर खड़े होकर अनंत को देखा हो।
वसिष्ठ (नरम आवाज में): “वत्स पराशर, क्रोध की यह अग्नि तुझे कहाँ ले जाएगी?”
पराशर ने आँखें खोलीं। उनमें ज्वाला थी, विद्रोह था।
पराशर: “पितामह! जिन राक्षसों ने मेरे पिता को खा लिया, क्या वे इस धरा पर जीवित रहें? मैं उन्हें भस्म कर दूँगा! मैं उनका नाश करूँगा!”
वसिष्ठ: “वत्स, सोच। तू ऋषि कुल का दीपक है। क्रोध की ज्वाला में तपकर तू स्वयं भस्म न हो जाए! यह संसार कर्म का रंगमंच है, यहाँ जो होता है, उसके पीछे ईश्वर की योजनाएँ हैं, जिन्हें मनुष्य नहीं जान सकता।”
पराशर की मुट्ठियाँ भींच गईं।
पराशर (दाँत पीसकर): “किस योजना में पिता का बलिदान लिखा होता है, पितामह? कौन-सा धर्म ऐसा अन्याय सिखाता है?”
वसिष्ठ मुस्कराए, आँखें आकाश की ओर उठाईं।
वसिष्ठ: “वत्स, मृत्यु केवल एक देह का अंत है, आत्मा का नहीं। और अपराध की जड़ केवल बाहरी रूप में नहीं, कर्मों में है। उन राक्षसों ने तेरा पिता हर लिया, पर क्या तू भी क्रोध में अंधा होकर वही बन जाएगा, जो वे थे?”
वसिष्ठ की आवाज, धीमी पर प्रभावशाली, जैसे यज्ञकुंड की लपटों को भी शांत कर रही थी।
पराशर काँपते हाथों से आहुति का पात्र नीचे रखने लगे। लपटें मद्धम पड़ गईं, हवाओं की सनसनाहट धीमी हो गई, और दिशाओं में जैसे एक अनकही शांति फैल गई।
तभी आकाश में एक दिव्य प्रकाश उतरा। पुलस्त्य मुनि, तपस्वियों में अग्रगण्य, प्रकट हुए। उनके चेहरे पर तेज, आँखों में गहराई, और वाणी में स्नेह था।
पुलस्त्य: “वत्स पराशर, तूने क्षमा का वरण किया यही सच्चा तप है। मैं तुझे वर देता हूँ: तू पुराणसंहिता का वक्ता बनेगा, देवताओं के रहस्य तेरी बुद्धि में उतरेंगे, और भोग-मोक्ष के मार्ग स्पष्ट होंगे।”
पराशर ने पुलस्त्य के चरणों में सिर झुका दिया। तभी वसिष्ठ ने अपना हाथ आशीर्वाद में उठाया।
वसिष्ठ: “वत्स, आज तूने आत्मविजय पाई है, यही सच्चा ऋषित्व है।”
समय बीता। आश्रम की बेलों पर कोयल कुहकने लगीं, ऋषियों के बीच पराशर की ख्याति फैल गई।
एक दिन, जब आकाश में शरद् पूर्णिमा की चाँदनी बरस रही थी, आश्रम में मैत्रेय मुनि आए। उनका मुख तेजस्वी, और आँखों में प्रश्नों की ज्वाला थी।
मैत्रेय (विनम्र स्वर में): “हे गुरुदेव! आपके आश्रय में मैंने वेद, वेदांग, धर्मशास्त्र सीखे; अब मेरा हृदय यह जानने को व्याकुल है यह जगत किससे उत्पन्न हुआ, किसमें स्थित है, किसमें लीन होगा?”
पराशर मंद मुस्कराए, आकाश की ओर देखा जहाँ नक्षत्रों की मालाएँ टिमटिमा रही थीं।
पराशर: “वत्स, तूने अपने प्रश्नों से मुझे पुरानी स्मृतियों में पहुँचा दिया। सुन, यह समस्त जगत भगवान विष्णु से उत्पन्न हुआ है, उन्हीं में स्थित है, और उन्हीं में लीन होगा। वही कारण हैं, वही कार्य, वही दृश्य, वही अदृश्य।”
रात्रि के मध्य तक, पराशर ने मैत्रेय को सृष्टि की उत्पत्ति, युगचक्र, मन्वंतर, देवताओं की उत्पत्ति, प्रलय की गति, धर्मों का स्वरूप, राजर्षियों और देवर्षियों की कथाएँ सुनाईं। चाँद धीरे-धीरे डूबा, आकाश में पूर्व का आलोक प्रस्फुटित हुआ जैसे कथा की समापन ध्वनि के साथ ही नया प्रभात हुआ।
कहानी के अंत में, मैत्रेय ने गुरु के चरणों में झुकते हुए कहा: “गुरुदेव, आज मैंने जाना जिसने अपने क्रोध को जला दिया, वही संसार का ज्ञान पा सकता है। क्षमा ही सृष्टि का मर्म है।”
पराशर ने हाथ उठाकर आशीर्वाद दिया, और उस क्षण आकाश में पहली किरण फूटी मानो स्वयं सूर्य भी इस ज्ञान के प्रकाश को नमन करने आया हो।
“जो क्षमा कर सके, वही सृष्टि की कथा को अपने भीतर उतार सकता है; और जो क्रोध से ऊपर उठ सके, वही अनंत के द्वार पर खड़ा हो सकता है।”